कुमाऊँ रेजीमेंट के नाम रहा आजाद भारत का पहला सर्वोच्च सैनिक सम्मान ‘परमवीर चक्र’

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

                                  
आजाद भारत में युद्ध और शांतिकाल में सैनिकों द्वारा की गई विशिष्ट सेवाओं के लिये उन्हें अनेक सैन्य पुरस्कार प्रदान किये जाते हैं। इनमें युद्ध के दौरान असाधारण वीरता के लिये परमवीर चक्र, महावीर चक्र तथा वीर चक्र, शान्ति के समय अशोक चक्र, कीर्ति चक्र तथा शौर्य चक्र, युद्ध अथवा शांति में सेवा एवं वीरता के लिये सेना पदक, नौ सेना पदक, वायु सेना पदक प्रदान किये जाते हैं।  युद्ध में विशिष्ट सेवा के लिये सर्वाेत्तम युद्ध सेवा पदक, उत्तम युद्ध सेवा पदक तथा युद्ध सेवा पदक तथा शांति में विच्चिष्ट सेवा के लिये परम विशिष्ट सेवा पदक, अति विशिष्ट सेवा पदक व विशिष्‍ट सेवा पदक प्रदान किये जाते रहे हैं। इन सभी सम्मानों मे ‘परमवीर चक्र' वीरता के लिये दिया जाने वाला भारत का सर्वाेच्च सैन्य पुरस्कार है। जिसे 1947 के भारत-पाकिस्तान और 1962 में भारत-चीन युद्ध में दो बार कुमाऊँ रेजीमेंट के वीरों ने प्राप्त किया।
यह पुरस्कार शत्रु के सामने जल, थल या हवा में असीम शौर्य, अदम्य साहस अथवा उच्च कोटि की शूरता या आत्म-बलिदान के लिये दिया जाता है। सेना, नौसेना, किसी भी रिजर्व दल, प्रादेशिक सेना, मिलिशिया अथवा किसी अन्य विधिपूर्ण गठित सेना के सभी वर्गों के अधिकारी जवान और महिलाँए तथा नर्सिंग सेवाओं व नर्सिंग अस्पतालों से सम्बंधित अन्य सेवाओं के मैट्रेन, सिस्टर, नर्स और अन्य कार्मिक तथा उपरोक्त सेवाओं के आदेश, निर्देश अथवा देख-रेख में नियमित या अस्थाई रूप से काम करने वाले सैनिक, असैनिक स्त्री और पुरुष इस चक्र को पाने के अधिकारी होते हैं। राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाने वाला यह अलंकरण मरणोपरान्त भी दिया जाता है। गोल काँस्य में-3/8 इंच व्यास वाले इस चक्र के मुख भाग के मध्य में राष्ट्र चिन्ह तथा चारों ओर इन्द्र के बज्र की चार प्रतिकृतियाँ होती हैं। पृष्ठ भाग में हिन्दी और अंग्रेजी के उभरे अक्षरों में परम वीर चक्र लिखा रहता है। वक्ष स्थल के बाईं ओर सवा इंच चौड़े जामुनी रंग के सादे रिबन के साथ यह सम्मान लगाया जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि परमवीर चक्र की संरचना एवं इस पर अंकित आकृतियां भारतीय संस्कृति एवं दैविक वीरता को उदधृत करती हैं। भारतीय सेना की ओर से मेजर जनरल हीरालाल अटल ने परमवीर चक्र डिजाइन करने की जिम्मेदारी सावित्री खलोनकर उर्फ सावित्री बाई को सौंपी जो भारतीय मूल की नहीं थी। 20 जुलाई, 1913 को स्विटजरलैंड में जन्मी ईवावोन लिंडा मेडे डेमारोस जिसने सन्‌ 1932 में सिख रेजीमेंट के तत्कालीन कैप्टन विक्रम खोलकर से प्रेम विवाह करने के बाद हिंदू धर्म स्वीकार किया था, का भारतीय नाम सावित्री खलोनकर उर्फ सावित्री बाई था। भारतीय पौराणिक साहित्य, संस्कृत और वेदांत के क्षेत्र में सावित्री बाई के ज्ञान को देखते हुए मेजर जनरल हीरालाल अटल ने उन्हें परमवीर चक्र का डिजाइन तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी थी। सेवानिवृत्त मेजर जनरल वृत्तइयान कारडोजो की पुस्तक परमवीर चक्र में भी इस बात का उल्लेख है कि सावित्री बाई ने भारतीय सेना के भरोसे पर खरा उतरते हुए सैन्य वीरता के सर्वाेच्च पदक के डिजाइन के कल्पित रूप को साकार किया। पदक की संरचना के लिये उन्होंने महर्च्चि दधीची से प्रेरणा ली जिन्होंने देवताओं का अमोघ अस्त्र बनाने को अपनी अस्थियाँ दान कर दी थी, जिससे इन्द्र के वज्र का निर्माण हुआ था

उत्तराखण्ड के वीर सैनिकों के नाम सैन्य सम्मान और पुरस्कारों की एक लंबी श्रृंखला है। वर्षों की पराधीनता के बाद खुली हवा में सांस लेने वाले देशवासी जब 1947 में आजादी का जश्न मना रहे थे तब भारतीय सेना के कन्धे पर आन्तरिक शान्ति के साथ सीमाओं की रक्षा करने की दोहरी जिम्मेदारी का भार आ पड़ा था। ऐसे कठिन समय में भारतीय सेना की वरिष्ठतम एवं सर्वाधिक पुरस्कार प्राप्त करने वाली कुमाऊँ रेजीमेन्ट के अनेक जवानों ने शांति और युद्ध दोनों ही क्षेत्रों में जो वीरता और बहादुरी दिखाई उसकी मिसाल कम ही देखने को मिलती है। उनमें पहला नाम आजाद भारत का पहना सर्वाेच्च सैनिक सम्मान प्राप्त करने वाले इसी रेजीमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा का आता है। एक सैनिक परिवार में जन्म लेकर कठिन से कठिन संकट की घड़ी में भी धैर्य न खोने और भारत की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की भावना से ओतप्रोत, मेजर जनरल ए.एन. शर्मा के इस वीर पुत्र को असाधरण वीरता और पराक्रम के लिए मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्र’ प्रदान किया गया। स्वाधीन भारत के पहले सर्वाेच्च सैनिक सम्मान से मरणोपरान्त सम्मानित इस रणबाँकुरे को सेना का हर जवान आज भी पूरी श्रद्धा और सम्मान से याद करता है।
15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतन्त्र होने के 2 महीने बाद ही 22 अक्टूबर को 5000 कबायलियों ने कश्मीर पर आक्रमण किया तो भारतीय फौजों को कश्मीर कूच का आदेश मिला। बड़गाम में शत्रु की घुसपैठ की खबर मिलने पर यहाँ कुमाऊँ रेजीमेन्ट की अगुआई कर रहे 161 ब्रिगेड के कमान्डर ब्रिगेडियर एल.पी.सेन ने इस क्षेत्र के निरीक्षण और दुश्मन को खदेड़ने का दायित्व एक सैन्य टुकड़ी को सौंपा। पूर्व निर्धरित योजना के अन्तर्गत 3 नवम्बर की प्रातः कड़कती ठंड के बीच गाँव के पश्चिमी क्षेत्र में कुमाऊँ के जवानों ने पोजीशन ली। 4 कुमाऊँ की दो कम्पनियों को दक्षिण-पूर्व से शत्रुओं को भगाना और पैरा कुमाऊँ के जवानों को दुश्मन से निपटने का जिम्मा सौंपा गया।

Mej. Somnath Sharma PVC

गाँव में कोई भी संदिग्ध हलचल नहीं लग रही थी, शान्त वातावरण और स्थानीय वाशिन्दों को सामान्य कामकाज में लगे देख ब्रिगेड कमान्डर के निर्देश पर कैप्टन आर. वुड 1 पैरा कुमाऊँ की कम्पनी के साथ मगाम क्षेत्र के निरीक्षण के उपरान्त सब कुछ सामान्य जानकर लगभग 2 किलोमीटर दूर श्रीनगर हवाई अड्डे पर वापिस चले गये। ब्रिगेड कमांडर के निर्देशानुसार मेजर सोमनाथ शर्मा ने भी अपनी ‘ए’ कम्पनी को वापिस भेज दिया जबकि ‘डीश् कम्पनी को लेकर वे वहीं रूके रहे। मेजर को ऐसे निर्देश मिले थे कि वे एक घंटे तक वहाँ रुककर किसी भी असामान्य हरकत पर नजर रखें।
दुश्मन के नापाक इरादे और कश्मीरियों के छद्म वेश में छिपे पाकिस्तानी कबायलियों को पहचानने में हुई जरा सी चूक कुमाऊँ रेजीमेन्ट के जवानों के लिए बहुत घातक सिद्ध हुई। स्थानीय निवासियों के वेश में नाले में छिपे बैठे शातिर दिमाग कबायली कुछ देर बाद ही अलग-अलग दिशाओं में बिखर गए। उनकी इस हलचल को सामान्य समक्षने वाले जवानों को भी अहसास नहीं हुआ कि कश्मीरियों का वेश धारण कर इन लोगों ने अपने लंबे चोगों में हथियार छिपा रखे हैं। वहाँ तैनात सैनिकों की टुकड़ी यही समक्षती रही कि ये लोग अलग-अलग दिशाओं में अपने घर जा रहे हैं। लेकिन जल्दी ही उनका भ्रम टूट गया। अचानक एक ओर से मोर्टार और दूसरी ओर से एल.एम.जी. के फायरों से जवानों को सँभलने का भी मौका नहीं मिल पाया था कि तीसरी ओर से उन पर भारी आक्रमण हो गया। रेजीमेन्ट की सैन्य टुकड़ी ने इसकी कल्पना भी नहीं की थी।
दुश्मन के बढ़ते दबाव के बीच तीन ओर से घिरे मेजर सोमनाथ शर्मा ने ‘डीश् कम्पनी के जवानों के साथ 700 कबायलियों से मुकाबले के लिए मोर्चा सँभालते हुए ब्रिगेड से आपात सहायता माँगी। उन्हें हवाई मदद भी मिली लेकिन कबायली हमला जारी रहा। लगातार भारी पड़ रहे दुश्मन को करारा जवाब देने के लिए मेजर शर्मा के सामने जवानों की कमी आ गयी। लेकिन वे इससे जरा भी विचलित नहीं हुए। बल्कि अपनी पूरी शक्ति व स्फूर्ति के साथ दुश्मन पर हमला करने के लिए युद्धक विमानों को भी संकेत देने का कार्य खुद ही करते रहे।
तीन ओर से हुए कबायली हमले के कारण भारतीय जवानों को काफी नुकसान पहुँचा। विमानों द्वारा की गई बमबारी से शत्रुपक्ष को भी कुछ नुकसान पहुँचा किन्तु संख्या बल में भारतीय जवानों के मुकाबले कई गुना अधिक व हथियारों से लैस कबायलियों का हमला कमजोर नहीं पड़ा। ऐसी संकट की घड़ी में भी धैर्य और संयम रखते हुए मेजर सोमनाथ शर्मा अपने मुट्ठी भर सैनिकों को लेकर पूरी बहादुरी से दुश्मन का मुकाबला करते रहे।
कबायलियों की भीषण गोलाबारी के बीच अपनी जान की परवाह किये बिना मेजर शर्मा अलग सैक्शनों में बंटे ‘डीश् कम्पनी के जवानों के बीच दौड़-दौड़कर उनका हौसला बढ़ाते रहे। एक हाथ में पुरानी चोट के कारण प्लास्टर चढ़ा होने के बावजूद रणभूमि में डटे सैनिकों को मुकाबला करने के लिए जवानों को प्रेरित करते रहे। बड़ी बहादुरी से लड़ने के बावजूद कई जवान दुश्मन की गोलियों का शिकार हो गये जिस कारण भारतीय पक्ष से गोलाबारी धीमी पड़ने लगी लेकिन मेजर सोमनाथ शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी और अपने चोटिल हाथ से ही वे दुश्मन पर फायर झौंकने वाले सैनिकों को गोलियों की मैगजीन भर कर देने लगे। इसी दौरान उनके निकट पड़े गोला-बारूद पर दुश्मन का गोला आकर गिरा और मेजर सोमनाथ शर्मा वहीं शहीद हो गए। मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व उन्होंने यह रेडियो संदेश भेजा था “I shall not withdraw an inch but will fight to the last man & last round ” अर्थात ‘’मैं इक इंच पीछे नहीं हटुंगा और तब तक लड़ता रहूँगा, जब तक मेरे पास आखिरी जवान और आखिरी गोली है।”
जीवन के अंतिम क्षणों तक दुश्मन से लोहा लेने वाले भारत माँ के इस वीर सपूत को मरणोपरान्त स्वाधीन भारत का सर्वाेच्च सैनिक सम्मान ‘परमवीर चक्रश् प्रदान किया गया। 29 वर्ष बाद 1976 में शहीद मेजर सोमनाथ शर्मा की स्मृति में भारतीय डाक विभाग द्वारा एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया गया।
कुमाऊँ रेजीमेंट मेजर शैतान सिंह ने भी दूसरे परमवीर चक्र से रेजीमेंट को गौरवान्वित किया है। सन्‌ 1962 के भारत-चीन युद्ध में लद्दाख के रेज़ांग ला मोर्चे पर अपने अदम्य साहस और वीरता से दुश्मन के दाँत खट्टे कर मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्रश् से सम्मानित मेजर शैतान सिंह का जन्म 1 दिसम्बर, 1924 को जोधपुर के बारासर गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम कर्नल हेम सिंह था। 1 अगस्त, 1941 को इन्हें जोधपुर स्टेट फोर्सेस में कमीशन प्राप्त हुआ। सभी देशी रियायतों के भारतीय संघ में मिलने पर इनका स्थानान्तरण कुमाऊँ रेजीमेन्ट की तेरहवीं बटालियन में कर दिया गया था। इन्होंने नागा पहाड़ों और 1961 में गोवा ऑपरेशन में प्रशंसनीय कार्य किया। 11 जून, 1962 को इन्हें मेजर के रैंक पर पदोन्नति कर चार्ली कम्पनी का कमाँडर नियुक्त किया गया था। उनकी तैनाती 13 कुमाऊँ रेजीमेन्ट में होने के कारण पहाड़ का हर सैनिक आज उस महान योद्धा की शहादत से प्रेरणा प्राप्त करता है।

Maj. shaitan Singh PVC

सन्‌1962 में जब चीन ने भारत के उत्तरी सीमान्त पर आक्रमण किया तो भारतीय फौजों ने लद्दाख क्षेत्र के लिए कूच किया तब बारह-मासी हवाई अड्डे सहित समूचे लद्दाख की रक्षा और चीनियों को आगे बढ़ने से रोकने का दायित्व 114 इन्फेन्ट्री ब्रिगेड का था। 18 सितम्बर, 1962 को इस ब्रिगेड की कमान ब्रिगेडियर टी.एन. रैना द्वारा संभालने के बाद 2 अक्टूबर को 13 कुमाऊँ भी लेह पहुँच गयी। 13 अक्टूबर को इसने चुशूल की ओर जाना प्रारम्भ किया। चीनियों का रास्ता रोकने के लिए चुशूल में अन्य इन्फेन्ट्री बटालियन भी पहुँच चुकी थी। बटालियन की C कम्पनी मेजर शैतान सिंह के आधीन रेज़ांग ला पर तैनात थी। यह स्थान चुशूल गाँव से 19 मील दक्षिण में समुद्रतल से 16420 फीट की ऊँचाई पर है और घाटी के दक्षिण-पूर्वी मार्ग की रक्षा करता है। ‘सीश् कम्पनी का प्रशासनिक बेस बटालियन हैडक्वाटर्स से 6 मील की दूरी पर था जहाँ से स्थानीय याक या टट्टू की सवारी से पहुँचने में 3 घंटे का समय लगता है। इस दुर्गम क्षेत्र में क्षील की ओर जाने वाली घाटियों से शत्रु के आने की सम्भावना को देखते हुए मेजर शैतान सिंह ने अपनी कम्पनी को रेज़ांग ला की अगली ढालों पर तैनात कर रखा था। बटालियन ने भी शत्रु के मुकाबले और उसे रोकने के लिये इनकी कम्पनी को तीन अतिरिक्त लाइट मशीनगनें शत्रुओं का रास्ता रोकने के लिए दी थी।
रविवार 18 नवम्बर, 1962 की प्रातः भोर के अंधेरे में कड़कड़ाती ठंड के बीच जब हल्की बर्फबारी हो रही थी उसी दौरान चीनी सैनिक भारतीय चौकियों की ओर बढ़ रहे थे। गश्ती दल ने उनको देख कर भारतीय जवानों को सावधान किया। मेजर शैतान सिंह की झ्सीश् कम्पनी के जवानों ने क्षण भर की भी देरी किये बिना मोर्टार और लाइट मशीनगनों के मुँह दुश्मन की ओर घुमा दिए। जैसे ही चीनी सैनिक रेंज के अन्दर आये वैसे ही ‘सीश् कम्पनी के जवानों के हथियार आग उगलने लगे। उनके सामने की ढलान मृतक व घायल चीनी सैनिकों से पट गयी। लेकिन संखया में अधिक होने के कारण चीनी सैनिक आगे बढ़ते रहे। चीनी सैनिकों ने रेज़ांग ला, मगर हिल, गुरूंग हिल तथा स्पैग्गुर गैप, हवाई अड्डे और 13 कुमाऊँ हैड क्वार्ट्स पर भी भारी गोलीबारी कर भारतीय सैनिकों को काफी नुकसान पहुँचाया। उन्होंने 120 मि.मी., 81 मि.मी., और 60 मि.मी. मोर्टारों का उपयोग किया। 75 और 57 मि.मी. की रीकाईल-लेस गनों का प्रयोग कर भारतीय सेना के बंकरों को काफी क्षति पहुंचाई। उसके बावजूद अपनी जान की परवाह किये बिना ही मेजर शैतान सिंह जवानों का हौंसला बढ़ाते हुए आखिरी गोली तक दुश्मन का मुकाबला करने की प्रेरणा देते रहे।
18 नवम्बर को चीनी हमला विफल करने के लिए मेजर शैतान सिंह और उनकी ‘सीश् कम्पनी के वीर जवानों ने अपनी छातियों की फौलादी दीवार खड़ी कर विश्व के इतिहास में इतनी अधिक ऊँचाई पर स्थित उस निर्जन बर्फीली धरती पर अपने लहू से जो वीरगाथा लिखी वह इतिहास में अमर हो गयी। कई सैनिकों के शहीद होने के बाद भी मेजर शैतान सिंह बचे खुचे साथियों को लेकर बड़ी बहादुरी से शत्रु का मुकाबला करते रहे। मोर्टार सैक्शन व अगले दो प्लाटूनों को खत्म करने के बाद चीनियों ने अपना ध्यान कम्पनी हेड क्वाटर्स व 9 प्लाटून की ओर केन्द्रित कर लिया। इसी बीच मेजर शैतान सिंह ने मोर्चे को पुनर्गठित कर शत्रु के हमले का जवाब देने के लिए मशीनगनों की जगह बदल दी। यह मशीनगनें चीनी सैनिकों पर तब तक आग उगलती रही जब तक दुश्मन के फायर से वह जवानों के हाथ से उड़ न गयी हों। चीनी सैनिकों की गोलाबारी में मेजर शैतान सिंह का एक हाथ बुरी तरह जखमी हो गया था लेकिन वह निर्भीकता के साथ दुश्मन की गोली का जवाब देते रहे। जब उनके कम्पनी हवलदार मेजर हरफूल सिंह ने शैतान सिंह को घायलावस्था में लड़ते देखा तो उन्हें चल फिर सकने वाले जवानों के साथ मोर्चे से बाहर निकलने को प्रेरित किया। किन्तु जैसे ही उनके साथी अपने घायल अधिकारी को लेकर चलने लगे तो दुश्मनों की नजर में आ गये। तभी दूसरी ओर से हुई गोलीबारी में कम्पनी का हवलदार मेजर शहीद हो गया। मेजर शैतान सिंह के पेट में भी मशीनगन की एक बर्स्ट लगी जिससे उनकी हालत और बिगड़ गयी। उनके साथ शेष बचे दो जवानों में उनकी पट्टी की और उन्हें उठाकर कम्पनी के बेस की ओर जाने वाली घाटी में उतर गये लेकिन दुर्भाग्यवश वह चीनी सैनिकों की मशीनगनों की दोतरफा मार में फँस गए। चारों ओर से गोलियों की बौछार देख कर मेजर शैतान सिंह ने उन दोनों को आदेश दिया कि उन्हें वहीं छोड़ दें और अपने प्राणों की रक्षा करें। मेजर शैतान सिंह शहीद हो गए। उनके नेतृत्व में रेज़ांग ला मोर्चे पर तैनात 127 रणबांकुरों में से 113 जवानों ने अपनी शहादत देकर वीरता की जो मिशाल कायम की वह कम ही देखने को मिलती है। 3 जे.सी.ओ. और 124 अन्य जवानों में से मात्रा 14 जवान ही किसी तरह जीवित बचे इनमें भी 9 जवान बुरी तरह घायल थे।
21 नवम्बर 1962 को चीनियों ने एक तरफा युद्ध विराम किया लेकिन ‘सीश् कम्पनी के शेष बचे जवानों का हेड क्वाटर्स से कोई वायरलैस या टेलीफोन सम्पर्क न होने के कारण हताहतों की वास्तविक जानकारी तीन महीने बाद तब मिली जब एक गडरिया भेड़ बकरियाँ चराता हुआ रेज़ांग ला पहुँचा और उसने 18 नवम्बर के युद्ध के वीभत्स दृश्य को बर्फ में ज्यों का त्यों सुरक्षित देखा। तब अन्तराष्ट्रीय रेडक्रास की सहायता से शहीद सैनिकों के शवों को लाने का क्रम प्रारम्भ किया गया। मेजर शैतान सिंह के चेहरे पर इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी दृढ़ निश्चय की रेखाएँ दिखाई दे रही थी। तीन महीने बाद उनके पार्थिव शरीर को उनके पैतृक स्थान जोधपुर लाया गया, जहाँ पूरे सैन्य सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया गया। रणक्षेत्र में अदम्य साहस के लिए कुमाऊँ रेजीमेन्ट के इस बहादुर रणबाँकुरे को मरणोपरान्त सर्वाेच्च सैनिक सम्मान ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।

Ref. History of Kumaon Regiment


		

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