ढलती उम्र का कुशल पर्वतारोही रूपसिंह

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट
शानोशौकत से दूर साधारण पहनावा, छोटा कद, खिचड़ी दाढ़ी, और बिखरे बाल वाले सीधे स्वभाव के रूपसिंह की, पीठ पर बोझा ढोते-ढोते उमर ढल गई है। जीवन के इस मोड़ पर बुढ़ापा दस्तक दे चुका है, लेकिन पीठ से बोझ उतरने का नाम नहीं ले रहा है। जवान बेटे ‘चामू’ को भी हालातों ने बोझा ढोने को मजबूर कर रखा है। हिमालय के साहसिक अभियानों की कठिन डगर पर अनेक कष्ट और पीड़ाओं को झेलने के बावजूद बाप-बेटों के कदम रूकने का नाम नहीं ले रहे।
जीवन के 60 बसन्त पार कर चुका रूप सिंह बाल्यकाल से अब तक कई टन बोझा अपनी पीठ पर ढो चुका है। उसने कितने ही साहसिक अभियानों की अगुवाई की, कितनों का पथ प्रदर्शक बना और कितने पर्वतारोहियों को हिमशिखरों पर पहुँचाया, उसे कुछ विशेष घटनाओं को छोड़कर आज कुछ भी याद नहीं है। करीब पचास साल पहले पोर्टर के रूप में साहसिक अभियानों की कठिन राह पकड़ने वाले उत्तराखण्‍ड के ग्राम जातोली (जिला बागेश्वर) निवासी रूपसिंह के चेहरे पर आज भी वही भोलापन और सादगी है जो सोलह साल की उम्र में थी। आज भी पीठ पर मन भर बोझ लादे पर्वतारोहियों और साहसिक अभियान पर निकले दलों को दुर्गम पहाड़ियों और बर्फीली चोटियों पर चढ़ाने वाले इस ‘बूढे़ नौजवान’ की ढलती उम्र और चेहरे पर उभर रही झुर्रियाँ भी उसकी मजबूत इच्छाशक्ति के सामने यह अहसास ही नहीं होने देती कि अब उसके दिन बीत चुके हैं।
अभियान दल के सदस्यों के साथ जिस अपनेपन और आतमीयता से रूप सिंह ‘‘सैप ज्यू तमि क्ये फिकर नि करो, खाँण-पीणेकि सब व्यवस्था है जालि’’ अर्थात- साहब जी आप कोई चिन्ता मत करो, खाने-पीने की सब व्यवस्था हो जायेगी’’ कहता है। यह शब्द आत्मिक शान्ति पहुंचा कर ट्रैकर/पर्यटक को पूरी तरह चिन्ता मुक्त कर देते हैं। समय और हालात चाहे जैसे भी हों कर्म पर विश्वास रखने वाला यह व्यक्ति आज भी युवाओं को मात देते हुए ढलती उम्र में भी अकेले 30 से 40 किलो वजन पर्वतारोहण के अंतिम पड़ाव सबमिट कैम्प पर पहुँचाता है। सुन्दरढूंगा ग्लेशियर, मैकतोली शिखर, टैन्ट पीक, आनन्द पीक, दुर्गाकोट, कानाकाटा पास, पताती पास, नागकुण्ड, देवीकुण्ड, आदि साहसिक अभियानों के मार्ग में वियावान जंगलों से घिरे दुर्गम क्षेत्र में स्थित जातोली गाँव में जन्मा रूपसिंह भारतीय पर्वतारोहण संस्थान में पंजीकृत गाइड है। परिवार की खराब आर्थिक स्थिति और स्कूली शिक्षा से महरूम इस शख्‍स को परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए बचपन में ही घर से कदम बाहर निकालने के लिए मजबूर कर दिया था। तब इस क्षेत्र में दूर-दूर तक न तो कोई विद्यालय था न ही रोजगार के कोई साधन। घर परिवार के लिए सुख-साधन जुटाने और रोजगार की तलाश में घर से कदम बाहर निकले तो पेट भरने के लिए पोर्टर का काम करना शुरू कर दिया था। सोलह साल की उम्र में पहली बार पीठ पर जो बोझ रखा, वह सारी उम्र के लिए रूपसिंह के भाग्य की नियती बन गया।
धारकोट जाकर पोर्टर का काम करते समय रूप सिंह का शेरपाओं से सम्पर्क हुआ। दार्जीलिंग का एक शेरपा, जो बावर्ची भी था, उसने रूपसिंह को खाना बनाना सिखाया। शेरपाओं के साथ रहकर भोजन बनाना सीखने के साथ-साथ, पर्वतारोहण की सामग्री ढोना, और पर्वतारोहण के गुर सीखने में रूपसिंह ने काफी मन लगाया। उन दिनों पर्वतारोहण सिखाने में तीन शेरपाओं ने उसकी खूब मदद की। पर्वतारोहण के लिए पर्वतारोहियों को इन्सटीयूशनल प्रशिक्षण के दौरान बेसिक और एडवान्स कोर्सों के साथ कई अन्य प्रशिक्षण पूरे करने होते हैं, लेकिन किसी प्रकार का संस्थागत प्रशिक्षण लिये बिना अपनी काबलियत और अनुभव के द्वारा रूपसिंह पर्वतारोहियों का मार्ग-दर्शन करता है। अगर पोर्टरों अथवा गाइडों को पर्वतारोहण संस्थान से निर्धारित कोर्स पूरा किये बिना शिखर आरोहण को वैधता मिलती तो रूपसिंह जैसे लोग न जाने कितने पर्वतारोहियों के रिकार्ड तोड़कर नये-नये कीर्तिमान स्थापित करते चले जाते।
सितम्बर 1992 में जब नैनीताल और अल्मोड़ा के पर्वतारोही मैकतोली अभियान पर निकले तो रूपसिंह की सलाह न मानने के कारण काल के गाल में समा गये थे। युवा पर्वतारोही रतन सिंह व जगदीश बिष्ट (अल्मोड़ा) तथा त्रिभुवन कोरंगा व दीपक नेगी (नैनीताल) मैकतोली आरोहर के लिए निकले तो रूपसिंह ने जातोली से रवानगी के समय ही हिदायत दे दी थी कि शिखर पर आरोहण दायें के बजाय बांये ओर से करें। किन्तु पर्वतारोहियों ने उनकी सलाह की अनदेखी की जिस कारण 1992 को चारों पर्वतारोहियों को 21 हजार फीट की ऊँचाई पर अपनी जान गवानी पड़ी।
सन्‌ा 1994 में अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ का एक पर्वतारोही दल मैकतोली शिखर आरोहण अभियान पर था। दल के लिये आगे आरोहण का मार्ग तैयार करते हुए रूपसिंह अविजित मैकतोली शिखर पर लक्ष्य के करीब पहुँच चुका था। वह चाहता तो मैकतोली पर तिरंगा फहरा सकता था। शिखर तक पहुँचने में मात्र दस मिनट का समय भी नहीं होगा कि दुर्भाग्य से इसी समय आक्सीजन की कमी के कारण अभियान दल के सदस्यों की सांसे उखड़ने लगी। परिणामस्वरूप मैकतोली अभियान स्थगित करना पड़ा। साहसिक पर्यटन मार्ग, आरोहण और मौसम की प्रतिकूलता आदि हर पहलू के अनुभवी रूप सिंह आगे बढ़ने से पूर्व हर चीज का अनुमान लगाने और विषम परिस्थतियों में भी धैर्य नहीं खोता।
करीब 20 वर्ष पूर्व दुर्गाकोट शिखर आरोहण के अभियान में रूपसिंह लीड क्लाइम्बर था। आरोहण के समय अभियान दल के 14 सदस्य रोप से फिक्स थे। मंजिल के निकट पहुँचने के लिये रूपसिंह बड़ी सावधानी से आरोहरण कर रहा था। जैसे ही उसने आगे कदम रखा तो उसका पैर हिडन कैरावास (बर्फ की छुपी हुई दरार) पर पड़ा। मौत मुँह बाये सामने खड़ी थी। जरा सी असावधानी का मतलब था कि रोप से बँधे सारे पर्वतारोहियों के प्राण संकट में पड़ जाते और वे क्षण भर मे ही उस बर्फ की दरार में समा जाते। ऐसे गम्भीर संकट के समय रूपसिंह ने एक क्षण की भी देरी किये बिना कलाइम्बिंग रोप को दूसरी ओर इतनी जोर का झटका दिया कि सारे पर्वतारोही बर्फ की छिपी हुई दरार से दूसरी ओर छिटक कर मौत के मुँह में जाने से बच गये।
9 जून 2004 को सुन्दरढूंगा घाटी से मृगथूणी की ओर बढ़ते हुए सुखराम केव में हुई दुर्घटना को छोड़कर रूपसिंह के पथ प्रदर्शनकाल जिसकी अगुवाई वह खुद कर हो, में कोई ऐसा हादसा नहीं हुआ जिसमें अभियान दल के लोगों की जान गई हो। इस पथ प्रदर्शक के नेतृत्व में कोलकाता पुलिस के त्वरित कार्यवाही बल (रैपिड एक्शन फोर्स) के 14 सदस्यीय और उत्तराखण्‍ड का 3 सदस्यीय दल जब सुखराम केव में रात्री विश्राम कर रहा था तब नींद में सोये अभियान दल के टैंन्टों पर चट्टान गिरने से 5 सदस्यों की मौत हो गयी थी। इस दुर्घटना ने रूपसिंह को अन्दर तक हिला कर रख दिया। उसे जितना उन जवानों की मृत्यु का दुःख था उतना ही दुःख इस बात का था कि उसके पथ प्रदर्शक के जीवन में यह घटना काला अध्‍याय बन गयी थी।
रूप सिंह इतना भोला और सरल स्‍वभाव का व्‍यक्ति है कि प्राकृतिक आपदा के कारण हुई दुर्घटना पर भी उसे कई दिन तक कानूनी पचड़ों में भी फंसने का डर सताता रहा। सुखराम केव में रात्री के घुप्प अंधेरे में पाँच लोगों की मौत के बाद अगर रूप सिंह ने समझदारी से काम न लिया होता तो भगदड़ में कोई और हादसा भी हो सकता था। प्रकृति और दैविक प्रकोपों के आगे किसी का वश नहीं चलता। यह भी एक ऐसा ही हादसा था जिसके लिए मानव को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इसके बावजूद दुघर्टना के बाद किसी अनहोनी की आशंका में उसके परिवार वालों के चेहरे से हँसी गायब हो चुकी थी। चेहरे और आँखो में भय की छाया तैर रही थी। बहरहाल गरीब रूप सिंह पर तो कोई कानूनी आँच नहीं आई लेकिन जिस रैपिड एक्शन फोर्स के अभियान दल को वह ले जा रहा था उसके साथ हुआ दर्दनाक हादस उसकी आंखों के सामने आज भी तैरता है। बावजूद इसके रोजी-रोटी के लिए अनेक दलों को हिमालय के साहसिक अभियान पर ले जाने का रूपसिंह का सफर जारी है।

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