प्रकृति से छेड़छाड़ महंगी पड़ेगी


-त्रिलोक चन्‍द्र भट्ट

विकास की अंधी दौड़ में तेजी से चल रहे सड़क, बाँध व भवन निर्माण कार्यों के लिए प्रकृति के साथ की गई छेड़छाड़ भूकम्प की दृष्टि से देश के सबसे अधिक संवेदनशील जोन 4 व 5 में स्थित उत्तराखण्‍ड को काफी महंगी पड़ने जा रही हैं। अतिवृष्टि, भू-स्खलन व भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाएं पहले से ही इस पर्यटन प्रदेश पर कहर बन कर टूटती रही हैं लेकिन विकास के नाम पर पहाड़ों के प्राकृतिक स्वरूप के साथ छेड़छाड़ ने क्षति की सम्भावनाओं को और बढ़ा दिया है।
हिमालय को विश्व की समस्त पर्वतमालाओं में सर्वाधिक संवेदनशील माना गया है। भौगोलिक संरचना के आधार पर पूर्ण विकसित न माने जाने वाले उसी मध्य हिमालय में उत्तराखण्‍ड स्थित है। इसका धरातल 800 फीट की ऊँचाई से प्रारम्भ होकर 25661 पफीट की ऊँचाई तक पहुँचता है। विकास के नाम हिमालयी क्षेत्रा के प्राकृतिक स्वरूप से हुई छेड़छाड़ और मानवीय हस्तक्षेप ने आबादी के बहुत बड़े क्षेत्र को विनाश के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। यहाँ सड़क व बांध निर्माण के लिए किये गये भारी विस्पफोटों से जो कंपन पैदा होता रहा है उसने मजबूत भू-संरचना को छिन्न-भिन्न कर दिया है जिस कारण बड़े-बड़े पहाड़ दरकने से बड़े पैमाने पर भूस्खलन हो रहा है। भवन निर्माण हेतु रेत, बजरी का खनन, वन सम्पदा का अवैज्ञानिक दोहन तथा मैग्नेसाइट व टाल्क आदि खनिजों के लिए किया जा रहा अनियंत्रित खनन कार्य और लगातार बढ़ती जा रही कंकरीट की बहुमंजिली इमारतों से भी यहाँ भूगर्भीय असन्तुलन पैदा हुआ है यही कारण है कि संवेदनशील भूकम्पीय क्षेत्रा में स्थित राज्य के अधिकांश पर्वतीय क्षेत्रों में पहाड़ों के दरकने, जमीन धंसने व भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि होती जा रही है।
राज्य में प्रतिवर्ष अतिवृष्टि, बाढ़ व भू-स्खलन के कारण सैकड़ों नाली कृषि भूमि बर्बाद हो रही है। इन प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आकर मनुष्य, गाय, भैंस, बैल, बकरियां काल के गाल में समा जाते हैं। धन-जन की भारी क्षति के साथ राजमार्ग और ग्रामीण सम्पर्क मार्ग कई-कई दिनों तक अवरूद्ध हो जाते हैं। प्रति वर्ष इस बर्बादी को अपनी आँखों से देखने के बाद भी लोगों में समाजिक चेतना व प्रकृति से छेड़छाड़ के प्रति जागरूकता का अभाव साफ झलकता है।
उत्तराखण्‍ड के नैनीताल, मसूरी जैसे प्रमुख पर्यटन स्थलों के साथ ऊँचे क्षेत्रों में बसे कई पर्वतीय नगर सीधे तबाही के मुहाने पर बैठे हैं। नैनीताल में चायनापीक का भू-स्खलन मल्लीताल के आबादी क्षेत्र के लिए खतरे की घंटी बना है तो तल्लीताल में बलियानाला नैनीताल शहर के लिए ही भविष्य की भयंकर तबाही का संकेत दे रहा है। इसके वैज्ञानिक उपचार पर लाखों रूपये खर्च होने के बाद भी भू-कटाव व भू-क्षरण रूकने का नाम नहीं ले रहा है, वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद अनियंत्रित निर्माण से पर्यटन नगरी की कमजोर पहाड़ियों पर लाखों टन रेत, बजरी, सीमेंट व इस्पात के उपयोग से कंकरीट के महल खड़े हो गये हैं। इसी तरह पहाड़ों की रानी मसूरी पर भी खतरे के बादल मडरा रहे हैं प्रकृति का प्राकृतिक परिवेश समाप्त होकर यहाँ भी कंकरीट की बहुमंजिली इमारतों का शहर बस गया है। बारिश के साथ पहाड़ों से निरन्तर मिट्टी के बहने, पहाड़ों के धंसने, खिसकने व भू-स्खलन के चलते ये कमजोर पड़ रही पहाड़ियाँ निरन्तर चल रहे भारी निर्माणों के बोक्ष से झुकने लगी हैं। अल्मोड़ा, पौड़ी, लैन्सडाउन, गोपेश्वर, जोशीमठ, रानीखेत तथा टिहरी शहर भारी निर्माण व आबादी का अत्यधिक दबाव क्षेल रहे हैं। इन शहरों के आबादी क्षेत्रों में नीचे की ओर भूमि धंसने अथवा खिसकने के खतरे विद्यमान हैं। जबकि घाटियों अथवा पहाड़ों की तलहटी में बसे दूसरे शहरों के उपर पहाड़ों का मलवा आने और पत्थर गिरने से धन-जन की क्षति सम्भावित है। उदाहरण के लिए बागेश्वर के दोनो ओर खड़े नील और भील पर्वत, उत्तरकाशी मे वरूणावर्त, हरिद्वार में मंसा देवी वाला विल्व पर्वत जिनकी तलहटी में शहर बसे हैं खतरों से घिरे हैं ऐसे ही गढ़वाल में कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग, देवप्रयाग, कुमाऊँ मे भवाली, खैरना, कैंची आदि अनेक ऐसे शहर, कस्बे और गाँवों के आबादी क्षेत्र हैं जिनके सिरहाने पर बड़े-बड़े पहाड़ खड़े हैं। धरती में उत्पन्न कम्पन मात्रा से ही ऐसे क्षेत्रों में नुकसान हो सकता है। रिक्टर पैमाने पर 7.00 और 9.00 के बीच की तीव्रता वाले भूकम्प आने की स्थिति में तो भारी क्षति सम्भावित है।
आर.एस.ए.सी.-यू.पी. रीमोंट सेंसिंग एप्लिकेशन द्वारा विभिन्न क्षेत्रों के किये गये  वैज्ञानिक सर्वेक्षण से भी इस बात की पुष्टि की गयी थी  कि उत्तराखण्‍ड के सैकड़ों गाँवों पर भू-स्खलन से जमींदोज होने का खतरा मंडरा रहा है। भू-स्खलन की सम्भावनाएं तब और बढ़ जाती है जब भूकम्प आते हैं। उत्तराखण्‍ड के चमोली, रूद्रप्रयाग, बागेश्वर व पिथौरागढ़ जनपद भूकम्पीय संवेदनशीलता की दृष्टि से पूरी तरह जोन 5 मे आते हैं। उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, अल्मोड़ा जिलों के भी कुछ क्षेत्र इसी जोन में हैं जबकि इन जनपदों का अधिसंखय क्षेत्रा, हरिद्वार, उधमसिंहनगर, चम्पावत तथा नैनीताल जिलों के साथ दूसरे संवेदनशील जोन 4 में आता है। यह दोनों जोन सर्वाधिक क्षति सम्भावित जोन माने जाते हैं।
प्रतिवर्ष खासतौर से वर्षा ऋतु और उसके बाद होने वाली भूस्खलन की घटनाएं उत्तराखण्ड के लिए एक सामान्य बात है, लेकिन 16 अगस्त 2005 को उत्तरकाशी मे रिक्टर पैमाने पर आये 4.8 के भूकम्प ने संवेदनशील क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को भविष्य के प्रति आशंकित कर उनके दिल की धड़कने बढ़ा दी हैं। दरअसल भारत और एशिया के मध्य विस्तीर्ण हिमालय दो महाद्वीपों के पारस्परिक दबाव से ग्रस्त है। हिमालय में भूसंचलन उन भ्रंशों या दरारों पर हो रहे हैं जिससे हिमालय बड़े-बड़े भूखण्डों एवं लम्बे कटिबन्धों मे विभाजित हो गया है। जब धरती के पफटने तथा दरारों के ऊपर नीचे उठने या दांये-बांये सरकने की प्रक्रिया होती है तो वह भूकम्प के रूप मे हमारे सामने आती है। इस प्रक्रिया में हिमखण्ड, चट्टाने और पहाड़ गिरने से लेकर, नदियों द्वारा प्रवाह की दिशा बदलने और भवनों के जमीदोंज होने जैसी कोई भी घटना हो सकती है। 
उत्तराखण्ड में अब तक आये भूकम्पों में 1 सितम्बर 1803 को बदरीनाथ में रिक्टर पैमाने पर 9.00 की तीव्रता वाला भूकम्भ सबसे अधिक वेग का माना जाता है।इसके बाद भी 28 मई 1816 को गंगोत्री, 14 मई 1935 को लोहाघाट, 2 अक्टूबर 1937 को देहरादून, 28 अगस्त 1988 को धारचूला में ऐसे भूकम्प आये जिनकी तीव्रता 7.00 और 8.00 के बीच थी, इसके अलावा हल्के और न महसूस किये जा सकने वाले सैकड़ों  भूकम्प यहाँ आ चुके हैं। तब जनसंख्‍या और मानव बस्तियां कम होने के कारण जान-माल की क्षति भी कम थी। किन्तु तब और आज की स्थिति में बड़ा भारी बदलाव आ चुका है। अगर 14 वर्ष पूर्व 20 अक्टूबर 1991 को उत्तरकाशी में आये 6.6 की तीव्रता वाले भूकम्प से हुई धन-जन की क्षति का आकलन करें तो आज की स्थितियाँ कहीं अधिक भयावहता उत्पन्न करने वाली हो सकती हैं। क्यों कि बीते सालों में जितनी तेजी से आबादी और मानव बस्तियों का विस्तार हुआ है उतनी ही तेजी से इन क्षेत्रों में भूकम्परोधी निर्माण के बजाय ईंट और पत्थरों के कंकरीट युक्त भारी बहुमंजिले आवासीय व व्यवसायिक भवनों का भी निर्माण हुआ है। जबकि प्राथमिकता के अनुसार किये जाने वाले भूकम्परोधी निर्माण एक प्रतिशत भी नहीं हैं।
 पहले से ही संवेदनशील क्षेत्रा में सुमार उत्तराखण्ड में बाँधों की सुरंग और सड़क निर्माण के लिए उपयोग किय गये विस्फोटकों ने यहाँ की भूसंरचना को जिस तरह प्रभावित किया है उससे भूकम्प आने की दशा में भवनों की गिरने व पहाड़ों के दरकने के रूप में ही तबाही सामने नहीं आयेगी बल्कि परम्परागत जलस्रोत तो सूखेंगे ही नदियों का प्रवाह अवरूद्ध होने अथवा बाँधों के टूटने की स्थिति भी गम्भीर खतरा उत्तपन्न कर सकती है। राज्य में रामगंगा नदी पर बने 126 मीटर ऊँचे बाँध, कोसी पर 155 मी. कोठार, टौन्स पर 253 मी. किशौ, यमुना पर 192 मी. लखवाड़ तथा भागीरथी पर 260.5 मीटर ऊँचे टिहरी बाँध उन बाँधों की श्रेणी में हैं जिनमे विशाल जल निधि का संचय है। टिहरी जैसे विशाल जलनिधि वाले बाँध के टूटने की दशा में सम्भावित नुकसान को पर्यावरण मंत्रालय का एक दस्तावेज स्पष्ट करता है कि जलाशय 22 मिनट में खाली हो जायेगा और टिहरी से 104 किलामीटर दूर स्थित हरिद्वार तक बाढ़ के पानी के पहुँचने में मात्रा 63 मिनट का समय लगेगा तब हरिद्वार में पानी की गहराई 260 मीटर होगी यही पानी 266 कि.मी. दूर उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में भी 12 घंटे में पहुँच कर इस क्षेत्र को 8.50 मीटर गहरे पानी में डुबाकर महा विनाश मचा सकता है।
पर्वतीय क्षेत्र में मैदानी क्षेत्र की तरह मात्र भवनों के जमीदोंज होने या भूमि मे दरारें पड़ने का ही खतरा नहीं होता बल्कि भवनों के गिरने के साथ भू-स्खलन, सड़क व यातायात मार्ग क्षतिग्रस्त होने, जलस्रोत सूखने, नदियों का जल प्रवाह अवरूद्ध होने, और बाँधों के टूटने का भी खतरा होता है। विषम भौगोलिक परिस्थितियों युक्त क्षेत्र होने के कारण यहाँ बचाव व राहत कार्य करने भी उतने की कठिन होते हैं जितना यहाँ के निवासियों का कष्टप्रद जीवन होता है। यह सत्य है कि भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं को रोका तो नहीं जा सकता लेकिन पर्यावरण और सुरक्षा से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाये तो इससे होने वाली क्षति के प्रभाव को अवश्य कम किया जा सकता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!