आस्था के नाम पर पशुबलि


त्रिलोक चन्द्र भट्ट
सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता व हर्ता ब्रहम्मा, विष्णु, महेश ने हमेशा सात्विक पूजा ही ग्रहण की है। प्रमाणित धर्म शास्त्र और वेद पुराणों में कहीं ऐसा प्रसंग नहीं मिलता कि उन्होंने अपने भक्तों से अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिये पशु अथवा नर बलि की मांग रखी, अथवा उसका विधान बताया हो। इसी तरह शक्ति स्वरूपा सरस्वती, लक्ष्मी उमा व उनके विविध रूपों ने भक्त के मनोरथ पूर्ण करने के लिए रक्त पिपासा की इच्छा जाहिर करते हुए किसी निर्दोष की हत्या करने का फरमान भी कभी जारी नहीं किया। प्रमुख धर्म ग्रन्थों में ऐसे प्रमाण भी नहीं मलते कि देवताओं ने दैत्यों की भांति दूसरे जीव का मांस भक्षण किया हो। सम्भवतः आदम युग में देव उपासकों की कपोल कल्पनाओं ने अपने हितों की पूर्ति के लिए श्रद्धालुओं को ऐसा कुछ आदेश निर्देश दिया हो जिसने मनुष्य को पशु बलि के लिए प्रेरित किया। उसके बाद राजशाही के दौरान भी कई राजाओं ने राज्य की खुशहाली और सुख सम्पन्नता के लिये ंमंदिरों में बलियां दी तो राजा को ईश्वर का दूसरा रूप मामने वाली प्रजा ने उसी का अनुसरण किया और खुद भी अपने परिवार में पूजन के साथ बलि परम्परा को अपनाया।
आदिकाल से ही मनुष्य इतना रूढ़ीवादी रहा है कि वह अपनी सुख सम्पन्नता की कामना के लिये दूसरों को कष्ट ही नहीं देता रहा बल्कि उनकी हत्या कर उसे सामाजिक व धार्मिक मान्यता दिलाता रहा है। कालान्तर में ही उसने अपनी गृह शान्ति, सुख सम्पन्नता व उन्नति के लिये पशुबलि के साथ नर बलि का भी प्रचलन शुरू कर दिया था। मानव बलि तो अब समाप्तप्रायः है लेकिन उत्तराखंड मंे धर्मिक कार्यों में पशुबलि के नाम पर निरीह पशुओं हत्या का सिलसिला सदियों से निरन्तर चल रहा है। अदालती निर्णय के बाद पशु बलि पर अंकुश तो लगा है लेकिन यह पूर्णतः बंद नही हो पायी हैं। मंदिर में जो बलि दी जाती थी अब वहां नहीं हो रही हैं तो लोग मंदिर के देवता के निमित्त वहां से दूर जंगल में या अन्यत्र चोरी छिपे बलि दे ही रहे हैं।
आदम युग मे जब मानव गुफाओं व वनों में निवास कर कन्द-मूल फल और अन्य जीवों का आखेट करता था तब भूकम्प, भू-स्खलन, बाढ,़ आंधी तूफान आदि प्राकृतिक आपदाओं के साथ विभिन्न बिमारियों को दैविक प्रकोप मानकर अनिष्ट निवारण के लिए उसने अपनी कल्पना के अनुसार पूजा का विधन भी तय किया। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इसी विधन के साथ उस आखेट युग में पूजा के साथ बलि प्रथा का भी उदय हुआ होगा। आदमयुगीन मानव के मन में तब यह धारणा बन गयी थी कि कोई ऐसी शक्ति अवश्य है जिसके रूष्ट होने से उसे कष्टों का सामना करना पड़ता है अतः उसने उस काल्पनिक शक्ति को प्रसन्न रखने के के लिये पूजा व बलि का विधन किया। पूजन के दौरान जो भी कन्द मूल पफल व मांस उसने कथित ‘शक्ति’ अथवा देवता को चढ़ाया उसी को प्रसाद के रूप में भी ग्रहण करता रहा। यही क्रम सदियों से चलता रहा। देवों के साथ दानव व दिवंगत पितरों अथवा देवता के रूप में स्थापित राजा को भी जब पूजा देने का विधान हुआ तो उनकी प्रसन्नता की कामना के लिये उनको भी बलि दी जाने लगी। भूत-प्रेत बाध, घात, प्रतिघात, दोष, झाड़ा-ताड़ा की कल्पना करने वाली मध््य हिमालय (उत्तराखण्ड) की कोल व भील जातियों ने जब जीव हत्या कर पूजा की परम्परा डाली तो वह आगे चल कर बलियों दो रूपों में परिणत हुई। उनके द्वारा कल्याणकारी कार्यों के कारण पूजित हुई आत्माओं को बलि देकर प्रसन्न किया गया तो चट्टानों से गिरे, बाढ़ मंे बहे, पफांसी लगाने अथवा अन्य कारणों से अल्प मृत्यु प्राप्त परिजनों को प्रेत योनि में गया मान कर इस लिये बलि दी गई कि मृत आत्माएं उनके परिवार के सदस्यों तो तंग न करें।
प्राचीन काल से चली आ रही पारिवारिक व क्षेत्रीय बलि प्रथा की परम्पराआंे का सम्बन्ध कब धार्मिक परम्पराओं के साथ जुड़ा यह कोई नहीं जानता। मनौतियां पूर्ण होने, किसी शुभ कार्य के निर्विघ्न सम्पन्न होने अथवा प्रेत बाधओं के निवारण के नाम पर कुल देवता, ईष्ट देवता, ग्राम देवता व अन्य देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिये पूजा के नाम पर पशुबलि देने की मान्यताओं से बलिप्रथा का प्रचलन बढ़ता चला गया तब पूजा के नाम पर बकरे व भैंसे की बलि के साथ त्रांत्रिक अनुष्ठानों के लिये अन्य पशु, पक्षी व नर बलि का प्रचलन भी था।
अपने सुख के लिये दूसरे जीव की हत्या करना और उसे धर्मिक व प्राचीन परम्परा से जोड़ देने से सभ्य समाज का एक वर्ग आहत होकर उसके विरोध में उठ खड़ा हुआ जिसके फलस्वरूप कालान्तर में बलि प्रथा का विरोध हुआ फलतः कई मंदिरों में बलि चढ़नी बन्द हुई। किन्तु अभी भी चोरी-छिपे प्रति वर्ष लाखों बकरों की हत्या सिर्फ इस लिये कर दी जाती है कि श्रद्धालु बलिदान के द्वारा अपने ईष्ट को प्रसन्न करना चाहता है। जबकि आस्था के सामने पशु बलि रोकने के सरकारी और गैर सरकारी सभी प्रयास ध्रे रह जाते हैं। करीब 18 वर्ष पूर्व 4 से 6 दिसम्बर 2003 के बीच उत्तराखण्ड के मात्रा दो ही स्थानों के देवपूजन के जो आंकड़े सामने आये थे उसमें पौड़ी जिले में नैनीडांडा ब्लाक के अन्तर्गत पुलटंडा मे सम्पन्न निरंकार महापूजन में 55 हजार से अधिक बकरों की बली दी गई। पौड़ी जिले के ही बूंखाल कलिंका में 100 भैंसे व 1100 से अधिक बकरों की बलि चढ़ाई गई। जिन लोगों द्वारा गुप चुप तरीके से बकरे कलिंका में चढ़ाये गये उनकी गिनती कितनी थी यह किसी को पता नहीं। पूजन व पशु हत्या के नाम पर आयोजित ऐसे मेले उत्सवो में जहां क्षेत्राीय भावनाएं व धर्म जुड़ा रहा है वहीं राजनीति भी प्रभावी रही है जिस कारण बलि रोक पाने में प्रशासन बौना पड़ता रहा। इस सबके बीच यह भी उल्लेखनीय रहा कि जब प्रशासन स्वयं पेयजल, विद्युत, दूरसंचार व स्वास्थ्य सेवाएं भी ऐसे आयोजनों के दौरान उपलब्ध कराता था। राज्य के मंत्री तक वहां मौजूद रहते थे। ऐसा ही कुछ नजारा तब पुलटंडा के निरंकार महापूजन में था।
परिवर्तनशील समाज मे जब सभ्यता का उदय हुआ तो मनुष्य ने बहुत कुछ सीखा। धर्मिक आस्थाओं के साथ विज्ञान की ओर उसका रूझान बढ़ा। पफलतः चिन्तन और परिवर्तन की एक नई दिशा मिली। उसके आचार, विचार और व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन आये। धार्मिक परम्पराओं के बजाय उसने विज्ञान के आविष्यकारों को स्वीकार किया। लेकिन जीवन के कुछ मोड़ ऐसे होते हैं जहां विज्ञान ठहर सा जाता है तब बड़े बड़े वैज्ञानिक और चिकित्सक भी सर्व शक्तिमान उस शक्ति को याद कर अपने मिशन की सफलता की कामना करते हैं जिस शक्ति को उन्होंने देखा ही नहीं है। उसी अदृश्य शक्ति को अपना सब कुछ मानने वाला व्यक्ति उस देवात्मा में इतना लीन हो जाता है कि शक्ति के वशीभूत कुछ ऐसा विशेष बोलता व भाव प्रदर्शित करता है जो स्वयं उसे व देखने वालों को दैविक चमत्कार महसूस होता है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा बताई गई उक्ति का ही अनुसरण आस्थावान लोगों ने किया। इसी युक्ति में दैविक और राक्षसी प्रवृत्ति के अनुसार पूजा और अनुष्ठान के विधान बताये गये। मनुष्य ने इनका अनुसरण करना आदम युग से ही शुरू कर दिया था। इसके बावजूद मनुष्य द्वारा जो भी अंश बलि के रूप में देवालयों में चढ़ाया जाता है उसे देवताओं ने कभी ग्रहण नहीं किया। फिर भी देवता के निमित्त रखे गये पशु की बलि देने के उपरान्त उसका शीश व अन्य जो भी अंग भोग के प्रतीक स्वरूप देवालय में चढ़ायें जाते हैं वह मांस अन्ततः भगवान के बजाय श्रद्धालु, पुजारी अथवा दूसरे सेवकों के ही उदर भरण के काम आता है। लेकिन उस सत्यता के बाद भी मनुष्य का भ्रमजाल टूटने का नाम नहीं लेता कि जिस भगवान को उसने सब कुछ परोसा था उसका न तो कोई अंश घटता है और न बढ़ता है और वह यथा स्थान ज्यों का त्यों रखा रहता है। मनुष्य का यह विश्वास आज भी कायम है कि देवी या देवता के समक्ष रख देने मात्रा से ही वे अदृश्य रूप से उस अंश का स्वीकार कर ग्रहण कर लेते हैं।

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