उत्तराखण्ड में धार्मिक मान्यताएँ

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट


उत्तराखण्ड में ग्राम देवताओं की सार्वभौम मान्यताएं प्राचीनकाल से हैं। यहां नागराजा, नृसिंह, घण्यिाल, क्षेत्रपाल, गोरिल, निरंकार जैसे ग्राम देवताओं की मनौती मानी जाती थी। कल्पना की जाती थी कि ग्राम देवता भी मनुष्यों के समान विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं। जो उनकी कामना की पूर्ति करता हो, वह उसकी रक्षा तथा उसकी अभिलाषाओं की पूर्ति करते थे। भूत-पिचाश और आच्छरियों के अस्तित्व पर जन साधरण का पूरा-पूरा विश्वास था। मान्यता थी कि यह मानवेत्तर शक्तियाँ प्रसन्न होकर मानवों की कामनाओं की पूर्ति करती और रूष्ट होकर उनके प्राण हर लेती है। देवी-देवताओं के रूप में पूजित ‘शक्तियों’ में एक ओर तो वे व्यक्ति हैं जो अपने लोक कल्याणकारी कृत्यों के कारण यहाँ के जन मानस पर ऐसी गहरी छाप छोड़ गये हैं कि लोग मरणोपरान्त उन्हें ‘देवी’ अथवा ‘देवता’ के रूप में पूजने लगे तथा दूसरी ओर ऐसी दुष्टात्माएं भंी ‘देवी’ व ‘देवता’ के रूप में पूजी जाने लगी जो अपने जीवन काल में तो किसी न किसी रूप में लोगों को पीड़ित करती रही, मरणोपरान्त भी उनकी ‘प्रेतात्माएं’ लोगों को विविध प्रकार की यातनाएं पहुँचा कर उनसे अपनी ‘पूजा’ करवाती रही हैं। तथा उनके द्वारा पहंँुचायी जाने वाली यातनाओं से त्रस्त समाज उन्हें ‘देवता’ कह कर ‘मुक्ति’ के लिए उनकी आराध्ना करता है। स्थानीय देवी देवताओं के सम्बन्ध् में सर्वाध्कि उल्लेखनीय तथ्य तो यह है कि वह उन सभी मानवीय गुणों से समवेत होते हैं जो कि एक सामान्य मानव में हुआ करते हैं उपेक्षा किये जाने पर क्रुद्ध होते हैं, द्वेष एवं प्रतिकार की भावना से प्रेरित होकर हानि पहुँचाने में भी नहीं चूकते हैं, अकड़ते व रूठते भी है। इस प्रकार विभिन्न स्थितियों में कभी उनके कार्यों में सहायक होते हैं तो कभी बाध्क भी बनते हैं। आराध्क जब चाहे उसके ‘डंगरिये’ तथा ‘जगरिये’ के माध्यम से उसे साक्षात् रूप में अवतरित करा सकता है। अन्य विषयों पर स्वयं भी उससे वाद-विवाद कर सकता है। वह अपने साथ हो रहे अन्याय के निवारण के लिए उससे प्रतिवदेन कर सकता है।
हिमालय की वादियों में रहने वाले लोगों मे पूर्व से प्रचलित परम्पराओं के अनुसार जादू टोने और मंत्र शक्ति पर विश्वास था। मान्यता थी कि जादू टोने से शत्रु की सम्पत्ति और प्राणों का अपहरण व सरसों आदि अभिमंत्रित करके किसी व्यक्ति के उपर फेंकने से उसे वशीभूत किया जा सकता है।
आदिकाल से ही यहाँ निवास करने वाली दस्यु, किरात, नाग, खस, शक, हूण व यवन जातियों के समय से ही इस क्षेत्र में धार्मिक मान्यताओं को बल नहीं मिला बल्कि कत्यूरी, चन्द व पवार राजवंशों के समय में भी र्ध्म और देवी देवता लोगों की श्रद्धा और आस्थाओं के केन्द्र बिन्दु बने रहे। जीवन की दिनचर्या में आने वाले खुशी और गम के क्षणों से लेकर रोग, शोक व विपदाओं के निवारण के लिए देवी-देवताओं को पुकारना, सामाजिक व राजनैतिक लाभ के लिए देवताओं की आराधना करना आदि ऐसे कारण रहे जिससे पुराने रीति रिवाजों, व परम्पराओं के प्रति लोेंगों की धर्मिक आस्थाएँ अपनी जड़ें गहरी करती गई। इन आस्थाओं में सात्विक पूजा के साथ बलि पूजा का भी प्रचलन था। पहाड़ में अभीष्ट कार्यों की सिद्धि के लिए पशु बलि का प्रचलन आज भी है। जबकि चंद नरेशों के शासन में कुमाऊँ के गंगोलीहाट की ‘काली’ और गढ़वाल में पंवारो के शासनाकल में ‘श्रीयंत्र’ पर नर बलियां दी जाती थी। कालान्तर में धर्म और ईश्वरीय शक्ति के प्रति लोगों को इतना विश्वास और श्रद्धा थी कि लोग अपनी सन्तानों को भी साधुओं को देने में नहीं हिचकते थे। बालिकाओं को मन्दिरों में देवताओं को चढ़ा दिया जाता था जो वहाँ देवदासियों का कार्य करती थी।
शान्त और सुन्दर प्राकृतिक वातावरण में काम, क्रोेध, मद, लोभ, तथा स्वार्थ का परित्याग कर निर्भीक व निश्चिन्त होकर ईश्वर की साधना करने का स्वस्थ माहौल इस प्राकृतिक प्रदेश में सृष्टि निर्माण के समय से ही रहा है यही कारण है कि कपिल, गर्ग, द्रोण, नारद, कण्व, व्यास, मारकण्डेय आदि )षि-मुनियों ने इस पावन भूमि को अपनी तपस्थली बनाया तो सप्त ऋषि मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्र्रतु व वशिष्ठ ने भी यहीं साधना की। कपिल मुनि के श्राप से भस्म हुए सगर पुत्रों केा मोक्ष प्रदान करने के लिए उत्तराखण्ड की पावन भूमि पर ही ‘गंगावतरण’ हुआ इसके बाद ही ‘गंगा’ ‘गंगा सागर’ की ओर प्रवाहमान हुई। पाण्डवों ने ‘राजसूय यज्ञ’ करने के लिए यहीं के गन्धमादन पर्वत से सोना प्राप्त किया था। राम-रावण युद्ध में ‘शक्ति’ लगने से मूर्छित हुए लक्ष्मण के प्राण बचाने के लिए हनुमान यहीं केे द्रोणागिरि पर्वत से ‘संजीवनी बूटी’ ले गये थे। अर्जुन ने अपनी तपस्या से भगवान शंकर को प्रसन्न कर उनसे ‘पाशुपत’ आदि दिव्य अस्त्र भी यहीं प्राप्त किये थे। भगवान शिव की कैलाशपुरी के रक्षक अष्ट भैरवों का निवास भी यहीं मध्य हिमालय क्षेत्र में बताया गया है। जनश्रुतियां, लोक मान्यताएं, जागर, दन्तकथाएं, और धर्मिक ग्रन्थ अलग-अलग तरीकों से ऋषि-मुनियों और देवी-देवताओं के जीवन चरित्र को देवभूमि उत्तराखण्ड से जोड़ते हैं। कहा जाता है कि भगवान राम ने जब अर्धंगिनी सीता का परित्याग किया तो वह देवप्रयाग के निकट भी आई थी। देवप्रयाग के समीप की चट्टी ‘सीताकोटि’ व ‘विदाकोटि’ से पौराणिक घटना का सम्बन्ध् जोड़ते हुए कहा जाता है कि जब सीता धरती में समाई थी तो यहाँ से आगे अकेले गई थी। जनश्रुति के अनुसार ‘विदाकोटि’ में उन्होंने अपने लोगों से विदाई ली थी। लोगों की धरणा है कि गढ़वाल की सितानस्यूं पट्टी में ‘सीता’ धरती मंे समाई थी।
एक अन्य जनश्रुति उत्तरकाशी स्थित ‘लंका’ नामक स्थान का सम्बन्ध रावण की लंका से जोड़ती है। इसके अनुसार प्रतिदिन भगवान शिव की पूजा करने के लिए कैलाश जाते समय रावण ने विश्राम के लिए एक छोटी लंका बनाई। चमोली में स्थित ‘दशोली’ नामक स्थान पर लंका नरेश रावण द्वारा अपने दसों सिर शिव को अर्पित करना भी बताया जाता है।
यहाँ ऋषि-मुनियों, तपस्वियों, और देवी-देवताओं को तो श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजा ही जाता है। स्थानीय देवी-देवताओं के साथ उनके गण, द्वारपाल व क्षेत्रपालों को भी पूजा में उनका भाग दिया जाता है। राजशाही के युग में न्यायकारी, परोपकारी और प्रजा के सुख-दःुख का ध्यान रखने वाले राजा-रानियों को भी देवतुल्य मानकर उनकी पूजा की जाती रही तो पाण्डवों की पूजा के साथ दुर्योधन तक को पूजा का स्थान मिला। उन पितरों को भी धर्मभीरू लोगों ने नहीं भुलाया जिनकी आत्मा शान्ति न मिलने के कारण मृत्युपरान्त किसी न किसी इच्छा को लेकर भटकती रहती है। इनके निमित मन्दिर बना कर अपने पितरों को ‘देवस्थान’ पर स्थापित कर मध्य हिमालय के लोग पीढ़ी दर पीढंी पूजते रहे हैं। सच तो यही है कि यहाँ पहाड़ की चोटियों से लेकर नदी, घाटी व कन्दराओं तक कण-कण में ईश्वर का वास है तभी यहाँ की नदी, पहाड़, पत्थर व सरोवरों तक को पूरी श्रद्धा व भक्ति के साथ पूजा जाता है।
यहाँ हर जंगल और पहाड़ पर अलग-अलग देवी-देवताओं का अस्तित्व माना जाता रहा है। कहीं पर भैरव पूजे जाते हैं तो मानव और पशुओं का रक्षक एवं हितैषी समझे जाने वाले घण्यिाल (घंटाकणर््ा) यक्ष का अस्तित्व माना जाता है। ऐसे ही ‘सिध्वा’ और ‘विध्वा’ वन प्रदेश में विचरण करते थे और खोये हुए पशुओं का पता देते थे। देवता ही यहाँ गाँव के भी अध्पिति या रक्षक होते हैंे जो भूम्याल, क्षेत्रपाल, सिद्ध आदि नामों से पूजे जाते रहे हैं। इनके साथ 64 जोगिनी तथा 52 वीर भी चलते हैं। इस हिमालय प्रदेश में कई जगह अब भी मकान के विभिन्न कमरों की ताखों में देवी-देवताओं के लिंग या त्रिशूल भी स्थापित किये जाते हैं। मकान के छतों की मुड़ेरों पर भी कुलदेवता के पाषाण लिंग की स्थापना की जाती है। बाघ और साँप ने भी पहाड़वासियों की धारणा को प्रभावित किया है। यदि परिवार का कोई व्यक्ति स्वप्न में सर्प देखता है तो ‘नाग देवता’ का तथा बाघ को देखता था तो ‘नृसिंह देवता’ का प्रकोप समझा जाता है।
उत्तराखंड के ऊँचे पर्वतों जहाँ से ‘नन्दा देवी शिखर’ या ‘महाहिमालय’ के अन्य हिमाच्छादित पर्वतों का दृश्य दिखाई देता है। कालान्तर में वहाँ नन्दा के मन्दिर बनाये गये थे। नन्दा देवी गढ़वाल और कुमाऊँ में समान रूप से पूजी जाती है। कत्यूरी शासन काल से अब तक राजा और प्रजा सभी नन्दा देवी के प्रति असीम श्रद्धा रखते आये हैं। नन्दा को हिमालय की पुत्री और महादेव की पत्नी माना जाता है। नन्दा देवी शिखर को उसका मायका अथवा निवास, नन्दाकोट शिखर को उसका दुर्ग, नन्दा घुंटी शिखर को घूंघट तथा त्रिशूल शिखर को उसके हाथ में रहने वाला त्रिशूल बताया जाता था। पहाड़ मे रहने वाले नन्दा देवी के पूजकों द्वारा कलान्तर से ही देवी के प्रसाद से सुख-समृद्धि तथा उसके कोप से सर्वनाश हो जाने की कल्पना की जाती थी।
जब धर्म अपने वैभव पर था उस समय वैरागियों ने ऋषिकेश से लेकर बद्री-केदार तक राम की गाथा से सम्बन्धित नाम व स्थान प्रचलित कर दिये। नाथों ने अधिकांश शिव मंदिरों पर अधिकार जमा लिया, ब्राह्मणों ने नन्दा आदि का दुर्गा-भगवती से कैलाश, महासु और भैरवों का शिव से घंटाकणर््ा आदि, यक्षों का विष्णु के पार्षदों से तथा नाग और नृसिंह का विष्णु-कृष्ण से सम्बन्ध जोड़कर उनकी स्थानीय पूजा विधि के साथ शास्त्रीय अर्चन विधियों का मिश्रण कर दिया। नन्दा, गौरजा, चन्द्रबदनी, शाकुम्भरी आदि अनेक ग्राम देवियों की सन्तुष्टि के लिए दुर्गा सप्तशती के पाठ करने की प्रथा चल पड़ी। दक्षिण आौर वाम दोनों विधियों से उनकी पूजा होने लगी। वाम मार्ग पर्वतीय मान्यताओं के लिए विश्ेाष अनुकूल सिद्ध हुआ। भागवत् पुराण के सप्ताह, रामायण के नवाह, गरूड़ पुराण के पाठ की प्रथा भी मान्य हो गयी। पाँचों पांडव, द्रौपदी, कुन्ती, दुर्योधन, हनुमान, कृष्ण, रूक्मणी, सत्यभामा और परशुराम आदि पंचनाम ग्रामदेवताओं के रूप में पूजे जाने लगे।
कुमाऊँ के चन्द राजा और गढ़वाल के पंवार शासकों के शासनकाल में धर्म की खूब उन्नति हुई। राजा और प्रजा दोनों के ही धर्म, प्रेम और ईश्वर के प्रति अटूट विश्वास से देवालयों की स्थापना को प्रोत्साहन मिला। इनमें शिव, शक्ति और विष्णु के मंदिरों के स्थापत्य को प्रमुखता मिली। लोगों ने अपने कुल, ग्राम, क्षेत्र के अनुसार विभिन्न रूपों में देवताओं को अपना सर्वस्व माना और जन्म से लेकर मृत्यु तक हर संस्कार में उसका नाम लिये बिना कोई कार्य नहंीं किया। खेत से नई फसल काट कर अनाज का घर में उपयोग करने से पहले देवी-देवताओं को ‘नैंनाग’ के रूप में भोग लगाने से लेकर घर ब्याई गाय का दूध पहले मंदिर में चढ़ाना अपनी परम्पराओं में शामिल रखा। पिछले सैंकड़ों वर्षों में मनुष्य के आचार व्यवहार में बहुत बदलाव आया है उसने कई अंध्विश्वासों और कुरीतियों से किनारा किया है, आध्ुनिक सुख-सुविधाओं और रहन-सहन के नये तौर-तरीके सीखे लेकिन इस बदलते परिवेश के बावजूद परिवार के मुखिया की मृत्यु के उपरान्त उसकी दूसरी पीढ़ी के पारिवारिक सदस्यों ने अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुए अपने कुल और क्षेत्र देवता के प्रति आस्था नहीं छोड़ी। इस तरह यह प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही।
पर्वतीय समाज के हर अच्छे बुरे काम की पृष्ठभूमि के पीछे किसी न किसी दैविक शक्ति का हाथ माना जाता है। ग्रामीण जनमानस आज भी दृढ़ता के साथ इसी बात को स्वीकार करता है कि उनके अच्छे-बुरे कर्मो के आधार पर दैविक शक्ति ही उनके हित-अहित का निर्धरण करती है। किसी का अहित होने पर वह व्यक्ति इसे दैविक इच्छा मान कर नाराज देवता को मनाने के लिए मनौती मांग कर पूजा अर्चना करता है। लोगों का यह विश्वास है कि अगर उसने अपने ईष्ट की समय से पूजा अर्चना कर उसको प्रसन्न नहीं रखा तो उसकी दिनचर्या और शुभ कार्यों में विघ्न बाधाएँ आयेंगी। मनवांछित फल की प्राप्ति पर ईश्वर को पूजा के रूप में बधाई देने की परम्पराओं ने यहाँ के मानव को धर्म और आस्था से जोड़ रखा है। इन परम्पराओं में ‘मनौती’ एक महत्वूपर्ण विषय है। मनुष्य के धार्मिक विश्वास और आध्यात्मिक आचरण से समाज के अस्तित्व में आने के साथ आरम्भ हुई ‘मनौती’ की परम्परा आज भी परिवर्तित नहीं हुई है। ईश्वर का नाम लेकर की गई कामना की पूर्ति अथवा कार्यसिद्धि होने पर किये धर्मिक आयोजन में ईश्वर का प्रतीक मानकर पत्थरों की पूजा, जागर, देवी भागवत अथवा मंगल कामना के साथ पुण्य अर्जित करने की लालसा में विभिन्न स्थान, पर्वों और धर्मिक मेलों में उमड़ी श्रद्धालुओं की भारी भीड़ में मनौती के जीवन्त दर्शन होते हैं। पहाड़ के लोगों के ऐसे अटल विश्वास पर कई विद्वान घोर आश्चर्य भी व्यक्त करते हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि हिन्दुओं की ऐसी आस्थाओं ने ‘हिन्दु धर्म’ व ‘दर्शन’ को जीवित भी रखा है।
इस पर्वत प्रदेश में ‘क्षेत्र रक्षक देवता’ की भी बड़ी मान्यता रही है। कालान्तर से ही क्षेत्र में प्रत्येक डांडे पर पृथक् देवी-देवताओं का अस्तित्व माना जाता था। दुर्गम सीधी चढ़ाई पर विभिन्न नामवाले भैरव पूजे जाते थे। ऊँची खालों पर घन्टाकर्ण (घण्यिाल) यक्ष का अस्तित्व माना जाता था। उसे निकट प्रदेश के मानवों और पशुओं का रक्षक एवं हितैषी समझा जाता था। उसके लिए ऊँचे खम्भों पर घण्टे लटकाए जाते थे जिन्हें बजा-बजा कर एकाकी पशुचारक घण्टाकर्ण की स्तुति और अपने परिवार, पशु एवं कृषि की मंगल कामना करता था। उस मार्ग से होकर जाने वाला एकाकी पथिक भी अपनी रक्षा के लिए उस शक्तिशाली यक्ष का आह्वान करता था। ‘विध्वा-बिघ्वा’ वन प्रदेश में विचरण करते थे और खोए हुए पशुओं का पता देते थे।
प्रत्येक शिखर, गिरिद्वार, खाल, मार्ग, बांक नदी, पयार आदि के अतिरिक्त प्रत्येक गाँव के एक दो अध्पिति या पृथक् रक्षक होते थे, जो भूम्याल, क्षेत्रपाल, सिद्ध, महासू आदि नामों से पूजे जाते थे। इनके साथ चौसठ जोगनियां तथा बावन वीर भी चलते थे। ग्राम देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए इन जोगनियों ओर वीरों को भी सन्तुष्ट करना पड़ता था। गा्रम देवता को दोनो फसलों पर रोट चढ़ाए जाते थे। ग्राम में बसे प्रत्येक कुल (परिवार) के भी दो चार कुल देवता होते थे।
इसी तरह पहाड़ में हजारों वर्ष पूर्व सभ्यता का उदय हुआ तो ‘नाग पूजा’ की परंपरा भी आरंभ हुई। जब यहाँ मानवीय बसासत आरम्भ हुई तो उस समय विभिन्न जीव जन्तुओं के साथ सर्वत्रा विषैले और विषहीन सर्प मिलते थे। जो यदा-कदा घरों में भी निकल जाते थे। तब सर्पदंश से काफी संख्या में मनुष्य और पशुओं की मृत्यु हो जाती थी जिस कारण यहाँ लोगों ने नाग को भी देवता मान अलग अलग स्थानों पर मन्दिर बना कर उन्हें पूजना शुरू कर दिया था। इन नाग मन्दिरों की यात्रा और दर्शनों के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आने लगे। ऐसी ही यात्राओं में टिहरी जनपद के सीम-मुखीम तथा नागराज के तीर्थ की यात्रा प्रमुख है।
कई क्षेत्रों में नाग राजा की पूजा का प्रचलन इतना अधिक है कि प्रत्येक गाँव में पेड़ के नीचे धातु का नाग, दीपक तथा त्रिशूल चढ़ा रहता है। कुमाऊँ के कुछ क्षेत्रों में भी नाग देवता की अच्छी खासी मान्यता है यहाँ प्रचुर संख्या में नाग मन्दिर मिलते हैं। जिनमें आज भी पूरे विधि-विधान के अनुसार पूजा होती है। इसका कारण अतीत में वहाँ नाग जाति के लोगों का वास होना बताया जाता है। नाकुरी, दानपुर तथा भुवनेश्वर के इलाकों में कालीनाग, वासुकी नाग, बेरीनाग, धौलीनाग आदि मंदिर नागों के नाम पर ही स्थापित हैं। कमेड़ी देवी से कुछ ही दूरी पर फेनिल नाग का भव्य मंदिर है। कमेड़ी देवी से लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर एक सुरम्य पहाड़ी पर धौलीनाग देवता का मंदिर है। इस मंदिर में मूर्ति सर्प के रूप में है जिस पर अनेक गहने चढ़ाये प्रतीत होते हैं। यहाँ पूजा का विशेष अधिकार ‘धपोलासेरा’ के ‘धामी’ लोगोें को है। ‘खंतोली’ के ‘पन्त’ भी धैलीनाग की पूजा में सम्मिलित होते हैं। नाग पंचमी को धैलीनाग में बहुत बड़े मेले का आयोजन होता है।
इससे आगे पिंगल नाग का मंदिर है। जिसे ‘प्यूलीनाग’ भी कहा जाता है। स्थानीय लोककथा के अनुसार ‘प्यूली’ नागपर्वत में स्फटिक-लिंग प्रकट हुआ था। उस पर्वत पर एक कृषक गायों को चराने के लिए जाया करता था। उसकी एक गाय शिवलिंग पर अपना दूध गिरा देती थी। इस बात की जानकारी गोपालक को नहीं थी। वह प्रतिदिन बर्तन लेकर गाय का दूध दुहने का प्रयास करता था। दुधरू गाय द्वारा दूध न देने से चिन्तित किसान एक दिन गाय के पीछे-पीछे जंगल में गया तो उसने अपनी आंखों से गाय को स्वयं एक लिंग पर दूध गिराते देखा। क्रोधित होकर उसने तभी स्फ्टिक शिला पर आघात कर दिया। इस घटना के बाद वह घर आकर गहरी निद्रा में सो गया। रात्रि में उसे उस स्थान पर मन्दिर बनाने का स्वप्न हुआ जहाँ गाय अपना दूध स्वतः लिंग पर चढ़ा देती थी। गोपालक ने सम्बन्ध्ति भू-स्वामी से किसी प्रकार वह भूमि खरीदी और मन्दिर बना दिया। यहाँ आश्विन शुक्ला पंचमी को मेला लगता है।
वैसे तो सम्पूर्ण उत्तराखंड में नागपूजा प्रचलित हैं। नागदेवता भी बहुत से स्थानों पर पूजे जाते हैं। लेकिन नागपुर परगना विशेष कर इनके लिए प्रसिद्ध है।
पशुचारण और कृषि के लिए ग्राम वासियों को बार बार निर्जन प्रदेशों में विचरण करना पड़ता था। इन क्षेत्रों में पग-पग पर उन्हें उन मृतात्माओं का भय बना रहता था जिन्होंने उस दुर्गम प्रदेश के मार्गों पर चट्टानों से गिर कर, बाढ़ में बह कर, हिम तूफान में फंस कर, भेलों से फिसल कर कर, वृक्षों से गिर कर अथवा सर्प, व्याघ्र, भालू आदि के आघात से प्राण त्याग किए थे। इनके प्रेत योनि में जाने की मान्यताओं के साथ ‘भूत-प्रेत’ की पूजा का भी प्रचलन हुआ। प्रत्येक गा्रम में प्रत्येक सप्ताह दो-चार स्त्री-बच्चों पर भूत-प्रेत का छल (प्रकोप) होता रहता था, जिसे दूर करने के लिए ‘रख्वाली’ अथवा भूत प्रेत की पूजा करनी पड़ती थी। जिस दिन गा्रम या आस पड़ोस में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती उस दिन भूत चिपटने का विशेष भय रहता था। शमशान से लौटते समय मार्ग में काँटेदार वृक्षों की टहनियाँ रख दी जाती थी जिससे मृतक का प्रेत श्मशान से ग्राम में न जा सके। घर में भूत के प्रवेश को रोकने के लिए द्वार पर कुल्हाड़ी रखी जाती थी। तथा यत्र-तत्र जाते समय इसी उद्देश्य से कमर में दराँती खूँसी जाती थी।
लोगों का विश्वास था कि जो व्यक्ति दूसरों के द्वारा मार दिये जाते थे, अथवा उनकी अन्य किसी प्रकार से नदी-तालाबों में डूबने, फाँसी लगाने, पहाड़ से गिरने आदि कारण से मृत्यु हो जाती थी और जिनके विधिवत् दाह- संस्कार नहीं होते थे। उनकी आत्मा भूत बनती है। यह भी आम विश्वास था कि जिन बच्चों का दाह संस्कार नहीं किया जाता था वे ‘मसाण’ बन कर लोगों को पीड़ा देते थे। अविवाहित बन कर मरने वालों युवक भी ‘टोला’ बन कर रात्रि में टिमटिमाता हुआ विचरण करता था। महामारी, अकाल मृृत्यु या आत्मघात से मरे हुए अपने प्रियजनों से दूर परदेश में मरने वाले या प्रवास में प्राण खोने वाले नर-नारी यदि मरते समय अपने प्रियजनों को मिलने की कामना से तड़प-तड़प कर प्राण त्यागते थे तो उनकी अतृप्त आत्माएं भी अपने प्रियजनों पर चिपटती थी। इनको पूजा आदि से सन्तुष्ट नहीं किया जाता तो उनके परिवार पर रोगादि विपत्तियाँ छाई रहती थीं। युवा नारियों की मृत आत्मा ‘आँछरी’ बनकर सरोवर तटों तथा वन उपवनों में विचरण करती थीं। कत्यूरी राजा धमदेव, वीर देव, चन्द वंशीय राजकुमार भोलानाथ, डोटी का राजकुमार गंगा नाथ, राजकुमार गोरिया या ग्वल्ल, कलविष्ट नामक भड़, चम्पावत का राजा हरिश्चन्द्र (हरू), मानशाह का राज्याधिकारी जीतू बगड़वाल आदि कुछ ऐसे ही नाम हैं जिनके बारे में लोक विश्वास है कि इनके रफष्ट हो जाने पर बली देकर अथवा रोट आदि का भोग लगाकर इनकी पूजा करने से वे तंग नहीं करते।
कुदृष्टि वाले मृत मनुष्य ही नहीं बल्कि जीवित मनुष्य भी ग्रामीणों को भीषण पीड़ाएं देते रहते थे। कुदृष्टि से देखने वाले मनुष्य दूध देने वाली गाय-भैंसों, फलदार वृक्षों, खेतों में उत्पन्न फसलों, खाद्य पदार्थों, होनहार बच्चों तथा आभूषण आदि वस्तुओं को कुदृष्टि से देखते थे तो पशुओं का दूध सूखने लगता था, फल सड़नेे लगते थे, पफसल नष्ट हो जाती, खाद्यानों के प्रयोग करने से उल्टी होने लगती, बच्चे सूखने लगते तथा आभूषणादि अशुभ सिद्ध होने लगते थे। कुछ लोग तिल, उड़द, चावल आदि उठा कर शत्रु विनाश के लिए ग्राम देवता के लिंग के ऊपर फेंक कर ग्राम देवता का आह्वान करते थे।

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