हिमालय में मौत से साक्षात्‍कार

त्रिलोक चन्‍द्र भट्ट

11 जून 2004 को विभिन्‍न संचार माध्‍यमों से सुन्‍दरढूंगा ग्‍लेशियर में दो दिन पूर्व हुई दुर्घटना का समाचार प्रसारित होने के बाद से ही मेरे घर का फोन लगातार घनघना रहा था। तमाम परिचितों और शुभचिन्‍तकों के फोन आ रहे थे। लेकिन परिवार के लोग मेरे जीवित होने या न होने के बारे में कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं थे। मुहल्‍ले, पड़ोस में तो मेरे लापता होने तक की अफवाह फैल गई थी।

यह घटना उस समय की है जब 9 जून 2004 को मैं 9 पोर्टरों सहित 26 सदस्‍यीय दल के साथ सुन्‍दरढूंगा ग्‍ले‍शियर से मृगथूनी बेस कैंप की ओर बढ़ रहा था । मेरे साथ साहसिक अभियान पर बागेश्‍वर (उत्‍तराखण्‍ड) के दो साथी और कोलकाता (पश्चिम बंगाल) से रैपिड एक्‍शन फोर्स के 14 अधिकारी और जवान शामिल थे । साथ-साथ चलते हुए शाम को अंधेरा होने से पहले हमने 14000 फीट की ऊँचाई पर स्थित ‘सुखराम केव’ नामक स्‍थान पर कैंप लगाया । रात्रि विश्राम के दौरान यहीं पर वह भीषण दुर्घटना हुई जिसने 2 अधिकारियों और 3 जवानों का जीवन लील लिया था ।

दो दिन बाद किसी अज्ञात शुभचिन्‍तक ने हरिद्वार स्थित मेरे आवास पर फोन कर मेरे बारे में पूछताछ की थी । परिवार वालों द्वारा यह बताने पर कि मैं एक साहसिक अभियान पर सुन्‍दरढूंगा ग्‍लेशियर गया हूँ, फोन करने वाले ने उनसे तुरन्‍त टीवी देखने को कहा । टीवी पर उत्‍तराखण्‍ड के दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में साहसिक अभियान पर गए रैपिड एक्‍शन फोर्स के 5 जवानों के मारे जाने और एक पोर्टर सहित मेरे गंभीर रूप से घायल होने का समाचार प्रसारित हो रहा था

परिजन, शुभचिन्‍तक और कुछ कलमकार मित्र, बागेश्वर (उत्‍तराखण्‍ड) के तत्‍कालीन जिलाधिकारी एल. फैनई व पुलिस अधीक्षक के.एस. नगन्‍याल, को फोन कर मेरी कुशलता के बारे में लगातार सूचनाएं मांग रहे थे ।  लेकिन दुर्घटनास्थल पर संचार सुविधा न होने के कारण दोनों अधिकारी कोई भी जानकारी दे पाने की स्थिति में नहीं थे । उनसे मिले आश्वासनों मात्र से ही परिवार वाले किसी तरह धैर्य धारण किये हुए थे। कई दिन की प्रतीक्षा के बाद जब दूरभाष पर मैने अपने घर बात की तब कहीं जाकर परिजनों और मित्रों को मेरे जीवित होने पर विश्‍वास आया।

सुन्‍दरढुंगा ग्‍लेशियर में ‘सुखराम केव’ नामक दुर्घटनास्थल उस दुर्गम हिमालयी क्षेत्र में स्थित है जहॉं तेज बहाव वाली नदियों, दुर्गम घाटियों और सघन वनों को पार पर कई दिन पैदल चलने के बाद बड़ी मुश्किल से पहुँचा जाता है। हिमालय के इस दुर्गम क्षेत्र तक पहुंचने के लिए हमने बागेश्‍वर जिला मुख्‍यालय से भराड़ी, होते हुए सौंग तक का सफर मोटर मार्ग से तय किया। सौंग से पैदल सफर की शुरूआत हुई। लोहारखेत, धाकुड़ी, खाती, जातोली और कठलिया होते हुए कई दिन पैदल चलने के बाद हम सुन्‍दरढूंगा ग्‍लेशियर क्षेत्र में स्थित ‘सुखराम’ केव पहुँचे थे। यहीं मेरे जीवन की वह सबसे बड़ी दर्दनाक दुघर्टना हुई जहॉं मौत से साक्षात्‍कार होने के बाद बुझे पुनर्जन्‍म मिला।

इस अभियान दल के सदस्‍यों ने दुर्घटना से पूर्व तय किया कि अगले दिन सुबह जल्‍दी उठ कर गाइड रूप सिंह के मार्गदर्शन में सुखराम केव से मृगथूनी न01, भनार, कानाकाटा पास और पतातीपास की ओर जाएंगे । किन्तु न तो हमारी किस्‍मत में आगे की यात्रा लिखी थी और न ही हमारे 5 साथियों की किस्‍मत में 10 जून 2004 का सूर्योदय देखना लिखा था। जीवित बचे 21 लोगों में से मैं और एक पोर्टर हुकम सिंह ही उन सौभाग्यशाली लोगों थे जिन्‍हें 9 जून की रात गंभीर रूप से घायल करने के बाद मौत बहुत करीब से छू कर निकल गई थी।

इस कालरात्री को जब अभियान दल गहरी निद्रा में था, तभी हिम स्‍खलन के साथ अचानक एक भारी चट्टान टूट कर टैंटों पर गिरी, जिससे मेरे 5 साथी वहीं जिन्‍दा दफन हो गए । एक पोर्टर और मैं इस दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हुए थे। उस समय बचाव एवं राहत कार्य हेतु सरकारी मदद मॉंगने के लिए हमारे पास कोई संचार का साधन नहीं था। मेरे द्वारा पैदल भेजे गए संदेशवाहकों ने जब दूसरे दिन ‘खाती’ स्थित वायरलेस स्‍टेशन पहुँच कर प्रशासन के लिए वायरलेस संदेश भिजवाया तब कहीं जाकर प्रशासन को दुर्घटना की जानकारी मिली।

जिस दिन यह दुघर्टना हुई उस दिन कठलिया से बैलूनी बुग्याल तक 4 कि0मी0 की थका देने वाली कठिन चढ़ाई के बाद मैने रात्री विश्राम के लिए ‘सुखराम केव’ तक करीब 5 कि0मी0 का सफर और आगे तय किया था । ‘सुखराम केव’ पहुँचने के बाद मैं जल्दी ही रात का खाना खाकर सोने के लिए अपने टैन्ट में गया। किन्तु नींद नहीं आई। करीब 2 घंटे बाद सांस लेने में परेशानी महसूस होने पर सिलीपिंग बैग की चैन को ढीला कर उसे सीने तक खोला और आँखे बन्द कर पुनः सोने की कोशिस करने लगा। इसी बीच मुझे अपने टैंट के बाहर किसी की उपस्थिति का अहसास हुआ। अर्द्ध निद्रा में आँखे खोल कर उठ नहीं पाया किन्तु किसी दूसरे की मौजूदगी स्‍पष्‍ट महसूस कर रहा था। कुछ क्षण बाद ही लगा कि कोई जीव मेरी ओर सट कर बैठा या सोया है उसकी निकटस्था ने मेरे शरीर के बांए हिस्से पर इतना दबाव डाला कि मै दूसरी ओर करवट लेने के लिए मजबूर हो गया।

जैसे ही मैने करवट ली रात्री के गहन अन्धकार में दिल दहला देने वाली आवाज ने मेरी अर्द्धनिद्रा भंग कर दी। आवाज इतनी भयंकर थी कि उस जगह की जमीन तक हिल उठी। हड़बड़ाहट में आंख खुली तो छोटा सा ‘फोरमैन’ टैन्ट किसी भार के कारण तेजी से दब रहा था। पलक झपकते ही कूल्‍हे पर भी भारी असहनीय दबाब पड़ा। मुझे समझते देर नहीं लगी कि प्रकृति की विनाशलीला ने हमें अपनी चपेट में ले लिया है। जैसे-जैसे टैन्ट पर बंधी मजबूत रस्सियां टूट कर ढीली पढ़ रही थी चट्टान के भारी वजन से मैं टैन्ट के भीतर ही दबता जा रहा था और मौत क्षण प्रति क्षण मेरे करीब आती जा रही थी। एअर प्रुफ टैन्ट की सारी चैने बन्द थी, अन्‍दर इतना घुप्प अंधेरा था कि हाथ को हाथ नहीं दिखाई पड़ रहा था। सुरक्षित रास्ता किस ओर है यह देखना तो दूर सोचने तक का मौका मेरे पास नहीं था। साक्षात्‌ सिर पर खड़ी मौत को, खूनी पंजा अपनी ओर बढ़ाते देख एक पल को महसूस हुआ कि मैं अब इस दुनियॉं में चंद क्षणों का मेहमान हूँ। पहली बार ऐसा लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया। लेकिन तभी न जाने मुझमें कहाँ से इतनी हिम्मत आई कि मैने विद्युत गति से स्वयं को स्लिपिंग बैग से बाहर निकाला और लगातार टैंट को दबा रही चट्टान के नीचे से अपने शरीर का निचला हिस्सा झटके से बाहर खींच कर लेटे लेटे ही बगल में सोये रमेश और हेमन्त की ओर कूद पड़ा। चंद क्षण पहले हुई गर्जना और भयंकर आवाज के बाद इस बार मेरी चिल्‍लाहट ने वातावरण को गूंजाया था। मुंह से सिर्फ एक आवाज निकली ‘रमेश टैंट फाड़’।  प्रत्‍युत्‍तर में रमेश सिर्फ इतना ही बोल पाया कि ‘ददा क्‍या हुआ ’ ?  नींद से जागकर रमेश टैंट फाड़ता कि उससे पहले ही मैं खुद झटके से टैंट की चेन खोलता हुआ बाहर कूद पड़ा। मेरे पीछे ही मेरे दोनो साथी भी बाहर निकल आये। अगर मै उन्हें नींद से जगा कर बाहर निकलने को नहीं कहता तो शायद वे भी दूसरे साथियों की तरह हमेशा के लिए वहीं सोये रह जाते। 


मैं बाहर तो निकल आया लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? सिर पर मंडराती मौत देख घबराहट के कारण बदहवास स्थिति में हाथ में टार्च लेकर जान बचाने के लिए बड़ी चट्टान की ओट लेने के बजाय खुले आसमान की ओर भागा। वह तो गनीमत थी कि उपर से हो रहे हिम-स्‍खलन और भू-स्‍खलन की चपेट में नहीं आया अन्यथा एक बार जिन्‍दा बचने के बाद यहाँ दुबारा मौत से सामना जरूर होता। लेकिन ईश्वर की कृपा से ऐसा कुछ नहीं हुआ। जब मै बदहवास भाग रहा था तब 15-20 फीट की दूरी पर टार्च की रोशनी में अपने आगे आगे बन्दर के आकार के एक सफेद जानवर को भागते हुए देखा जब तक मै समझ पाता कि वह कौन सा जीव है तब तक वह खुली आंखों के सामने वहीं गायब हो गया। नंगी आंखों से यह सब कुछ देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं था।  मै नहीं समझ पाया कि टार्च की रोशनी और खुली आंखों के सामने गायब हुए उस जीव को जमीन निगल गयी या आसमान?  एक तो प्राकृतिक आपदा से मन डरा, सहमा था, ऊपर से इस घोर अविश्‍वसनीय आश्चर्य ने परेशानी और बढ़ा दी। 

पीछे मुड़ कर देखा तो जिन टैंटों में रैपिड एक्शन फोर्स के 2 अधिकारी और 3 कान्सटेबल सोये थे उन टैन्टों का नामो निशान नहीं था उनके उपर हजारों टन वजनी चट्टान पड़ी थी। कुछ ही दूरी पर तीन टैन्टों में 9 अन्य जवान सो रहे थे। उन्हें भी चिल्‍ला कर नींद से उठाया गया। टैन्टों से बाहर निकलकर तबाही का दृश्‍य देखते ही जवानों में भगदड़ मच गयी। भयभीत जवानों को अपनी जान बचाने के लिए जिसको जिधर जगह मिली वह उधर ही भागने लगे। ऐसी स्थिति में जहाँ ऊँचे शिखरों से पत्थर गिरने का खतरा था वहीं अंधेरे में सैकड़ों फीट गहरी खाई में गिरने या फिसलने से भी जान जा सकती थी। मैने सभी को ढाढस बंधाया और बिना कोई क्षण खोये एक सुरक्षित जगह पर एकत्र किया। कुशलता पूछने पर मौत के भय से घबराये इन लोगों के मुँह से तब अपनी स्थिति बताने के लिए शब्द तक नहीं निकल पा रहे थे।


यह भाग्य की ही विडम्बना थी कि उस दिन किस्मत ने हमें 14 हजार फीट ऊँचे दुर्गम हिमालयी क्षेत्र की उस कड़कड़ाती ठंड में ऐसी जगह ला पटका था जहाँ हम चट्टान के नीचे दबने से तो बच गये किन्तु भू-स्खलन और जमीन धसने का खतरा सारी रात सिर पर मंडरा रहा था। अंधेरे में जरा सा पैर फिसल जाने पर सैकड़ों मीटर गहरी खाई में गिरने का डर अलग से सता रहा था। जैसे तैसे एक सुरक्षित पहाड़ी पर पीठ टिकाकर बैठे तो किस्मत ने यहाँ भी साथ नहीं दिया। पहले सुखराम केव की चट्टान टूटने से आसरा गया, फिर टैन्ट दब जाने के कारण सिर छिपाने की जगह छिनी, जब खुले आसमान के नीचे शरण ली तो वहाँ बारिश ने अपना रौद्ररूप दिखाना शुरू कर दिया। ऊपर से तो पानी बरस ही रहा था। पहाड़ी ढाल का पानी भी हमारे ही ऊपर आ गया। ठंड से सबका बुरा हाल था। हम सभी बारिश बन्द होने का इन्तजार कर रहे थे कि जबरदस्त बर्फबारी ने हमें वहीं दफन करने की तैयारी कर ली। सर्द रात में सब कुछ असहनीय था लेकिन जिन्‍दा रहने के लिए सब कुछ बर्दाश्त कर मौत से लड़ना हमारी मजबूरी थी ।

हिमालय के इस दुर्गम क्षेत्र में हर तरह से लाचार और बेबस होने के बावजूद 9 पोर्टरों सहित हम जीवित बचे 21 लोग कठिन परिस्थितियों से जूझते हुए चारों ओर मुँह बाये खड़ी मौत को अपने अडिग हौसलों से मात देने का प्रयास कर रहे थे। बारिश व बर्फबारी शुरू होने से पहले ही मैं अपनी जान जोखिम में डाल कर दुर्घटना स्थल से एक पॉलीथीन की बड़ी सीट न लाता तो अन्य लोग तो बर्फ में दफन होते ही, मै भी अपनी कलम से यह सब कुछ लिखने के लिए जिन्दा नहीं रहता। यह पॉलीथीन सीट ही जीवन बचाने का ऐसा माध्यम बनी जिसके नीचे 21 लोगों ने सिर छिपा रखे थे सारी रात बर्फ पड़ती रही और थोड़ी-थोड़ी देर बाद हम उस पर पड़ी बर्फ को झाड़ते रहे।  कपड़े गीले होने के कारण मेरा शरीर सुन्न हो रहा था किन्तु हाथ पैरों की अंगुलियां चला कर मै शरीर की गर्मी और रक्त का संचार बनाये रखने का प्रयास करता रहा। जितने देवी देवताओं के नाम मुझे याद थे मैं सारी रात उन्हें याद कर बर्फबारी रोकने की प्रार्थना करता हुआ पॉलीथीन की सीट पर जमा बर्फ को हटाता रहा यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक बर्फबारी होती रही और सुबह का उजाला नहीं हो गया। मुंह अंधेरे ही मैने दुर्घटना में मृत अधिकारियों व जवानों के नाम, नम्‍बर, रैंक आदि लिख कर दो पोर्टरों को संदेशवाहक बनाकर खाती स्थित वायरलेस स्‍टेशन से प्रशासन को सूचना देने के लिए रवाना किया।


 बाहर के उजाले में जब सुबह चारों ओर नजर दौड़ाई तो सारा इलाका बर्फ की सफेद चादर में ढका हुआ था।  यह नजारा इतना खूबसूरत था कि कोई सोच भी नहीं सकता कि चन्द घन्टे पहले प्रकृति ने यहीं अपना रौद्ररूप दिखा कर 5 लोगों का जीवन लील लिया था। हालाँकि बर्फबारी के कारण सारे रास्‍ते बन्द हो चुके थे। किन्तु प्राण बचने और 5 साथियों को खोने के बाद उस खूबसूरती को देख कर भयमिश्रित चमक भी सभी के चेहरों पर झलक रही थी। दुर्घटना के बाद हमारा मृगथूनी और आगे जाने का कार्यक्रम स्थगित हो गया था । मैने सभी लोगों को शेष बचा जरूरी सामान उठा कर वापिस चलने को कहा । उनको लेकर मै कुछ ही कदम चला था कि हल्की बारिश ने हमारी दिक्कतों को पुनः बढ़ा दिया। वापिसी का मार्ग बहुत खराब हो चुका था । बारिश के कारण भू-स्खलन का खतरा भी बढ़ गया। जैसे तैसे हिम्मत कर हम वापिसी का रास्ता तय करते हुए सावधानी पूर्वक आगे बढ़ते रहे इसी बीच फिर बर्फ पड़ने लगी । किन्तु शुक्र था कि रात्री जैसा अन्धकार नहीं था और हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ सकते थे । रास्तों के ढक जाने के बावजूद अन्दाजे से कदम आगे बढ़ाते हुए सुखराम केव से ‘बैलूनी बुग्याल' का करीब 5 कि0मी0 का क्षेत्र पार करने के बाद हमारी जान में जान आई क्यों कि इससे आगे न तो बर्फ जमी थी और न ही बर्फबारी हो रही थी ।

जब प्राण संकट में होते हैं तो इन्सान उस समय जान बचाने के लिए वह सब कुछ कर गुजरने का तैयार हो जाता है जो उसके बस में भी नहीं होता। यही स्थिति मेरी भी थी। घायल होने के बावजूद मैने जिस तरह अपनी पीड़ा पर काबू रखा यह सोच कर आज भी आश्चर्य होता है। मेरे बांए कूल्हे का एक हिस्सा 10 इंच के क्षेत्र में खून भरने से पूरी तरह काला पड़ गया था। कूल्हे में असहनीय पीड़ा थी। दोनो पैरों में सूजन आ चुकी थी।  बांए पैर की ऐड़ी में भी अन्दर से मांस फटने के कारण नील पड़ गया था।  पैर में फ्रैक्‍चर हो चुका था। लेकिन तब मुझे इसका पता नहीं चल पाया। फिर भी एक लाठी पकड़ कर मै चलता रहा। घायलावस्था में सुखराम केव से 9 कि0मी0 दूर कठलिया पहुँचते-पहुँचते मैं कितनी जगह गिरा मुझे खुद याद नहीं है। मेरी स्थिति ऐसी थी कि जो ट्रैकिंग शू मेरे पैर में था उसको निकालना भारी हो गया था। किसी तरह खींच खांच कर जूते से पैर बाहर निकाला तो बाद में पैर में जूता डालना ही मुश्किल हो गया। एक समय तो जूता पैर में फंसाने के लिए अपने ही साथी की मदद लेनी पड़ी, दोनो ने पूरा जोर लगा कर जूते के दोनो शिरे पकड़ कर खींचे तब कहीं जाकर किसी तरह जबरदस्ती जूते मे पैर घुसा पाया ।  हमारा जो पोर्टर बुरी तरह घायल था, उसकी जॉंघ में गहरे घाव के कारण लगातार रक्‍तस्राव हो रहा था। दो डंडों पर कम्‍बलों को लपेट कर हमने पीठ पर बॉधे जाने वाला स्‍ट्रेचर तैयार किया और दूसरे पोर्टरों की सहायता से उसे साथ ले कर चलते रहे ।

हमारा पथ प्रदर्शक और कुछ साथी कठलिया में ही चरवाहों की झोपडि़यों में रात्री विश्राम करना चाहते थे किन्तु मै चाहता था कि हमारा दल किसी तरह हम सीमान्‍त के आबादी क्षेत्र में पहुँचे जिससे हमें वहॉं से कुछ मदद मिल सके। इसीलिए अधिक से अधिक रास्‍ता तय करने पर मेरा जोर था। रैपिड एक्शन फोर्स के 9 जवान जिन्होंने दुर्घटना के बाद अपना नेतृत्व मेरे हाथ सौंपा वे भी मेरे आदेश की प्रतीक्षा में थे। मैने अब उनको किसी जोखिम में नही डालना चाहता था इसीलिए सभी जवानों को हिमालय के वीराने के निकाल कर आबादी के बीच ले जाने का निश्चय करने हुए मैने उन्‍हें 12 कि.मी. का सफर और तय कर सुन्‍दरढूंगा घाटी में स्थित ‘जातोली' नामक गॉव में पहुँचने कहा । सभी जवान आगे बढ़ गये। मै भी पीछे से धीरे-धीरे मंजिल की चलता गया ।  सुन्दरढूंगा नदी के किनारे -किनारे 6 कि.मी. का सफर तय करने के बाद मेरी हिम्मत जवाब दे गई। रमेश और हेमन्त सहारे के लिए साथ साथ चल रहे थे। मेरे पैर अब चलने के बजाय घिसट रहे थे और जगह जगह मुझे ठोकर लग रही थी । दर्द निवारक दवा के नाम पर सिर्फ सिर दर्द में उपयोग की जाने वाली ‘डिस्प्रीन' ही बची थी । जब मेरे से पैरों का दर्द सहा नहीं गया तो मैने मजबूरी में उसी दवा का सेवन कर लिया उसने जितना भी असर दिखाया उस संकट के समय वह मेरे लिए बहुत था। किसी तरह मैं अपने साथियों की सहायता से उस दिन अंधेरा होने से पहले जातोली गाँव पहुँचा । 

सुन्‍दरढूंगा घाटी में आबादी के इस अंतिम गॉंव में ही गाइड रूप सिंह का परिवार रहता था। उसके परिवार ने मेरी बड़ी सेवा की। यहॉं घायल पैरों की सिकाई के लिए गर्म पानी मिला तो उसके घर की महिलाओं ने खाने के लिए हलवा भी बनाया । मुझे दवाई तो नहीं मिल पाई लेकिन प्‍यार का जो मरहम मिला सच में वह किसी अपने ही घर में मिल सकता है । उस दिन हम सबने अपने गाइड के घर में ही रात्री विश्राम किया।

दुघर्टना के तीसरे दिन घायलावस्था में ही वापिसी मार्ग में स्थित घाकुड़ी के लिए फिर सफर की शुरूआत हुई। यहॉं हमे दो खच्‍चर भी उपलब्‍ध हो गए थे। चलने से परेशानी होने पर आर.ए.एफ. के एक जवान को खच्‍चर पर बैठा कर आगे रवाना किया गया। कई साथियों ने मुझे भी खच्‍चर पर बैठा कर ले जाना चाहा, लेकिन मैं यह प्रदर्शित नहीं करना चाहता था कि मेरी हिम्‍मत जवाब दे गई। हालांकि अब सूजन के कारण मेरे पैर में जूता नहीं आ रहा था। इससे मेरी परेशानी और बढ़ गई थी। आराम के लिए रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने ज्यादा चोट वाले पैर में उच्च क्वालिटी का एक ऐंकलेट पहनाया और दूसरे पैर में क्रेप बैंडेज बांधी । एक जवान ने अपनी सैंडल मुझे पहनने को दी, जिसके बाद फिर हिम्‍मत जुटा कर मैं अपने साथियों के साथ पैदल ही धाकुड़ी के लिए चल पड़ा। 

15 कि0मी0 की दूरी तय करने के बाद धाकुड़ी पहुंच कर हमने रात्री विश्राम किया । चिक्तिसा सहायता के लिए तब तक यहाँ मेडीकल टीम पहुंच चुकी थी। किन्तु चिकित्सा के नाम किसी जानवर की तरह जो दर्द निवारक इंजेक्शन मेरे घोपा गया उसकी पीड़ा मुझे अगले 10 दिन तक झेलनी पड़ी। चौथे दिन हम लोहारखेत के लिए रवाना हुए। लोहारखेत के ऊपर ख्‍यालीधार नामक पहाड़ी तक निर्माणाधीन हल्‍का मोटर वाहन मार्ग बन रहा था। वहॉं तक हमें लेने के लिए प्रशासन की दो जीपें पहुंच चुकी थी। ये जीपे हमें लोहारखेत स्थित लो‍क निर्माण विभाग के डाक बंगले तक लाई यहॉं कुछ देर विश्राम के बाद सौंग में मुख्‍य सड़क मार्ग तक हमें पहुँचाया गया। यहॉं पूरा सरकारी अमला चिकित्‍सकों की टीम और एम्‍बूलैंसों सहित मौजूद था। यहॉं से हमे बड़ी एम्बुलेंस में शिफ्ट कर बागेश्वर जिला चिक्तिसालय पहुंचाया गया । जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, उपजिलाधिकारी, जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी, मुख्‍य चिकित्‍साधिकारी आदि सभी ने मेरे से घटना की अलग अलग जानकारी ली। लेकिन एक दिन के विश्राम के बाद ही मुझे 14 जून 2004 को जिलाधिकारी के अनुरोध पर भारत तिब्बत सीमा पुलिस की टीम को लेकर पुनः एक और सफर की तैयारी करनी पड़ी।

 हालांकि मै चल फिर रहा था लेकिन शारीरिक रूप से लम्बी ट्रैकिंग के लिए फिट नहीं था। जिस चिकत्सक ने मुक्षे दो दिन पूर्व प्राथमिक चिकित्सा दी थी उसने तभी दांये पैर मे फ्रैक्चर की आशंका जतायी थी। बागेश्वर में एक्स-रे साफ तो नहीं आया किन्तु पैर की स्थिति देखते हुए मुझे बेस अस्पताल अल्मोड़ा रैफर कर दिया गया था। लगातार दर्द निवारक दवाइयां लेने और पैर में क्रेप बैन्डेज बंधे होने के कारण मुक्षे अधिक तकलीफ महसूस नहीं हो रही थी। उधर बागेश्वर के जिलाधिकारी एल. फैनई व पुलिस अधीक्षक के.एस. नगन्याल, पश्चिम बंगाल पुलिस कोलकाता के डिप्‍टी कमिश्‍नर ऑफ पुलिस जावेद समीम, सहित अनेक अधिकारी मुझसे ही यह आस लगाये हुए थे कि घटना स्थल से वाकिफ होने के कारण मृतकों के शवों की निकलवाने के लिए मै प्रशासन की मदद करूं। राजस्व पुलिस, नागरिक पुलिस, फायर ब्रिगेड, पी.डब्लु.डी. आदि के संयुक्त बचाव दल  द्वारा मृत जवानों के शवों को निकाल पाने से हाथ खड़े कर दिये जाने पर प्रशासन को मै अंधरे में एक रोशनी किरण की दिखाई दे रहा था। क्यों कि घटना के बाद बागेश्वर निवासी हेमन्त और रमेश प्रशासन के पास तक नहीं फटके। दूसरी ओर मुझे ही पता था कि कहाँ टैन्ट लगे थे, किस दिशा में जवान सोये थे और कहाँ उनके शव हो सकते हैं। मैं स्वयं भी महसूस कर रहा था कि इन्सानियत और मानवता के नाते मृतकों को शवों निकलवानें के लिए मुझे पुनः हिमालय के उस दुर्गम क्षेत्र में जाना चाहिए। मैने अपनी अन्तर्आत्मा की आवाज को स्वीकार किया और एक बार फिर सफर पर निकल पड़ा।

आई.टी.बी.पी. को प्रशासन ने कोई गाईड भी नहीं दिया था । इसीलिए बागेश्वर से लेकर दुर्घटना स्थल तक हर कदम पर मै ही भारत-तिम्बत सीमा पुलिस बल का मार्ग दर्शक था। जब मै दुबारा दुर्घटना स्थल पर पहुँचा तो मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पूर्व में आये बचाव दल ने उस स्‍थान से पत्थर का एक टुकड़ा तक नहीं हटाया था जहाँ से आर.ए.एफ. के दो अधिकारियों के शवों को अधिक परेशानी के बिना ही निकाला जा सकता था। स्थिति बता रही थी कि जो भी दल घटना स्थल पर भेजा गया था उसमें काम करने की इच्छा शक्ति ही नहीं थी। इसीलिए उसने वहाँ प्रारम्भिक कार्य भी नहीं किया। अंतत: दुर्घटना स्थल पर मैने जो स्थान चिन्हित किए उन्हीं स्‍थानों पर आई.टी.बी.पी.के बचाव दल ने ताकत झौंकी। तीन दिन में हम चट्टान के नीचे दबे पांचो शत्‌ विसत शवों को निकालने मे कामयाब हो गये। बाद में पूरे सम्मान के साथ वहीं छुरगाढ़ के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया।

प्राकृतिक आपदा के समय अपने साथियों  को संकट से उबारना और स्‍वैच्छिक रूप से बचाव व राहत कार्यों में योगदान देना हर किसी की नैतिक और सामाजिक जिम्‍मेदारी बनती है। मैने भी वही किया जो मेरी अन्‍तरात्‍मा की आवाज थी। यह मेरी नैतिक और सामाजिक जिम्‍मेदारी भी बनती थी। लेकिन लोगों ने इसे मानवता के लिए किया गया महान कार्य बताया।  मैं नहीं जानता कि इसमें महान क्‍या था ?  फिर भी मुझे बहुत मान सम्‍मान मिला, राज्‍य सरकार ने भी मेरा नाम जीवन रक्षा पदक से सम्‍मानित करने के लिए भारत सरकार को भेजा। लेकिन मैं अपने लिए सबसे बड़ा सम्‍मान उस क्षण को मानता हूँ जब आर.ए.एफ. के मृत जवानों के अंतिम संस्‍कार से पहले आईटीबीपी के अधिकारियों के साथ अकेले सिविलियन के रूप में मुझे भी वहॉं मृत जवानों को अंतिम सेल्‍यूट करने का अवसर मिला जहॉं किसी मॉं ने अपना बेटा, किसी बहन ने अपना भाई तो किसी ने अपना पति खोया था।

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