उत्तराखण्ड में जन्मे प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त
लेखन/संकलन: त्रिलोक चन्द्र भट्ट
सन् 1961 में श्रेष्ठ साहित्य सृजन के लिए ‘पदम्भूषण’ से अलंकृत प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म एक सम्पन्न परिवार में समुद्र की सतह से 7000 फीट की ऊँचाई पर बसे कौसानी (अल्मोड़ा) में 20 मई 1900 ई0 में हुआ था। चार भाई और चार बहनों में सुमित्रानन्दन सबसे छोटे थे। अपने जीवन के चन्द घण्टों बाद ही माता के निध्न के कारण उन्हें मातृ सुख से वंचित होना पड़ा। अतः किंकर्तव्य-विमूढ़ पिता ने इन्हें हरिगिरि बाबा को अर्पित कर दिया जिस कारण लोग इन्हें ‘गोसांई’ के नाम से पुकारने लगे। भावुक मन व साधुओं की वाणी से प्रभावित होकर जब ‘गोसाईं’ उनके साथ साधु बनने को जाने लगे तब इनके भाई व बुआ इन्हें समझाकर घर ले आए। उसके बाद दादी व बुआ ने ही इनकी देखभाल की। शैशव काल बीतने पर इनके ज्येष्ठ भ्राता ने इनका नाम सुमित्रानन्दन पन्त रखा। सुमित्रा नन्दन पन्त के पिता कौसानी के चाय बागान में उप प्रबंधक थे। इनके दादा अपने समय के जाने-माने जागीरदार थे। पाँच वर्ष की उम्र से उन्होंने विद्यारम्भ किया। जब ये सात वर्ष के हुए तो पढ़ाई के लिए वर्नाकुलर स्कूल में प्रवेश लिया।
इनके बड़े भाई जो हिन्दी में कविता किया करते थे उनकी प्रेरणा से इनकी कविता करने की प्रवृति को बल मिला। इसी के साथ इनके फूफा ने इन्हें संस्कृत का ज्ञान दिया। इसके अलावा परिवार के अन्य सदस्य गायन में रुचि रखते थे। बचपन में दादी के गीतों को सुनकर इनमें कविताएँ करने की प्रवृत्ति को बल मिला। जहाँ सुमित्रानन्दन पन्त का घर था वहाँ चारों ओर प्रकृति ने अपनी अनुपम छटा खुलकर बिखेरी थी। चारों ओर देवदार के पेड़, बर्फ से ढके हिम शिखर और सूर्य की आभा से मंडित चमकती हिमालय की चोटी इनके मन में कविता की आहट पैदा करती। पन्त जी बचपन से ही प्रतिभाशाली थे। ये अपनी बहन और रिश्तेदारों को जो खत लिखते थे वे रोला छंद और छंदबद्ध शैली में होते थे। इनकी कविताओं के छपने का सफर सबसे पहले सन् 1916 में ‘अल्मोड़ा’ नामक प्रसिद्द्ध अखबार से ‘तम्बाकू का धुआँ’ नामक रचना से हुआ था।
पाठशाला में विद्याध्ययन करते हुए इन्होंने अपनी एक कविता इंस्पेक्टर को सुनाई जिस पर प्रशंसा बटोरने के साथ पुरस्कार भी प्राप्त किया। 10 वर्ष की उम्र में जब ये अपनी आगे की पढ़ाई के लिए अल्मोड़ा गये तो वहाँ इन्हें रविन्द्रनाथ टैगोर जी के दर्शन हुए। उन्हें देखकर इनके हृदय की कविता स्वयं शैशव से निकल आगे पैर पसारने को उतावली हो उठी और इन्होंने अपने देश व मातृभूमि की सेवा के लिए शपथ ली। सांस्कृतिक गतिविधियों में अधिक ध्यान लगाने के कारण अपनी पढ़ाई के प्रति लापरवाह हो गये फलस्वरूप ये हाई स्कूल में अनुत्तीर्ण हुए। 1918 में ये अपने मंझले भाई के साथ बनारस गये। बनारस में ही इन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद सेन्ट्रल कालेज में भर्ती होकर वहीं के छात्रावास में रहने लगे। कालेज में उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का भी अध्ययन शुरू किया। सन् 1921 में उन्होंने कालेज की पढ़ाई छोड़ दी। गाँधी जी के इस भाषण से कि ‘’जो असहयोग में भाग लेना चाहता है और कालेज की पढ़ाई छोड़ना चाहता है हाथ खड़ा करे” से ये विशेष प्रभावित हुए। गाँधी जी के इन शब्दों से इन्होंने भी अपना हाथ खड़ा कर दिया इस कार्य में इन्हें अपने भाई का विशेष योगदान मिला और ये एकान्त में अपनी साहित्य साधना में लग गये जिस कारण ये परिवार से कटते चले गए।
धीरे-धीरे इनकी काव्य साध्ना बल पकड़ने लगी और ये काव्य गोष्ठियों तथा कवि सम्मेलनों में भी जाने लगे। इन्हीं दिनों इन्होंने ‘वीणा’ और ‘ग्रन्थि’ नामक एक छोटा सा काव्य लिखा तथा 1922 में इनकी प्रथम कविता पुस्तक ‘उच्छवास’ प्रकाशित हुई लेकिन निरन्तर संघर्षों से जूक्षते रहने के कारण इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा जिस कारण ये अपने एक सम्बन्धी डा0 नीलाम्बर जोशी के घर पर रहने लगे। 1930 ई0 में ये अल्मोड़ा चले आये मगर यहाँ इनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया और बीमार रहने लगे। तब कालांककर के राजकुमार इनको अपने साथ ले आए। वहाँ रहकर इन्होंने ‘’रूपाम” नामक एक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया। वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुन्जन, ज्योत्सना, युगान्त, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि, स्वर्णकिरण, उत्तरा, लोकायन, आधुनिक कवि और कला तथा बूढ़ा चाँद आदि इनकी श्रेष्ठ कृतियाँ हैं।
पन्त जी का कवि हृदय सामाजिक, धर्मिक, नैतिक व दार्शनिक अनेक प्रकार की समस्याओं से बोक्षिल रहता। वे सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से कुछ करना चाहते लेकिन उपयुक्त अवसर न मिल पाता। 26 मार्च 1965 को उत्तर प्रदेश सरकार ने दस हजार रूपये पुरस्कार देकर उन्हें सम्मानित किया। साहित्य सृजन के लिए उन्हें 15 नवम्बर सन् 1965 को ‘लोकायतन’ पर पन्द्रह हजार का ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’ मिला। 1961 में भारत सरकार ने ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। साहित्य अकादमी से भी पन्त जी पुरस्कृत हुए। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने भी उन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि तथा 1967 में विक्रम विश्व विद्यालय, 1971 में गोरखपुर विश्व विद्यालय, 1976 में कानपुर कोलकाता तथा राजस्थान विश्वविद्यालय ने डी0लिट्0 की मानद उपाधि से इनका सम्मान बढ़ाया। 1969 में वे ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजे गये। पंत जी का यही कहना था कि ध्रती की करूणा, काल का वरदान और प्रकृति की सौम्य सुन्दरता ही उनके स्वप्नों को पूरा करने में सार्थक रही है ।
विभिन्न समस्याओं में उलक्षे हुए उनके तन-मन को कहीं से भी शान्ति न मिलती। उन्होंने अनेकों लेखकों के साहित्य पढ़ने के साथ-साथ पश्चिमी लेखकों का भी अध्ययन किया। कांट, मार्क्स और प्रफायड के ग्रन्थों का इन्होंने विशेष रूप से अध्ययन किया। पन्त जी का मन सदैव ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ की खोज में लगा रहता। जब उन्हें लगता कि किसी का सहयोग चाहिए तब किसी ने उनकी सहायता नहीं की इसलिए प्रकृति ने उनके अन्दर विश्वास व मुसीबतों से जूक्षने के साथ आगेबढ़ने की इतनी प्रबल भावना भर दी थी कि वे जीवन भर स्वयं ही हर संघर्ष से जूक्षते रहे। यह पन्त जी के चरित्रा की विशेषता रही है कि वे हमेशा व्यक्गित न सोचकर विश्व स्तर पर समस्या का समाधान खोजते थे। वे पूरी तरह गाँधीवादी विचारों से ओत-प्रोत थे। उनका मन असहयोग आंदोलन की ओर क्रियाशील था। विशेष रूप से ‘युगान्त’ और ‘पाँच कहानियाँ’ ये दोनों रचनाएँ इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर की गई थी। निम्न पंक्तियों से गाँधी जी के प्रति कवि की भावनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है-
‘मेरे हृदय में बसे कवि को नवयुग मंगल के लिए
एक सर्वांगपूर्ण रस-सिद्ध रूप की खोज थी।
जिसकी प्राप्ति के लिए गाँधी जी का स्पर्श शुभ बन सका।’
उस समय ‘सरस्वती’ के सम्पादक देवी प्रसाद शुक्ल थे। सरस्वती पत्रिका उस समय की जानी-मानी पत्रिका मानी जाती थी। देवी प्रसाद शुक्ल ने पन्त जी की कविताओं को अपनी पत्रिका में छापना आरम्भ कर दिया। धीरे-धीरे सफलता ने उनके कदम चूमने आरम्भ कर दिये और इसी के साथ पन्त जी में आत्मविश्वास की भावना को भी बल मिलता चला गया जिसके कारण साहित्य सृजनता ही जीवन में उनका एकमात्र लक्ष्य रह गया।
विशेष रूप से सुमित्रा नन्दन पन्त जी की ‘वीणा’ व ‘छाया’ नामक काव्य संग्रह ने विशेष खयाति अर्जित की। वीणा की विज्ञप्ति ने पन्त जी को सफलता के चरम शिखर पर पहुँचा दिया। इसके बाद पन्त जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा लेकिन यह उनके भाग्य की विडम्बना रही कि ज्यों-ज्यों वे सपफलता के उच्च शिखर को छूते रहे त्यों-त्यों प्रकृति सांसारिक सुख से उन्हें वंचित करती गई।
तदनन्तर पन्त जी ने अल्मोड़ा के संस्कृति केन्द्र को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना। दिन-रात वे अपनी नाट्य मंडली में लगे रहते और देश-विदेश का भ्रमण करते जिस कारण वे ठीक ढंग से अपने खाने-पीने की ओर ध्यान नहीं दे पाते थे। फलस्वरूप उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। स्वास्थ्य में थोड़ा सा सुधर होते ही पन्त जी मद्रास चले गए। जहाँ उन्होंने संगीत और नृत्य को केन्द्र बनाकर एक उत्सव की रचना की। पन्त जी गायन और नृत्य में इतना डूब गये कि गीत की रचना बनाते-बनाते ही उसकी धुन स्वतः ही बन जाया करती थी। इसी बीच वहाँ रहते हुए वे अरविन्द जी के सम्पर्क में आए और उन्होंने पन्त जी को ‘लाईफ डिवाइन’ का प्रथम भाग पढ़ने को दिया जिसे पढ़कर उनके जीवन की दिशा ही बदल गई। इसके बाद पंत जी को विदेश भ्रमण का शुअवसर प्राप्त हुआ जिसने उनके ज्ञान में अपेक्षाकृत वृद्धि हुई। मंजिल दर मंजिल पार करते हुए पन्त जी ने वह मंजिल प्राप्त कर ली जिसको विरले ही प्राप्त कर पाते हैं। और अन्त में उत्तराखण्ड की प्रकृति से पे्ररणा प्राप्त छायावाद कविता के चितेरे पन्त जी सांसारिक संघर्षेां से जूझते हुए सन् 1977 को अनन्त की खोज मे इस भौतिक संसार से हमेशा के लिए चले गए।