कमीशनखोरी में डूबा चिकित्सा क्षेत्र

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट
वर्तमान युग में मनुष्य ने सिक्कों की चमक और खनक में अपने ईमान को इस कदर गिरवी रख दिया है कि लालच ने उसकी बुद्धि पर कब्जा कर अच्छा-बुरा सोचने की शक्ति को ही लुप्त कर दिया है। सिस्टम में भी भ्रष्टाचार भी इस कदर रच-बस गया है कि उसका निदान भी असम्भव होता जा रहा है। हर कोई पैसे के पीछे भागता दिखाई दे रहा है । नेता-नौकरशाह, व्यापारी, वकील, पत्रकार, डाक्टर सब सिर्फ पैसा बटोरने की फिक्र में लगे हैं। इससे उन्हें कोई फर्म नहीं पड़ता कि दूसरे की पॉकेट का वह पैसा, कैसे और कहां से, किन परिस्थितियों में आ रहा है? चिकित्सा का क्षेत्र तो ऐसा हो गया है जहां मरीज के स्वास्थ्य और उसकी जिन्दगी का सौदा होने लगा है।
डिग्री लेते समय चिकित्सक निस्वार्थ सेवा भाव से काम करने की कसमें तो खाते हैं लेकिन जब प्रेक्टिस प्रारंभ होती है तो सेवा का पवित्र पेशा ‘धंधा’ बन जाता है। मरीजों का भगवान कहलाने वाला चिकित्सक रूपी ‘सेवक’ जब धन का लोभी बनकर पैसे के पीछे भागने लगे तो उसकी ‘सेवा’ व्यवसाय में बदल जाती है। यह निर्विवाद सत्य है कि सेवा के नाम पर व्यवसाय करने वाला कभी भी निःस्वार्थ रूप से जन सेवा नहीं कर सकता। डाक्टरी पेशे को मंच, माइक और सभा गोष्ठियों से चाहे कितनी बार जनसेवा के सम्बोधन दिये जाय, लेकिन जनसेवा के नारे के पीछे ‘पेशे’ की हकीकत नहीं बदल रही है। अगर धन कमाने के लिए चिकित्सा करने को ही जन सेवा कहा जाता है तो शराब, सुल्फा, गाँजा, चरस, अफीम, हीरोइन और धतूरा बेच कर आज की पीढ़ी को नसेड़ी बनाने वाले भी किसी न किसी रूप मे जन सेवा ही कर रहे हैं।
देश के कई अस्पतालों में जीवित व्यक्ति की आँखें, गुर्दे और खून की चोरी के साथ नवजात शिशुओं की ही चोरी नहीं हो रही हैं बल्कि मृत व्यक्तियों के शव तक गायब हो रहे हैं। इन घिनौनी हरकतों ने अपने पीछे कई सवाल छोड़े हैं। इन सवालों मे हर घटना के पीछे जन सेवा करने वाला एक डाक्टर का नाम जरूर जा जाता है। अगर आँखें और गुर्दे डाक्टर निकालता है तो प्रत्यारोपित करने वाले को भी यह जरूर पता होता है कि मानव अंग किस तरह हासिल किये हैं। बावजूद इसके अवैध रूप से मानव अंग निकालने और उन्हें प्रत्यारोपित करने का धन्धा बदस्तूर चल रहा है और डॉक्टरी पेशे को पवित्र बताया जाता है। मरीज के इलाज के नाम पर अपना घर भरने वाले डाक्टरों की ऐसी जनसेवा की अपेक्षा घरों से रद्दी व कबाड़ खरीदने वाले कबाड़ी, कटे फटे जूते सिलने वाले मोची, रिक्शा-ताँगा चलाने वाले, हाथ ठेली खींचने वाले मजदूर, लोगों के घरों की गन्दगी साफ करने वाले सफाई कर्मी कहीं अच्छी तरह जनसेवा कर अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं।
जनसेवा का मुखौटा लगा कर कमीशन डकारने वाले चिकित्सक कितना ही जन सेवा का ढोल पीट लें लेकिन इसकी आड़ में उनको सामाजिक स्टेटस, नाम और धन लोलुपता की भूख होती है। भले ही वे निःशुल्क नेत्र और दन्त चिकित्सा शिविर लगाने का ढोंग कर लें या हैप्टेटाइटिस के इंजेक्शन लगाने अथवा निःशुल्क स्वास्थ्य कैम्प लगाने का नाटक कर लें दरअसल यह कैम्प मरीजों को हाई एन्टीबायोटिक के सहारे कुछ पलों का आराम देकर अपनी ओर आकर्षित करने का माध्यम बन गये हैं। कुछ चिकित्सकों में तो चिकित्सा कैंप लगाने और दूसरे शहरों में जाकर पैसा कमाने की भूख इस कदर बढ़ गयी है कि पर्चे, पोस्टर और अखबारों के जरिये धुआंधार प्रचार कर लोगों को भ्रमित कर कमाई का एक और जरिया खोज रहे हैं। महंगी फीस के नाम पर इनके द्वारा मरीजों को जिस तरह लूटा जा रहा है उस फीस से कहीं सस्ती दर पर बाजार में दवाएं उपलब्ध हो जाती हैं। एक साधारण सिरदर्द की शिकायत लेकर मरीज किसी स्थापित डाक्टर के पास जाता है तो वह मात्र 2 रूपये की दवाई लिख कर 60 रुपये, फीस के रूप में वसूल करता है। लेकिन मरीज की जेब पर डाका पड़ने के बाद भी यह गारन्टी नहीं होती कि मेडीकल स्टोर से खरीदी गई यह दवाई भी मरीज का सिर दर्द ठीक कर पायेगी या नहीं।
मरीज को रैफर कर दूसरी जगह भेजने अथवा दवाइयों से लेकर, एक्स-रे, अल्ट्रासाउन्ड, सी.टी. स्केन, पैथोलॉजी लैब से सम्बन्धित जाँच आदि सभी मामलों में कमीशन खाने वाले डॉक्टरों के पास शाम को अगर कमीशन का लिफाफा नहीं पहुंचता है तो फोन खड़कने लगते हैं। लिहाजा धन्धे से जुड़े सभी लोगों को नियमित रूप से केस भेजने वाले डॉक्टर को कमीशन देना होता है। स्थानीय बाजार में अल्ट्रासाउंड पर 50 से 150 रूपये, एक्सरे पर 20 से 40 रूपये., ब्लड, यूरिन आदि पैथोलॉजी जांच पर 20 से 30 रूपये और दवाइयों के लिए किसी दुकान विशेष पर भेजने पर 10 से 30 प्रतिशत तक कमीशन खुलेआम लिया जा रहा है। कमीशनखोरी में लिप्त 70 प्रतिशत डॉक्टर जरूरत न होने के बाद भी थोड़े से लाभ के लिए अल्ट्रासाउन्ड, एक्सरे व महंगी दवाइयां ही नहीं लिखते हैं बल्कि आरपरेश्न तक कर डालते हैं। पैर मे मामूली मोच को बोन फ्रैक्‍चर बता कर प्लास्टर चढ़ाने में भी उन्होंने कोई हिचक महसूस नहीं होती।
कई क्षेत्रों में ऐसे मामले भी सामने आ रहे हैं जहाँ मामूली पेट दर्द की शिकायत को अपैन्डिस अथवा पथरी बता कर ऑपरेशन कर दिये गये हैं। आपरेशन भी ऐसा होता है कि बाहर से देखने पर पूरा आपरेशन का घाव दिखाई देता है उस पर बकायदा टांके भी लगे होते हैं किन्तु हकीकत में त्वचा में चीरा लगाकर उसमें टांके लगाये जाते हैं जबकि भीतरी त्वचा को छुआ तक नहीं जाता है। त्वचा में चीरा लगाने की इस शल्य क्रिया को मरीज के सामने बड़ा आपरेशन बताकर हजारों रूपये ऐंठ लिये जाते हैं।
बिना डिग्री और बिना प्रैक्टिस के पैसा कमाने की दौड़ मे ऐसे झोला छाप डाक्टर भी हैं जिनको शल्य क्रिया के लिए आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित ऑपरेशन थियेटर तक की जरूरत ही नहीं है, वे मरीज के परिजनों को विश्वास में लकर सड़क चलते किसी भी लकड़ी के खोखे, मकान या दुकान ने परदे लटका कर ऑपरेशन कर डालते हैं। न उन्हें मरीज के संक्रमण होने की परवाह होती है और उसकी जान जाने की। मरीज के परिजनों का पहले ही बता दिया जाता है कि मामला काफी गंभीर है कुछ कहा नहीं जा सकता। अगर मरीज की जान चली गयी तो कह दिया जाता है मामला गम्भीर था इसीलिए नहीं बचाया जा सका और यदि मरीज बच गया तो डाक्टर की दुकानदारी चल निकलती है। लेकिन कमीशनखोरी से ये भी अलग रहीं रह पाते।
लेखक का भी ऐसे ही सत्य से साक्षात्कार हुआ जब एक धनलोलुप एक हड्डी जोड़ रोग विशेषज्ञ ने बिना फ्रैक्चर के ही पैर में डेढ़ महिने के लिए प्लास्टर चढ़ दिया। जब परेशानी हुई तो दूसरे ही दिन एक अन्य डॉक्टर को दिखाया उसने पैर ठीक बता कर प्लास्टर काट दिया। ऐसे धन के भूखे चिकित्सकों द्वारा मामूली स्थिति को भी गम्भीर बताकर ऑपरेशन के नाम पर पैसे बटोरने की हवस के कारण ही गर्भवती स्त्रियों को सामान्य प्रसव कराने के बजाय उनका आपरेशन कर दिया जाता है। भ्रूण हत्या के विरुद्ध कानून बन जाने के बावजूद अनचाहे गर्भ से निजात पाने के लिए भी नर्सिंग होमों के पिछले दरवाजे ऐसे ही चिकित्सकों की मेहरबानियों के कारण खुले हैं। इसके लिए बकायदा गर्भस्थ शिशु के गर्भ में ही मर जाने अथवा गर्भवती महिला की जान को खतरा बताते हुए मोटी रकम ले कर अनचाहे गर्भ का गर्भपात करा दिया जाता है। जबकि गर्भवती महिला जिसका अल्ट्रासाउंड किया जाता है, अल्ट्रासाउंड सैन्टर के लिए आवश्यक होता है कि वह धारा 4(3) नियम 9(4) और नियम 10(1) के अनुसार फार्म में अपने व मरीज के हस्ताक्षरयुक्त घोषणा पत्र सहित पूरा चिकित्सकीय विवरण अंकित करें। यह प्रपत्र प्रत्येक माह की 5 तारीख तक जिले के मुख्‍य चिकित्साधिकारी को प्रस्तुत करना होता है। किन्तु अधिकांश अल्ट्रासाउन्ड सैन्टर इस नियम का पालन नहीं कर रहे हैं। जो कर भी रहे हैं तो उनके द्वारा गर्भवती स्त्री से उसका पूर्ण विवरण लेकर सम्बन्धित फार्म में नहीं भरा जाता। अगर विवरण पत्र भरे भी जाते हैं तो उनका सही हिसाब नहीं रखा जाता। इसका प्रमुख कारण अपनी आय और अल्ट्रासाउंड की संख्‍या कम दिखाना है।
सामान्य चिकित्सा प्रक्रिया में भी चिकित्सकों के लिए जहाँ मरीज का पूरा विवरण रखना आवश्यक होता है वहीं रिकार्ड चुस्त-दुरस्त रखने के बजाय एक पर्ची के सहारे उनका इलाज किया जा रहा है। कई चिकित्सक ऐसे हैं जो अपने यहाँ रोगी का नाम पता और उसको दिये जाने वाले उपचार के विवरण का रिकार्ड तक नहीं रखते। यह वे अज्ञानतावश नहीं बल्कि जानबूक्ष कर कर रहे हैं। जिससे कोई तकनीकी या कानूनी दिक्कत होने पर वे साफ बच जायें

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