सालों तक हिमालय का भ्रमण और अनुसंधान करने वाले स्वामी प्रणवानन्द
रहस्यों और वैज्ञानिक तथ्यों का पता लगाने के लिए मानसरोवर तक में चलायी थी यन्त्र चालित ‘ज्ञान नौका’
23 बार कैलाश और 25 बार मानसरोवर की थी परिक्रमा
लेखन/संकलन: त्रिलोक चन्द्र भट्ट
स्वामी प्रणवानन्द नाम के अनुसार केवल आघ्यात्मवाद की दिशा में अग्रसर या ईश्वरीय ज्ञान के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने वालों की श्रेणी में ही अपना नाम अंकित नहीं करा गए वरन्ा सतलुज, कर्णाली, ब्रह्मपुत्रा तथा सिन्धु नदियों के उद्गम का पता भी लगा गए। गृहस्थी छोड़कर सन्यासी बने प्रणवानन्द स्वामी विश्व की वह शख्शियत हैं जिन्होंने अपने जीवन काल में 23 बार कैलाश और 25 बार मानसरोवर की परिक्रमा कर कीर्तिमान ही स्थापित नहीं किया अपितु समुद्र की सतह से 14,950 फीट की ऊँचाई पर मानसरोवर झील के रहस्यों और वैज्ञानिक तथ्यों का पता लगाने के लिए यन्त्र चालित ‘ज्ञान नौका’ से नौका अभियान किया ही उन्होंने 1942 में मानसरोवर के पश्चिम में 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित राक्षस ताल की परिक्रमा रबड़ की नौका द्वारा पूर्ण कर इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया। इसी दौरान स्वामी प्रणवानन्द को 19 करोड़ वर्ष पुराना समुद्री जीवाश्म मिला था। उन्हें कुछ ऐसे जीवाश्म भी मिले जो आज ज्योलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के संरक्षण में हैं। ये ‘इंडियन ज्योग्राफिकल सोसायटी’ के आजन्म सम्मानित सदस्य भी रहे।
उत्तराखण्ड की वादियों में सन्यासियों का जीवन जीने वाले स्वामी प्रणवानन्द के बचपन का नाम कनकदण्डी वैंकट सोमायाजुलू था। इनका जन्म आन्ध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले में हुआ था। अध्ययन, नौकरी, स्वाधीनता संग्राम में भागीदारी और गृहस्थी में रमने के बावजूद जीवन में बढ़ते हुए कदम इनको अध्यात्म की ओर ले गए और हिमालय की ओर रूख कर वे कुमाऊँ में स्थित नारायण स्वामी आश्रम पहुँचे। तदनन्तर ये वैज्ञानिक स्वामी ज्ञानानन्द महाराज से दीक्षा ग्रहण कर स्वामी प्रणवानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए।
सन् 1919 में स्वामी जी ने डी0ए0वी0 कॉलेज लाहौर से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद रेलवे में उनकी नौकरी लग गई लेकिन नौकरी करने के बावजूद भी उनके
हृदय के किसी कोने में देश-प्रेम की ज्वाला दहकती रही। अन्ततः महात्मा गाँधी द्वारा असहयोग आंदोलन का आह्वान करने पर वे अपनी नौकरी छोड़कर स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। सन 1926 तक वे राष्ट्रीय कॉंग्रेस के एक निष्ठावान कार्यकर्ता के रूप में जनकल्याण के कार्यों में हिस्सा लेते रहे। धीरे-धीरे उनके मन में घर-गृहस्थी से विरक्ति के भाव जागृत होने लगे। अन्ततः सन्यास धारण कर 1928 में कश्मीर, लदाख, गर्ताेक होते हुए कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पर निकल गये। आध्यात्मिक साधना के साथ वैज्ञानिक खोज में बराबर की रूचि रखने वाले स्वामी प्रणवानन्द ने 23 वर्षों तक इस क्षेत्र का व्यापक भ्रमण और अनुसंधान किया।
भावनगर के तत्कालीन राजा कृष्ण कुमार से उपहार में प्राप्त यन्त्र चालित स्टील की नौका से सन् 1942 में उन्होंने उस समय मानसरोवर में नौका अभियान चलाया जब इस निर्जन और हिमाच्छादित क्षेत्रा में पहुँचना दुरूह और जोखिम भरा था। मानसरोवर के जल और तल की जाँच करने वाले स्वामी जी ने ही इसका क्षेत्रापफल 360 वर्ग किलोमीटर और गहराई 300 पफीट बताई। 18,400 पफीट की ऊँचाई पर स्थित रूपकुण्ड में भी सन् 1946 में उन्होंने रबड़ की नाव पर अभियान किया। जहाँ प्रणवानन्द को सोने-चाँदी के कंगन युक्त नर-नारियों के कंकाल मिले।
स्वामी प्रणवानन्द की पंडित जवाहर लाल नेहरू जी से बहुत घनिष्ठता थी। उनकी पुस्तक ‘कैलाश मानसरोवर’ की भूमिका नेहरू जी ने ही लिखी थी। अपनी पैनी दिव्य दृष्टि के द्वारा स्वामी जी ने चीन और तिब्बत के युद्ध की सम्भावना से 1954-55 में नेहरू जी को पूर्व में ही अवगत करा दिया था। उनकी प्रसिद्धि और लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता कि जिस समय किसी अबौद्ध सन्यासी का बौद्ध विहार में टिकना सहज नहीं था उसी समय प्रणवानन्द ने मानसरोवर के किनारे स्थित ‘थूगोल हो’ बौद्ध विहार में काफी समय व्यतीत किया। ‘मंत्र’ पर स्वामी जी ने व्यापक खोज की और प्रमाणों के आधार पर सिद्द्ध कर उस ‘श्रीयंत्र’ को चमोली जनपद के प्रसिद्ध सिद्धपीठ नौटी गाँव में स्थापित कर दिया। उनकी खोजों में मुख्य रूप से तिब्बत की परित्यक्त गुफाओं, बस्ती का पुरातात्विक अध्ययन, बरारी प्रागैतिहासिक काल की गुफाओं की खोज और पुरावानस्पतिक तत्वों की पहचान शामिल हैं। सन्ा 1928 से लेकर ब्रह्मलीन होने के समय तक उन्होंने अपना अधिकांश समय अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ में व्यतीत किया। वहाँ वे राम दत्त चिलकोटी, जनार्दन पुनेड़ा और सिल्थाम के मकान में रहे।
विवाहित होते हुए भी पत्नी, पुत्र और भौतिक सुखों को त्यागकर उस वीतरागी सन्यासी ने अपना अपना सम्पूर्ण जीवन महत्वपूर्ण खोजों और हिमालय की सेवा में अर्पित कर दिया। सच्चे संत के रूप में मद, लोभ, स्वार्थ का परित्याग कर निश्छल भाव से जगत कल्याण की कामना करते हुए अपना सारा जीवन प्राणी मात्र की भलाई में लगा देने वाले कभी भी अपने हितों को प्राथमिकता नहीं देते। साधारण परिधान, भोजन, और आवास में ही ऐश्वर्य की अनुभूति तथा आत्मिक शान्ति महसूस करते हुये धार्मिक तथा आध्यात्मिक साधनाओं में लीन रह कर मानव के बदलते आचार, विचार को सही राह प्रदान करने वाले स्वामी प्रणवानन्द जैसे संतों के आत्मबल के कारण भारत में आज भी धर्म और ज्ञान की निर्मल गंगा प्रवाहित हो रही है। संतो का आत्मबल और तपोबल जब सद्कार्याे के लिए उपयोग होता है तो उस क्षेत्र में ज्ञान और विज्ञान दोनों तरक्की करते हैं।
स्वामी प्रणवानन्द से स्वयं ज्ञान और विज्ञान के माध्यम से 1942 में मानसरोवर यात्रा के दौरान जो अन्वेषण अभियान पूरा किया वह साधनों की अनुपलब्ध्ता के कारण उस युग में सम्भव नहीं था।