Monday, December 2, 2024
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‘पद्मश्री’ और ‘अर्जुन अवार्ड’ पुरस्कार पाने वाले पर्वतारोहण और पर्यावरण विशेषज्ञ हरीश चन्द्र सिंह रावत

लेखन/संकलन: त्रिलोक चन्द्र भट्ट 
नेपाल के दक्षिणी पूर्वी डांडा से होकर 29 मई 1965 को एवरेस्ट फतह करने वाले हरीश चन्द्र सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले में मुनस्यारी के सरमोली गाँव में 3 जुलाई 1934 को हुआ। पूर्णतः पर्वतीय परिवेश, ऊबड़-खाबड़ रास्ते व दैनिक कार्यों के लिये प्रातः प्रतिदिन ही पहाड़ों पर उतरना, चढ़ना इन सब परिस्थियों ने स्वस्थ और मजबूत शरीर को प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिये जिस तरह तैयार किया उसने हरीश में एक सफल पर्वतारोही बनाने की बुनियाद डाली। कठोर परिश्रम और सतत्‌ साधना से वे एक के बाद एक कई पर्वत शिखरों को अपने कदमों से नापते चले गए। अपनी दिन रात की कड़ी मेहनत और सच्ची लगन के कारण वह ‘पद्मश्री' और ‘अर्जुन अवार्ड' दोनों पुरस्कार पाने के अधिकारी बने।
रावत ने नंदा देवी , सुनंदा देवी , कंगलाचा , हाथी पर्वत , तिरसुली , राठौंग , नंदा खाट और नन कुन सहित कई अभियानों में भाग लिया। 1962 में, उन्होंने सोनम वांग्याल, 1965 के अभियान के एक अन्य एवरेस्टर सहित एक दल का नेतृत्व किया, जो लेह से 30 मील दक्षिण में कंगलाचा गया। 1963 में, रावत ने हाथी पर्वत पर चढ़ाई की और एक साल बाद वे तिरसुली और सुनंदा देवी अभियान का हिस्सा थे। एवरेस्ट की पूर्व तैयारियों में, उन्होंने राठौंग पर चढ़ाई की।
रावत ने चीनी मिसाइल कार्यक्रम विकास का परीक्षण करने के लिए भारतीय खुफिया और अमेरिकी केंद्रीय खुफिया एजेंसी द्वारा नंदा देवी शिखर पर संयुक्त चढ़ाई में भी भाग लिया। उस समय (1965), वह उत्तराखंड में सामाजिक कल्याण के लिए काम कर रहे थे और बाद में काम किया। 74 वर्ष की आयु में नई दिल्ली में फेफड़ों के कैंसर से उनकी मृत्यु हो गई। वह भारतीय पर्वतारोहण फाउंडेशन के उपाध्यक्ष थे । 
रावत ने 1952 में लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और उसी वर्ष इंटेलिजेंस ब्यूरो में केंद्र सरकार की सेवा में शामिल हुए । उन्हें अक्टूबर 1963 में गोरखपुर में उप केंद्रीय खुफिया अधिकारी के रूप में तैनात किया गया था। इसके बाद वे विशेष सेवा ब्यूरो (अब सशस्त्र सीमा बल ) में चले गए। वे 1965 में एसएसबी मुख्यालय में संयुक्त सहायक निदेशक थे। जनवरी 1970 में, वे दीदीहाट के पास सानदेव में हाई एल्टीट्यूड ऑपरेशंस ट्रेनिंग सेंटर के संस्थापक प्रमुख बने ।अक्टूबर 1972 में, इसे ग्वालदम में एसएसबी की फ्रंटियर अकादमी के साथ इसके पर्वतारोहण विंग के रूप में विलय कर दिया गया और रावत उस विंग के पहले वरिष्ठ प्रशिक्षक बने।
चौथे एवरेस्ट अभियान दल के सदस्य के रूप में लक्ष्य तक पहुँचकर कीर्तिमान स्थापित करने वाले इस पर्वतारोही ने 1962 में लेह में स्थित 6462 मीटर ऊँचे हाथी पर्वत शिखर और 1972 में जोहार घाटी के 6769 मीटर ऊँचे हिम शिखर पर सपफल आरोहण किया। 1964 में इन्होंने कमांडर मोहन सिंह कोहली के नेतृत्व में त्रिशूल और नन्दा देवी पूर्व पर आरोहण का प्रयास किया। प्रतिकूल मौसम और कुछ साथियों के घायल हो जाने के कारण इस अभियान में सफलता तो नहीं मिली किन्तु 1965 में उन्होंने एवरेस्ट फतह कर ही लिया। इस अभियान में 28, 000 फीट की ऊँचाई तक तीन घण्टे का सफर तय करने वाले वे दुनिया के सबसे पहले पर्वतारोही थे। हरीश चन्द्र रावत की इस सफलता और विशेष उपलब्धियों के लिए भारत सरकार ने इन्हें ‘पद्मश्री' से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त 1966 में इन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार' से भी नवाजा गया। वे भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के उपाध्यक्ष भी रहे।
पर्वतारोहण और पर्यावरण में विशेषज्ञता हासिल करने वाले हरीश चन्द्र सिंह रावत अपने संस्मरण डायरी में लिखने के शौकीन थे। उन्होंने अपनी डायरी में पर्वतारोहण के दौरान अपने सब संस्मरण लेखनीबद्ध किये थे उनकी डायरी के संस्मरणों को मेजर अहलूवालिया ने अपनी पुस्तक ‘हाइयर दैन एवरेस्ट' में और कमाण्डर कोहली ने ‘नाइट ए टाप में स्थान दिया। इस अभियान की एक अन्य विशेषता यह थी कि इसमें 19 भारतीय सदस्य थे। 1953 से 1965 तक के आरोहण में कुल 15 व्यक्ति एवरेस्ट शिखर पर पहुँचे थे। लेकिन हरीश चन्द्र सिंह रावत के इस अभियान में कुल 9 सदस्यों ने आरोहण में सफलता प्राप्त की जो अपने में एक रिकार्ड थी। यह पिछले 12 वर्षों का कीर्तिमान था।

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