जड़ी-बूटी संरक्षण से ही आयुर्वेद सुरक्षित

-त्रिलोक चन्‍द्र भट्ट

    हिमाच्छादित पर्वत शिखर और नैसर्गिक सौन्दर्य को निहारने वाले यात्री तीर्थाटन व पर्यटन के लिए ही प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर हरिद्वार को जानते हैं लेकिन अब वह यह भी जानने लगे हैं कि इस पर्वतीय प्रदेश को कुदरत ने जड़ी-बूटियों के रूप में जो अकूत खजाना दिया है वह भारत के किसी प्रान्त के पास नहीं है।

 इतिहास इस बात का गवाह है कि जब एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति अस्तित्व में भी नहीं आयी थी तब दधीचि के सिर को हटाकर उसकी जगह घोड़े के सिर का प्रत्यारोपण और फिर उसे हटाकर असली सिर लगा देना, ऋज्राष्‍व की अंधी आँखों में रोशनी प्रदान करना, यज्ञ के कटे सिर को पुनः सन्धान करना, श्राव का कुष्ठ रोग दूर कर उसे दीर्धायु प्रदान करना, कक्षीवान्‌ को पुनः युवक बनाना, वृद्ध च्यवन को पुनः यौवन देना, वामदेव को माता के गर्भ से निकालने जैसे आश्‍चर्य आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के ही चमत्कार थे। ऐसी ही हजारों चमत्कारी औषधियों से उत्‍तराखण्‍ड का हिमालयी क्षेत्र भरा पड़ा है। 

    चीन और नेपाल की अन्तराष्ट्रीय सीमा पर 53484 वर्ग किलोमीटर में फैले उत्‍तराखण्‍ड के 34434 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में 4800 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कोणधारी अल्पाइन वनों से लेकर 1200 मीटर से भी कम ऊँचाई वाले उष्ण कटिबंधीय वनों के विस्तृत भू-भाग में 2000 जड़ी-बूटियों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। हिमालय की बर्फीली चोटियों से लेकर शिवालिक की तलहटी में फैले इन वनों में प्रचुर मात्रा में मौजूद औषधीय पादपों के प्रति स्थानीय जन-मानस की अनभिज्ञता, जड़ी-बूटियों की उपयोगिता तथा संरक्षण के प्रति जानकारी न होने के कारण पहाड़ के लोग इनके वास्तविक लाभ से वंचित रहे हैं। जबकि जड़ी-बूटियों की थोड़ी बहुत जानकारी भी रखने वाले बाहरी लोगों ने उत्‍तराखण्‍ड के जंगलों से इनका व्यावसायिक दोहन कर अच्छा लाभ अर्जित किया है। यही लाभ उत्‍तराखण्‍ड के ग्रामीण अंचलों में मरीजों का उपचार करने वाले वैद्य, स्थानीय औषधि निर्माणकर्ता और राज्य के आयुर्दिक चिकित्सालय भी उठा सकते थे। ,      

     मानवीय हलचल, भूकम्प, बाढ़, अतिवृष्टि और वनों पर पडते भारी जन दबाव के कारण लाइलाज बीमारियों और जीवन रक्षक औषधियों के निर्माण में उपयोग होने वाली जड़ी-बूटियों के पौधे बड़े पैमाने पर नष्ट हो रहे हैं।  उचित संरक्षण के अभाव और तस्करों की निगाह में आये कई दुर्लभ औषधीय पादप अनियंत्रित दोहन और पहले से ही उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण या तो नष्ट हो चुके हैं या लुप्त होने के कगार पर है। जो औषधीय पादप अस्तित्व में हैं भी तो उनका व्यावसायिक दोहन करने के लिए उस पर राज्य सरकार की नजर लगी हुई है।  जड़ी बूटियों के संरक्षण और सवंर्धन के लिए धरातल पर प्रभावशाली कार्ययोजना के न बनने से उनके दोहन के लिए वनों पर पड रहे मानवीय दबाव के कारण उनके अस्तित्व पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे ह्रै।

      सुरक्षित, सिविल-सोयम, पंचायती और नगर क्षेत्रीय वनों पर पशु चारण, चारे पत्ती के लिए इतना मानवीय दबाव है कि जानकारी के अभाव में चरवाहे और घसियारे औषधीय पेड़-पौधों को हरे चारे के रूप में अपने पशुओं को खिला देते हैं। रही-सही कसर लकड़ी बीनने वाले लकड़हारे और तस्कर पूरी कर रहे हैं अलबत्ता निजी वनों में औषधीय पादपों के संरक्षण की अधिक सम्भावनाएं अधिक हैं। किन्तु निजी वनों का प्रतिशत काफी कम होने के कारण उनमें औषधीय पादपों की प्रजातियों की संख्‍या भी नाम मात्र की ही है।

बागेश्‍वर, पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी जनपदों के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में भेड़ पालकों और हरिद्वार, देहरादून, पौड़ी, उधमसिंह नगर तथा नैनीताल जिलों में निवास करने वाले वन गूजरों के कारण भी जड़ी-बूटियों के पौधों की पैदावार और उनकी वृद्धि बड़े पैमाने पर प्रभावित हो रही है।

      ग्रीष्म काल में भड़कने वाली दावानल भी औषधीय जड़ी-बूटियों के लिए प्रतिवर्ष काल बनकर आती है। इससे पेड़-पौधे नष्ट होने के साथ नये अंकुरण के लिए बीज तक नहीं बच पाता, जिस कारण प्राचीन काल से ही घरेलू नुस्खे और घास-फूस की दवा के रूप में जन मानस में रच बस चुका परम्परागत आयुर्वेद आज नष्ट होने के कगार पर है।

उदर कृमि, पाचन संबधी रोग के उपचार के लिए उपयोग में आने वाला अतीस, हृदय व मानसिक रोगों के उपचार में उपयोग की जाने वाली लालजड़ी,  कुष्ठ रोग, श्वास और  यकृत संबधी बिमारियों के इलाज के लिए केदार कड़वी  ही नहीं अल्सर और कैंसर जैसी बिमारियों के के निदान के लिए प्रयोग की जा रही बन ककड़ी जैसी जीवन रक्षक औषधि यहां प्रचुर मात्रा में मिलती हैं। गठिया, जोड़ों में सूजन, पक्षाघात,श्‍वास और अनिद्रा आदि बिमारियों में बेहद लाभदायक सिद्ध हुई अद्गवगन्धा नामक औषधि भी यहीं प्राप्त होती है। बल, वीर्य वर्धक तथा कमर दर्द के लिए उपयोगी की जाने वली रूद्रवन्ती भी उत्‍तराखण्‍ड के ही वनों में मिलती है।

1500 मी० से 2700 मी० की उंचाई पर उपलब्ध होने वाली वन तुलसी जिसका उपयोग ज्वर कास-द्गवास तथा अजीर्ण रोग की औषधि निर्माण के लिए किया जाता है ।  द्गवास-कास की औषधि के निर्माण के लिए 2100 मी० से अधिक की उचाई पर पैदा होने वाली सोमलता, यकृत वृद्धि, अर्द्गा, जीर्ण चर्मरोग तथा नेत्ररोगों में उपयोगी मकोय सहित मीठा विष, बच, हंसराज, रतनजोत, अनन्तजोत, गिलोय, धतूरा, बडूसा, डोलू, गन्द्रायण, सालममिश्री, भांग, बज्रदन्ती, पाषाणभेद, नैर कपूर कचरी, किनगोड़ा, इन्द्रायण, चित्रक, हत्ताजड़ी आदि सैकड़ों जड़ी बूटियों की एक लम्बी फेहरिस्त है जिनसे बनी औषधियों ने चमत्कारिक रूप से कई लाइलाज बिमारियों को ठीक किया।

 इसीलिए वानिकी दिवस, पर्यावरण दिवस, वन माहोत्सव और विश्‍व प्राकृतिक दिवस की भांति आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को ध्यान में रखकर जड़ी बूटियों का संरक्षण, संवर्धन और इस ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए आयुर्वेद दिवस मनाने के लिए सशक्त पहल करने की आवश्‍यकता है।

आज विश्‍व को यह बताने की आवश्‍यकता नहीं है कि पूर्वकाल में जब किसी भी देश में किसी चिकित्सा पद्धति का कोई अस्तित्व नहीं था, तब इस देश में भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद अपने आठों अंगो सहित पूर्णरूप से विकास को प्राप्त कर उन्नति के चरम शिखर पर आरूढ़ थी। उस समय आयुर्वेद की वास्तविक स्थिति का आभास इस तथ्य से सहज ही हो जाता है कि युद्धक्षेत्र में हताहत हुए सैनिकों का तत्काल उपचार वहाँ स्थित शल्‍य-वैद्यों के द्वारा ही किया जाता था। बड़ी आसानी से उनके कटे हुए अंगों को जोड़ दिया जाता था। उतराखण्‍ड में तो आयुर्वेद अनादिकाल से ही यहॉं के जन जीवन में रचा बसा है यही कारण है कि छोटी मोटी बिमारियों के इलाज के लिए जड़ी बूटियों से उपचार करने की परम्परा आज भी चली आ रही है।

    वर्तमान जीवन की आपाधापी और व्यस्तता के बीच आज मनुष्य अपना अच्छा बुरा सोचने की क्षमता भी खोता जा रहा है। परिस्थिति की दृष्टि से संवेदनशील वनौषधि पादप क्षेत्र जल विद्युत, जल परियोजनाएं, बाँध निर्माण और सड़क निर्माण आदि कार्यों से भी प्रभावित हो रहा है। विकास कार्यों के नाम पर हुई प्रकृति और पर्यावरण के साथ मानवीय छेड़छाड़ के कारण विलक्षण जैव विविधता वाले क्षेत्रों के लिए जो खतरा पैदा हो रहा है, उसे नहीं रोका गया तो औषधीय पौधों की कई दुर्लभ प्रजातियां निश्चित रूप से लुप्त हो जायेंगी, जबकि जिस आयुर्वेद की वह अनदेखी कर रहा है उसकी सार्वभौमता मेसोपोटामिया, सुमेरिया, बैबीलोनिया, असीरिया, मिस्र, से लेकर आज इण्डोनेशिया, मारीशस, श्रीलंका, म्‍यामार, नेपाल, और तिब्बत तक विद्यमान है।

    अमरिका के औषधि संघ ने अपने चिकित्सकों और औषधि विशेषज्ञों को आयुर्वेद की पद्धति अपनाने की अनुमति दे दी है। पश्‍चिमी देशों के नागरिक अब जीवन का यथार्थ ढूंढने में लगे हैं और वैदिक पद्धति से ज्ञान की यथार्थता को समक्षने का प्रयास करने लगे हैं। उनको विश्‍वास हो चलाश है कि मनुष्य के मस्तिष्क में उठने वाले प्रश्‍नों का उत्तर भारत के वेदों में है।

     गत दस वर्षों से अमरीकी नागरिकों के जीवन में अमूलाग्र परिवर्तन दिखाई दे रहा है। मानसिक तनाव और हृदय विकार तथा अन्य जानलेवा बीमारियों से ग्रस्त इन लोगों के पास बड़ी कारगर औषधियों भले ही हों, पर उनकी समझ में एक बात अवश्‍य आ गई है कि इन सब बीमारियों का सम्बन्ध मन से होता है। शरीर और मन का बड़ा अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। इसी तथ्य को ढूंढ निकालने में वहाँ के मनीषियों को इतने वर्ष लगे और अन्त में उसकी चिकित्सा भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन और भारतीय परम्परा मिली। इसीलिए अमरिका जैसे पाश्‍चात्य देशों का झुकाव आयुर्वेद की ओर हुआ। अनेक अमरिकी नागरिक अब शुद्ध शाकाहारी हो गए हैं। इसी के साथ वहाँ के लोग नीम, तुलसी जैसी महत्वपूर्ण भारतीय घरेलू औषधियों को पेटेन्ट करा रहे हैं, लेकिन हम इस मामले में पीछे हैं। 

अतः प्रत्येक हितेच्छु व्यक्ति का यह पुनीत कर्तव्य है कि वह आयुर्वेद के ज्ञान को प्राप्त करे और इसके प्रचार-प्रसार एवं उपदेश को बहुजनहिताय, बहुजनसुखाय तथा लोकानुकम्पाय अधिकाधिक विस्तृत करे। प्राणी-मात्र के प्रति दया भाव से करूणार्द्र-हृदय ऋषियों ने इसका उद्बोधन किया है। जीवन-दान सबसे बड़ा दान है। सुन्दर स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा सुख है। इसलिए आयुर्वेद के उपदेशों का अक्षरश: पालन करना चाहिए और आर्तजनों की सेवा के क्षेत्र का विस्तार कर पुण्य और यश का अर्जन करना चाहिए।

भारतीय चिकित्सा-विज्ञान का मूल ”अथर्ववेद” माना जाता है। अथर्ववेद में चिकित्सा के प्रकारों में मन्त्रजाप, औषधिधारण, जलाभिषेक, बाह्यलेप तथा हवन आदि का प्रयोग बतलाया गया है। बेबीलोन में भारतीयों के प्राचीन काल की आयुर्वेद पद्धति से चिकित्सा का अभी भी प्रचलन है। प्राचीन काल में आयुर्वेद की लोकप्रियता इसी से सिद्ध हो जाती है कि अति दीर्घकाल तक भूगर्भ में दबी रह जाने से बहुत सी औषधियाँ नष्ट हो गयी होंगी परन्तु भाग्यवश जो कोई औषधें या वस्तुएं मिली हैं, उन असाधारण वस्तुओं के चिरकाल के बाद प्राप्त होने से भारतीय प्राचीन वैद्यक के गौरव की वृद्धि हुई है। कई हजार वर्षों के बीत जाने के बाद औषधियों के मिलने की आशा स्वभावतः क्षीण हो जाती है, फिर भी इनकी प्राप्ति कौतूहल का विषय है।

      अथर्ववेद, कौशिकसूत्र, रामायण, महाभारत तथा हर्षचरित आदि में सेना के शिविर में वैद्य के सुसज्जित स्वरूप का वर्णन मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तो आयुर्वेद से सम्बन्धित ऐसी औषधियों का वर्णन किया गया है जो आज के वैज्ञानिक और चिकित्सकों के लिए चुनौती बनकर रह गया है।

    आयुर्वेद के महत्व को दृष्टि में रखते हुए और प्राचीन औषधि जानते हुए उत्‍तराखण्‍ड सरकार इसके प्रचार-प्रसार के लिए कृतसंकल्प है।

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