Wednesday, October 9, 2024
ArticlesIndiaUttarakhand

प्रसिद्ध कथा लेखिका गौरा पन्त ‘शिवानी’

-लेखन/संकलन: त्रिलोक चन्द्र भट्ट
लोकप्रियता के अनेकों सोपान तय कर ‘पद्मश्री’ से सम्मानित प्रसिद्ध कथा लेखिका ‘शिवानी’ का मूल नाम ‘गौरा’ था। इनका जन्म 17 अक्टूबर 1923 को एक कुमाऊँनी ब्राह्मण परिवार में गुजरात के राजकोट शहर में हुआ था। अंग्रेजी के विद्वान एवं आधुनिक विचारों के पोषक इनके पिता अश्विनी कुमार राजकोट शहर में ही राजकुमारों के लिए बने एक कॉलेज में पढ़ाते थे। वे गुजरात, बुन्देलखण्ड और उत्तर प्रदेश की विभिन्न देशी रियासतों में गृहमंत्री का पद भी संभाल चुके थे। शिवानी की माँ लीलावती भी गुजराती की विदुषी थी। एक सुशिक्षित और उच्च परिवार में जन्म लेने के कारण शिवानी को शुरू से ही साहित्यिक परिवेश मिला और वे स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद से ही हिन्दी साहित्य पर छा गई। इनके पति का नाम सुखदेव पंत था जो पहले लेक्चरर थे लेकिन बाद में संयुक्त सचिव के पद पर कार्यरत रहे।
मात्रा 12 वर्ष की उम्र से ही उनकी रचनाओं के प्रकाशन का जो सिलसिला अल्मोड़ा से प्रकाशित ‘नटखट’ पत्रिका से प्रारम्भ हुआ वह जिन्दगी भर निर्बाध् रूप से जारी रहा। शिवानी की प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा और बनारस में हुई। तंत्र साधना में पारंगत और संस्कृत के माने हुए विद्वान इनके दादा हरिराम ने मदन मोहन मालवीय की सलाह पर अपनी पौत्रियों गौरा (शिवानी), जयन्ती और पौत्रा त्रिभुवन को शिक्षा के लिए शाँति निकेतन भेजा। यहाँ इन तीनों को रवीन्द्र नाथ ठाकुर के सानिध्य में 9 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। यहीं से असाधरण प्रतिभा की धनी शिवानी के भविष्य का मार्ग प्रशस्त हुआ। उन्होंने बी0 ए0 की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। शान्ति निकेतन से निकलने वाली एक हस्तलिखित पत्रिका में शिवानी की रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित होती थी। यहाँ उनकी पहली कहानी बंगला में छपी। ‘सोनार बांग्ला’ नामक बंगाली पत्रिका में ‘मरीचिका’ शीर्षक से प्रकाशित कहानी ‘गौरा’ नाम से ही छपी थी। सन्‌ 1951 में धर्मयुग में प्रकाशित उनकी कहानी ‘मैं मुर्गा हूँ’ पहली बार शिवानी के नाम से छपी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने शिवानी को अपनी मातृ भाषा में लेखन की सलाह दी।
अपने जीवन काल में शिवानी ने दर्जनों उपन्यास, 15 कथा संग्रह, एक दर्जन यात्रा वृतान्त, के अतिरिक्त कुछ बाल साहित्य भी लिखा। इनके प्रमुख उपन्यासों में ‘मायापुरी’ 1961 में प्रकाशित हुआ। 1972 में ‘विषकन्या’ व ‘चौदह फेरे’ 1973 में ‘कैंजा’ 1975 में ‘सुरंगमा’ 1976 में ‘रथ्या’ 1979 में ‘किशुनली’ 1982 में ‘कृष्णकली’ 1987 में ‘माणिक’, ‘गैंडा’, ‘चल खुसरो घर आपने’, 1992 में ‘शमशान चम्पा’, 2001 में ‘कालिन्दी’, ‘अतिथिश् और ‘सोने दे’ प्रमुख हैं। कृष्णकली नामक उपन्यास ने इन्हें कापफी प्रसिद्धि दिलाई। विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित इस पुस्तक के 10 से अधिक संस्करण छप चुके हैं। इनकी कई कहानियाँ भी विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। इनके द्वारा रचित ‘करिए छिम्मा’ पर विनोद तिवारी फिल्म बना चुके हैं। सुरंगमा रति विलाप, मेरा बेटा, तीसरा बेटा पर भी चीनी धरावाहिक बने हैं। शिवानी के साहित्य में बांग्ला भाषा, संस्कृति और वहाँ के सामाजिक जीवन का खासा प्रभाव है।
शिवानी की रचनाओं में आम व्यक्ति की भावनाओं एवं संवेदनाओं का इतना कुशल चित्रण हुआ है कि पाठकों को उनकी रचनाओं में स्वयं की झलक दिखाई पड़ती है। विशेषकर नारी भावनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति के जरिए उन्होंने भारतीय नारी को एक नई अस्मिता दी। शिवानी ने अपनी कहानियों में जीवन की जटिलताओं का जीवंत वर्णन किया है।
हिन्दी जगत में प्रेमचन्द और शरत के बाद सबसे अधिक पठनीय कथाकार गौरा पंत ‘शिवानीश् का लेखन लगभग आधी सदी की परिधि को मापता है। उन्होंने बिना किसी अकादमिक अथवा साहित्यिक गुट से गठजोड़ किए सिर्फ कला के प्रति अपने निष्कपट समर्पण भाव तथा अपनी उद्दाम प्रतिभा के बूते पर हिन्दी साहित्य के करोड़ों पाठकों के मन-मस्तिष्क को जीत लिया। लेखनी की धनी इस लेखिका ने रोग-जर्जर और थके शरीर के होते हुए भी अपने अंतिम क्षणों में अपनी अमेरिका-यात्रा के दौरान अंतिम रचनावली को लिखा था। उर्दू के शायर की ये पंक्तियां वे बार-बार दोहराया करती थी-
‘’थक सा गया हूँ नींद आ रही है, सोने दे, बहुत दिया है साथ तेरा जिंदगी मैंने।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!