उत्तराखण्ड को अपनी प्रतिभा के रंगों से सरोबार करने वाले चित्रकार सुधीर रंजन खास्तगीर
लेखन/संकलन : त्रिलोक चन्द्र भट्ट
देवभूमि उत्तराखण्ड को कर्मभूमि बनाकर अपनी प्रतिभा के रंगों से उसे सरोबार करने वाले लोगों को यहाँ की मिट्टी ने इतनी हिम्मत और हौंसला दिया कि वो लोग नित नई मंजिले तय कर सपफलता और प्रसिद्धि के उस मुकाम पर पहुँचे जहाँ उनका कद हिमालय की तरह ऊँचा और बुलन्द हो जाता है। उन्हीं में से सुधीर रंजन खास्तगीर भी एक थे। मूलतः पश्चिम बंगाल से सम्बन्ध रखने वाले इस शिल्पी एवं चित्रकार ने उत्तराखण्ड की धरती पर उपनी प्रतिभा के जो रंग बिखेरे उस पर भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित किया।
चिरकाल से इस क्षेत्र में ‘प्राकृतिक ऐश्वर्य का प्राचुर्य है, व्योम विलासिनी हिमधवला शैलेन्द्र-श्रेणियाँ, गिरीश की गोद में क्रीड़ा करती हुई समुद्र-पत्नियाँ, अपने गर्भ से राशि-राशि धन्य उत्पन्न करने वाली, वसन्त की मादकता में थिरकता हुआ, युग-युग से भारत-भारती को अनन्य आराधिका बनाए हुए है। सुधीर रंजन को प्रकृति में अपने हृदय जैसा ही स्पन्दन सुनाई दिया। कला को निहार-निहार इस कलाकार का हृदय गल-गल कर तूलिका की आँखों से बह उठा। फलतः कभी मानवीकरण के चित्र-पट पर उसने प्रकृति नटी के एक से एक मनोरम चित्र उकेरे तो कभी प्रकृति में ही रंग भरकर वातावरण को विषयानुकूल रंगोज्जवला प्रदान की।
मन की कुंठित अवधरणाएँ जो एक कलाकार के अवचेतन मन में खामोशी के साथ सूक्ष्म रूप धारण किये हुए पड़ी थी तूलिका हाथ में आते ही प्रकृति का आँचल थाम थिरक उठी। प्रकृति नवल चंचला प्रेयसी की तरह नित नये रूपों में उसके सामने प्रकट होती रही और सुधीर रंजन प्रकृति के सीमाहीन अतुल सौन्दर्य पर मोहित हो नित नये चित्रा बनाता रहा। वह कला के प्रति समर्पित हो गया। कागज, तूलिका और रंग के समायोजन से उसने उन खामोश चित्रों में प्राण डाल दिये जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को अपने दुःख में प्रकृति उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी। उन्होंने बाह्य सौन्दर्य से हटकर अपनी कला को आन्तरिक सौन्दर्य से जोड़ एक नया रूप प्रदान किया।
देहरादून की आबोहवा में प्रवास कर हिमालय के धवल हिम शिखरों को छू लेने की ललक ने शिल्पी एवं चित्रकार सुधीर को उन ऊँचाईयों पर पहुँचाया जहाँ उसे भारत सरकार ने ‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित किया। यह सम्मान हासिल करने के बाद कला का यह पुजारी कलकत्ता चला गया।
इससे पूर्व 1933 से 1936 तक सिंधिया स्कूल ग्वालियर में कला शिक्षक का कार्य करने पश्चात् वे देहरादून के दून पब्लिक स्कूल में आये और उन्होंने यहां भारतीय पद्धति से कला की शिक्षा देनी प्रारंभ की। लेकिन कुछ समय बाद ही वे 1937 में एक साल का अवकाश लेकर वे यूरोप भ्रमण के लिए चले गये। विदेश भ्रमण के दौरान दौरान उन्होंने पेरिस, इटली ऑस्ट्रिया, जर्मनी तथा इंग्लैण्ड के कला-संग्रहालयों को देख और वहां के अनेक कलाकारों तथा कलाविदों से भेंट की। इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान उन्होंने एरिक गिल तथा आनन्द कुमारस्वामी से भी मुलाकात की और वहाँ कांस्य ढलाई का कार्य भी सीखा।
इंग्लैण्ड से लौट कर सुधीर रंजन पुनः देहरादून में दून स्कूल पहुंचे। उस समय देहरादून में कांसे की मूर्तियां ढालना सम्भव नहीं था। उसके लिए उन्होंने सीमेंट तथा प्लास्टर के मॉडल बनाने का कार्य प्रारंभ किया। अपने कलाशिल्प के कारण 1947 तक वे देहरादून तथा मसूरी में अच्छे खासे चर्चित हो गये। लोगों में उनकी बनायी कृतियां खरीदने के लिए होड़ लग गई। देहरादून में उन्होंने 1955 तक कार्य किया। इसी अवधि में सन् 1950 में भारत सरकार ने उन्हें ” पद्मश्री’ की उपाधि से विभूषित किया। बाद के वर्षों में वे पद्मविभूषण से भी सम्मानित हुए।