भारत रत्न पं0 गोविन्द बल्लभ पन्त
लेखन/संकलन : त्रिलोक चन्द्र भट्ट
आजाद भारत के गृह मंत्री व गाँधी जी के विचारों के पोषक भारत रत्न पं0 गोविन्द बल्लभ पन्त का जन्म 1887 में खूँट (अल्मोड़ा) नामक ग्राम में मनोरथ पन्त के घर में हुआ था। सन 1897 ई0 में उन्होंने रामजे कालेज अल्मोड़ा में प्राथमिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वहाँ रहते हुए गोविन्द बल्लभ पन्त पर अल्मोड़ा की राजनीति का गहरा प्रभाव पड़ा। जिससे प्रभावित हो उन्होंने अपने विचारों को गति प्रदान करने के लिए 1903 में ‘हैप्पी क्लब' नामक संस्था की स्थापना की। तब वे हाई स्कूल के विद्यार्थी थे। 1905 में इन्टरमीडिएट की परीक्षा पास कर उन्होंने उच्च शिक्षा हेतु म्यौर सैंट्रल कालेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के दौरान इन्हें तत्कालीन संयुक्त प्रान्त और देश के बड़े नेताओं का सानिध्य मिला। फलस्वरूप गोविन्द बल्लभ पन्त में देश भक्ति की प्रबल भावनाएँ उभरने लगी और यहीं से उनका राजनैतिक जीवन प्रारम्भ हो गया। सन् 1905 ई0 में गोविन्द बल्लभ पन्त ने काशीपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में स्वयं सेवक के रूप में भाग लिया। फलस्वरूप उन्हें बी0ए0 की परीक्षा में बैठने से रोकने का आदेश जारी हुआ, किन्तु मदन मोहन मालवीय और सर तेजबहादुर स्पू्र के प्रयत्नों से उन्हें परीक्षा में सम्मिलित होने की अनुमति मिल गई। सन 1909 में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरान्त उन्होंने काशीपुर में रहकर वकालत आरम्भ कर दी। वहाँ न्यायालय में टोपी पहन कर जाने की अनुमति नहीं थी जबकि वे खद्दर की सफेद टोपी पहनते थे। जब उनके इस पहनावे पर अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने आपत्ति जताई तो उन्होंने बड़े निर्भीक शब्दों में उत्तर दिया कि, ‘’मैं न्यायालय से बाहर जा सकता हूँ लेकिन टोपी नहीं उतार सकता।'' और वे अपनी निर्भीक प्रवृत्ति के कारण उसी वेशभूषा में न्यायालय आते-जाते रहे।
अंग्रेजों के अत्याचार देखकर किशोरावस्था से ही उनमें गोरों के बंधन में जकड़ी अपनी मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने की ललक पैदा हो गई थी। वे अपने देश व देशवासियों पर किसी दूसरे का प्रतिनिधित्व् स्वीकार नहीं कर सकते थे। यद्यपि उनकी प्रारम्भिक शिक्षा सदर अमीन बद्रीदत्त जोशी, जो कि ब्रिटिश सरकार के समर्थक थे, के घर में रहकर हुई थी लेकिन पंत जी उनकी विचारधरा से सर्वथा अछूते रहे और वकालत करते हुए अपनी पत्नी और पुत्रा के वियोग को हृदय में दबाये राजनीति व सामाजिक कार्यों में बराबर हिस्सेदारी बनाये रहे। यह लगन व निष्ठा देश के प्रति उनके अगाध् प्रेम को प्रदर्शित करती है। समय के साथ-साथ साहित्य प्रचार व सामाजिक सुधर की लगन उनमें धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी, पफलस्वरूप 1914 ई0 में इस उद्देश्य से उन्होंने काशीपुर में ‘प्रेम सभा' और ‘उदयराज हिन्दू हाई स्कूल' की स्थापना की जिसमें निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी।
जिस समय राष्ट्रीय आंदोलन की लहर आई उस समय कुमाऊँ के लोग भी दो दलों में विभक्त हो गये थे परन्तु पंत जी ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए दोनों दलों में सामंजस्य स्थापित कराया और 1916 में बनने वाली ‘कुमाऊँ परिषद' नामक संस्था में विशेष योगदान दिया। अपनी राजनैतिक व सामाजिक सक्रियता के कारण उन्होंने शनैः-शनैः कुमाऊँ में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया था। 1918 ई0 में ‘खद्दर आश्रम' व ‘विधवा आश्रम' खोलकर वे लोगों के प्रिय तो बने ही 1919 में गढ़वाल के अकाल पीड़ितों के लिए भी सस्ते राशन की दुकान खुलवाकर जनता के मसीहा बन गये।
पन्त जी असहयोग आन्दोलन के समर्थक थे, इसलिए जब 1920 ई0 में सम्पूर्ण देश में ‘असहयोग आन्दोलन' की लहर आई तो उन्होंने लोगों को समक्षाना शुरू किया कि असहयोग की नीति के द्वारा ही देश की उन्नति होगी और हम स्वावलम्बी हो जायेंगे। इसी समय वे नैनीताल जिला परिषद् के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। इस पद पर निर्वाचित होने के बाद उन्होंने देहाती क्षेत्रों की शिक्षा एवं उद्योग पर और अध्कि बल दिया। वैसे तो शुरू से ही पन्त जी का राजनैतिक कार्य क्षेत्रा उत्तराखण्ड तक ही सीमित रहा लेकिन समय बीतने के साथ-साथ उनके कार्य के सोपानों में वृद्धि हुई और 1916 ई0 में वे ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी' के सदस्य चुने गये। 1923 ई0 में स्वराज्य दल के टिकट पर संयुक्त प्रान्त की विधन परिषद के सदस्य निर्वाचित हुए और उन्हें विरोधी दल का नेता चुना गया ।
सन् 1927 में जब गोविन्द बल्लभ पन्त संयुक्त प्रान्त की कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गये तो सर्वप्रथम उन्होंने ‘साईमन कमीशन' का बाहिष्कार करने के लिए संयुक्त प्रान्त का दौरा किया। उन्होंने स्थान-स्थान पर जनता को समक्षाने के लिए सार्वजनिक सभाएं आयोजित की और उन्हें साईमन कमीशन की बुराइयाँ बता कर उसका विरोध करने को कहा। अपने भाषणों में उन्होंने जन-साधरण को इस बात से अवगत कराया कि स्वराज्य दिया नहीं जाता बल्कि लिया जाता है। जगह-जगह दिये गये अपने भाषणों में उन्होंने ब्रिटिश सरकार के क्षूठे आश्वासनों की निन्दा की और जनता में अंग्रेजी शासन के प्रति विरोध् के स्वर जागृत किये।
1928 ई0 मे पन्त जी ने एक और जो प्रमुख कार्य किया वह था कुमाऊँ कमिश्नरी के समाज में व्याप्त ‘नायक प्रथा' नामक कुप्रथा को ‘नायक सुधर बिल' पारित कर समाप्त करवाना। उनकी देशभक्ति की मिशाल इससे बढ़कर क्या होगी कि जब 1929 में उन्होंने लखनऊ में जवाहरलाल नेहरू के साथ साईमन कमीशन के विरोध् में आयोजित प्रदर्शन का नेतृत्व किया और जवाहर लाल नेहरू के प्राणों की रक्षा हेतु अपने प्राणों को जोखिम में डाल कर पुलिस की लाठियों के प्रहार सहे थे, इस चोट के फलस्वरूप उनकी गरदन जीवन पर्यन्त काँपती रही। 1930 ई0 में पन्त जी को कुमाऊँ कमिश्नरी में ‘नमक' सत्याग्रह का नेतृत्व करने के कारण गिरफ्तार किया गया और 6 माह का कारावास दिया गया। लेकिन उनके कदमों ने रूकना नहीं सीखा था और इसके बाद ‘सविनय अवज्ञा' आन्दोलन के समय उन्हें पिफर गिरफ्रतार किया गया। देश भक्ति के लिये त्याग और सच्ची लगन को देखते हुए प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी द्वारा 1931 ई0 में पन्त जी को प्रान्तीय भूमि कमीशन का अध्यक्ष नियुक्त किया। उनके इस कमीशन की रिपोर्ट के परिणाम स्वरूप ही राज्य में भूमि सुधरों की नींव पड़ी। यह ‘पन्त कमेटी रिपोर्ट' के नाम से विख्यात है। सन 1931 ई0 में ही वे कांग्रेस कार्य समिति के सदस्य चुने गये। 1934 ई0 में ‘अखिल भारतीय संसदीय बोर्ड' के महामंत्री, उसी वर्ष संयुक्त प्रान्त संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष, तत्पश्चात् केन्द्रीय विधान सभा के सदस्य और काँग्रेस दल के उप नेता भी चुने गये।
पन्त जी समाज में पफैले छुआ-छूत के सखत विरोधी थे। उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने और समाज में जागृति लाने हेतु 1932 ई0 में अल्मोड़ा में ‘समाज सुधर सम्मेलन' आयोजित किया। इस सम्मेलन में कुमाऊँ के प्रमुख नेताओं ने भाग लिया और हरिजनों के उद्धार कार्यक्रम बनाकर उन्हें व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया गया। समाज में व्याप्त एक भयंकर बुराई को समाप्त करने का बीड़ा उठाना उनके दलितों के प्रति प्रेम को भी उजागर करता है।
सन 1937 के निर्वाचन में उन्होंने चुनाव लड़ा और विजयी हुए। पन्त जी संयुक्त प्रान्त में काँग्रेस दल के नेता चुने गये। उन्होंने मुख्यमंत्री का पद संभालने पर एक मंत्रिमंडल का गठन किया लेकिन उन्हें अंग्रेजों की नीति रास नहीं आई विरोध् स्वरूप 1939 ई0 में संयुक्त प्रान्त के काँग्रेस मंत्रिमंडल के पद से त्याग पत्रा दे दिया। किन्तु अपने अल्प शासन में ही पन्त जी ने ‘संयुक्त प्रान्त काश्तकारी कानून' पास किया और ‘काकोरी हत्या काण्ड’ के अभियुक्तों को छुटकारा दिलाया।
पंत जी के हृदय में स्वाधीनता की आग जल रही थी तो चैन से बैठने का सवाल ही नहीं था। 1940 ई0 में देश में ‘व्यक्तिगत सत्याग्रह' का सूत्रपात हुआ गोविन्द बल्लभ पंत जी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया और गिरफ्रतार किये जाने पर एक वर्ष की कैद की सजा पायी। 9 अगस्त 1942 ई0 को काँग्रेस कार्यकारिणी के अन्य नेताओं के साथ बम्बई में गिरफ्तार किये गये और सन् 1942 से 1945 ई0 तक वे अहमदाबाद किले में नजरबन्द रहे। 1946 ई0में पुनः चुनाव सम्पन्न हुए। पन्त जी 1946 ई0 से 1954 ई0 तक निरन्तर उत्तर प्रदेश के मुखयमंत्री बने रहे। अपने मुखयमंत्रित्व काल में उन्होंने जनता व देश के लिए विभिन्न सुधर किये। विशेष रूप से उन्होंने भूमि सुधार, नलकूपों का निर्माण, नहर निर्माण, सहाकारी समितियों की स्थापना, लघु उद्योंगों पर विशेष ध्यान दिया। गोविन्द बल्लभ पंत के शासन काल की सबसे महत्पूर्ण घटना जुलाई 1952 ई0 में उत्तर प्रदेश में जमींदारी उन्मूलन की विधिवत् घोषणा है। इससे सदियों पुरानी जमींदारी प्रथा समाप्त हो कर कृषक वर्ग के उज्जवल भविष्य का मार्ग प्रशस्त हुआ जिससे उन्हें खुली हवा में सांस लेने की आजादी मिली।
गोविन्द बल्लभ पंत बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साथ ही वे गाँधी जी के अनुयायी व दृढ़ निश्चयी विचारों के व्यक्ति थे इसलिए यदि कभी कोई क्रान्तिकारी कदम भी उठाना पड़ता था तो वे अपने मार्ग से विचलित नहीं होते थे। मन व विचारों से तो वे गॉंधी जी के साथ थे परन्तु उनका मन क्रान्तिकारियों के साथ था। सब कुछ होने पर भी उनका व्यक्तिगत जीवन छल-कपट से दूर सरल व निःस्वार्थ था। महात्मा गाँधी पन्त जी की कूटनीतिज्ञता और दृढ़ निश्चयता के गुण से बहुत प्रभावित थे अतः वे मौलाना आजाद के साथ वार्ता में पन्त जी को अपने साथ रखते थे मि0 जिन्ना भी इनसे प्रभावित थे। अतः वे ‘संविधान परिषद' के सदस्य भी रहे।
1955 ई0 में पन्त जी भारत के गृह मंत्री चुने गये इस पद पर वे 1961 ई0 तक बने रहे। 1958 ई0 में मौलाना आजाद की मृत्यु के पश्चात् उन्होंने काँग्रेस संसदीय दल के उपनेता के पद का दायित्व भी सँभाला। जिस समय उन्होंने गृह मंत्रालय का दायित्व सँभाला उस समय देश में अनेकों जटिल समस्याएँ व्याप्त थी। विशेष रूप से देश में भाषा तथा प्रदेश सम्बन्धी विवादों के कारण बहुत विद्रोह व अशांति फैली हुई थी और इनका निराकरण हुए बिना देश में अमन व शांति की कल्पना करना व्यर्थ था। पन्त जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे अतः उन्होंने उत्तर प्रदेश और भाषा सम्बन्धी दंगों से पूर्व जन-साधरण में हिन्दी के प्रचार व प्रसार के लिए अनेक प्रयत्न किये। उसी समय नेफा का विद्रोही नेता िफजो भी उग्रवादी बन कर सरकार के लिए पेरशानियाँ उत्पन्न कर रहा था। गृह मंत्रालय अपनी भरसक कोशिशों के बावजूद भी उसको नियंत्रित करने में सफल नहीं हो रहा था। पन्त ने उसकी नीतियों को असफल कर अपने अथक परिश्रम से प्रशासन में परिवर्तन किया। उन्होंने अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देते हुए देश में पफैली अनेकों समस्याओं का समाधन किया। फलतः असम, केरल और कश्मीर जैसे जटिल विषयों पर सरकार की नीतियाँ स्पष्ट हो गयी। राज्य के सम्बन्ध में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन किये गये। उनकी सूक्ष-बूक्ष व नीतियों से हर क्षेत्र में सुधार और परिवर्तनों के कारण स्पष्ट होता है कि पन्त जी दूरदर्शिता और सुलझे विचारों के होने के साथ-साथ बुद्धि के भी कितने धनी थे।
पन्त जी की बहुमुखी प्रतिभा और असाधारण योग्यता पर बिहार के प्रसिद्ध पत्र 'योगी' में अपने सम्पादकीय लेख में लिखा है कि वे केन्द्रीय सभा में सर्वाधिक योग्य नेता हैं। केन्द्रीय असेम्बली के आंगल भारतीय प्रतिनिधि एफ0 ई0 जेम्स ने भी पन्त जी की अद्वितीय प्रतिभा पर प्रकाश डाला है।
गाँधी जी ने गोविन्द बल्लभ पन्त के महान व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि फिरोज मेहता हिमालय के समान विशाल हैं, लोक मान्य तिलक समुद्र के समान गम्भीर है, गोखले गंगा के समान सरल हैं, परन्तु पं0 गोविन्द बल्लभ पन्त के व्यक्तित्व में इन तीनों गुणों का समावेश एक साथ मिलता है।'
समाजसेवी, राष्ट्रप्रेमी, महान विचारक और देशोद्धार आदि महान सेवाओं के लिए पन्त जी को 26 जनवरी 1957 ई0 में ‘’भारत रत्न'' की उपाधि से विभूषित किया गया। पन्त जी ने रुकना सीखा ही नहीं था अपने जीवन के अंतिम समय तक भी पंत जी अविरल गति से अपने कार्य में जुटे रहे। और 7 मार्च 1961 ई0 को इस महान राष्ट्र निर्माता की देह पंचतत्व में विलीन हो गई। पं0 जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें बवंडरों में रास्ता दिखाने वाली रोशनी की संज्ञा दी है।