लेखन/संकलन: त्रिलोक चन्द्र भट्ट
भारत भूमि सदैव से ही विश्व के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती आयी है। यहाँ की सभ्यता और संस्कृति जन सामान्य को ही नहीं अपितु उच्च शिक्षित, योगी, महात्माओं और विदेशियों को भी आलोक प्रदान करती रही है। कुछ लोग यहाँ के धन, सम्पदा, वैभव व शौर्य को नष्ट करने के उद्देश्य से यहाँ की शाँति भंग करने आते रहे और लूटकर जाते रहे इसके विपरीत कुछ लोग शान्ति व अन्तर्तम के सुख की खोज में सदियों से यहाँ की विद्या और दिव्य आलोक को खोजते रहे। लेकिन इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि आलोकिक सुख की अनुभूति प्रदान करने वाली देवभूमि में सच्चे मन से ज्ञान और आध्यात्म की क्षुध शान्त करने के लिए जिसने भी पग बढ़ाए उसे यहाँ की फिजां इनती भाई कि वह हमेशा के लिए यहीं का होकर रह गया। जब इंसान पर कोई भी लक्ष्य पाने का जुनून सवार हो जाता है तो जाति, धर्म, राष्ट्रीयता व प्रान्तीयता मंजिल की बाधा नहीं बनती। संत और ऋषि-मुनियों की इस तपोभूमि ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत आये उच्चतर शिक्षा प्राप्त एक अंग्रेज को इतना प्रभावित किया कि आध्यात्म का रास्ता पकड़ कर जनसेवा के कार्यों मे यहीं रम गये। उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए भारत सरकार ने इन्हें 1992 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।
माधव आशीष का जन्म 1920 में स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग में हुआ था और उनका नाम अलेक्जेंडर फिप्स रखा गया था। वे शेरबोर्न नामक एक प्रसिद्ध अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में गए और फिर लंदन के चेल्सी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग में एयरोनॉटिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। माता-पिता की आकाँक्षाओं के अनुरूप इन्होंने इंग्लैण्ड में उच्च शिक्षा प्राप्त की। इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा प्राप्त माधव ने जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत भूमि पर कदम रखा तो उनका हृदय परिवर्तित हो गया। जब ये प्रसिद्ध संत कृष्ण प्रेम के सम्पर्क आये तो उनसे काफी प्रभावित हुए उनका सत्संग मिलने से इनके जीवन की दिशा ही बदल गई। वे दीक्षा लेकर साधु बन गए। वैष्णव वैरागी साधु बने माधव आशीष ने भारतीय परिवेश में रह कर अपने गुरू के सानिध्य में रह कर दीर्घकालीन साधना की। गुरू के ब्रह्मलीन होने के बाद मिर्ताेला आश्रम के प्रधान सेवक के रूप में उनके मिशन को आगे बढ़ाते रहे। और अपनी मृत्यु तक संस्था के प्रबंधन की देखरेख की। उन्होंने खुद को पारिस्थितिक और पर्यावरणीय मुद्दों में भी शामिल किया और कृषि तकनीकों के साथ प्रयोग करना शुरू किया, जिसे उन्होंने स्थानीय किसानों को दिया। उनके नेतृत्व में, आश्रम अपनी कृषि, डेयरी और मुर्गी पालन के साथ आत्मनिर्भर बन गया। उनके काम को सरकार द्वारा क्षेत्र के स्कूलों में शिक्षा के विषय के रूप में कृषि शुरू करने के लिए प्रभावित करने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने कृषि और पारिस्थितिकी के संरक्षण पर कई लेख लिखे। मैन, सन ऑफ़ मैनऔर एन ओपन विंडो और श्री कृष्ण प्रेम के साथ मैन, द मेजर ऑफ़ ऑल थिंग्स के सह-लेखक , संन्यासी जो मिर्ताेला आश्रम के प्रमुख के रूप में सफल हुए। पुस्तक की शुरुआत श्री कृष्ण प्रेम ने की थी लेकिन आशीष ने इसे पूरा किया और यह पुस्तक थियोसोफिकल सोसाइटी ऑफ़ इंडिया की सह-संस्थापक हेलेना ब्लावात्स्की के जीवन और समय का वर्णन करती है ।
मिर्ताेला आश्रम में यशोदा मां, कृष्ण प्रेम और माधव आशीष के स्मारक, कृषि और पारिस्थितिकी से उनके जुड़ाव ने उन्हें भारत के योजना आयोग की कई समितियों में सदस्यता दिलाई। भारत सरकार ने उन्हें 1992 में पद्मश्री के नागरिक सम्मान से सम्मानित किया। पांच साल बाद, 13 अप्रैल 1997 को हुई, कैंसर के कारण उनकी मृत्यु हो गई, माधव आशीष की साधना और उनके आत्म ज्ञान से प्रभावित होकर देश-विदेश के अनेक जिज्ञासु साधकों ने इनसे आध्यात्मिक मार्ग दर्शन प्राप्त किया। चेतनात्मक सृष्टि का समूचा वितान, कर्मयोगी सन्तों, मनीषियों, प्रखर प्रज्ञावन्तों के दिव्य अवदान से भरा हुआ है। भावी पीढ़ियों के कदम उन्हीं आहुत चरणों के निशानों पर अपनी भाव धरा के अर्घ्य चढ़ाकर लक्ष्य तक पहुँचे हैं।
कुमाऊँ अंचल के विद्यालयों में पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में महत्वूपर्ण योगदान देने वाले माधव आशीष की निगरानी में मिर्ताेला आश्रम की 60 एकड़ भूमि का इतना विकास हुआ है कि वह पर्यावरण प्रेमियों के लिए एक प्रेरणास्रोत और आदर्श नमूना बन गया है। आधुनिक मनोविज्ञान और स्वप्न विचार का अनुपम सम्मिश्रण रखने वाले इस अंग्रेज संत के द्वारा लिखे गये कई पर्यावरणीय और आत्म ज्ञान सम्बन्धी लेख प्रकाशित हुए हैं। अपने गुरू के साथ इन्होंने ‘स्टेजेस आफ ध्यान’ नामक पुस्तक भी लिखी। ‘आध्यात्मिक दृष्टिकोण के स्वप्न विचार’ भी इन्हीं की कृति है।
हिमाद्रि के अभ्रंकश शिखरों से प्रवाहित सहस्रों जलधाराओ के प्रपात तथा निर्क्षरों की कल-कल निनाद से भरी अजस्र स्रोत रेखाओं से समवेत भागीरथी के उपकंठों पर सद्यस्नता, गैरीक वस्त्रों में आवेष्टित, कटि प्रदेश पर खचित मौज्जमेखला से युक्त साधिका की मानिन्द उषा कालीन क्षितिज से उतरती ताम्रवर्णी रश्मि रेखाओं के स्थासकों के प्रतिबिम्ब दीवारों को देखकर अज्ञात यात्रियों के कदम मिर्ताेला आश्रम में ठहर से जाते हैं। ब्रह्ममुहूर्त की शीतल समीर की लोरियों से स्वस्थ चित्त साध्कों की चेतना, मरीचिमाली कोमल किरणों के स्पर्श से मुस्कराते फूल की मानिन्द यज्ञशाला से उठती सुगन्धल से सरावोर आश्रम का वातावरण जीवन्त हो उठता है।