हरिद्वार में राज्य आन्दोलन के बिखराव के लिए नेता रहे जिम्मेदार

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट
वर्ष 1994 में हरिद्वार के प्रवासी उत्तराखंडियों को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन ओबीसी आरक्षण के विरोध ने उत्तराखण्ड राज्य निर्माण की माँग के लिए एकजुट किया था। एकजुटता की ऐसी घटना इससे पूर्व हरिद्वार के इतिहास में कभी घटित नहीं हुई। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि उत्तराखण्ड राज्य की माँग के लिए विभिन्न दलों, संगठनों और विचारधाराओं के लोगों का जिस तेजी से एकीकरण हुआ, उसी तेजी से नेताओं की अदूरदर्शिता और महत्वाकांक्षाओं के कारण वह धरातल पर भी आ गया था।
तब संख्या बल में कमजोर रहा आन्दोलन का मुख्य सूत्रधार उत्तराखण्ड क्रांति दल हरिद्वार में अपना मजबूत संगठन खड़ा नहीं कर सका। उस समय आन्दोलन आरम्भ कर उसेे व्यापकता प्रदान करने के लिये अन्य संगठनों को साथ जोड़ना, उक्रांद की मजबूरी थी, इसीलिए उसे अपना झंडा-डंडा छोड़ कर ‘‘उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति’’ के रूप में सर्वदलीय मंच बनाना पड़ा। राज्य आन्दोलन की गतिविधियों के चलने के दौरान ही उत्तर प्रदेश सरकार की ओबीसी आरक्षण की घोषणा से समाज के अधिसंख्य अनारक्षित वर्गों का आहत होना आन्दोलनकारियों के लिये वरदान साबित हुआ। अनेक समाजिक और राजनैतिक संगठनों के ‘‘उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति’’से जुड़ने से हरिद्वार ऐतिहासिक आन्दोलन का केंद्र बिन्दु बना और यहाँ उत्तराखण्ड राज्य के लिए बड़ा आन्दोलन चला।
किसी भी बड़े जन आन्दोलन को चलाने के लिए प्रमुख आन्दोलनकारी शक्तियों और घटकों के मध्य दीर्घकालीन समन्वय की आवश्यकता होती है। आन्दोलन का नेतृत्व उक्रांद के उन स्थानीय अनुभवहीन नेताओं ने अपने हाथों में लिये रखा, जिन्होंने इससे पूर्व कभी पचास लोगों का भी नेतृत्व नहीं किया था। वे हरिद्वार और रूड़की में उमड़े हजारों लोगों की भीड़ का नेतृत्व हाथ में आने पर फूले नहीं समाये। इस अति उत्साह और जरूरत से अधिक आत्मविश्वास के कारण नेतृत्वकर्ता यह भूल गये कि उनके पीछे चलने वाली हजारों-लाखों की भीड़ किसी व्यक्ति के पीछे नहीं बल्कि राज्य निर्माण से जुड़ी अपनी भावनाओं के समुद्र में बह रही है। भीड़ को अपनी ताकत समझने वाले नेताओं की भूल ने उनकी राजनैतिक परिक्वता और अनुभव की कमी को तो उजागर किया ही सहयोगी संगठनों और अन्य घटकों को भी अपने से विमुख किया। यही कारण रहा कि आन्दोलनकारी ताकतों में भीतर ही भीतर असंतोष पनपा और एक-दूसरे पर दोषारोपण के साथ मुजफ्फरनगर कांड के कुछ ही दिनों बाद यह असंतोष सड़कों पर आ कर आन्दोलन और आन्दोलनकारियों के बिखराव का कारण बनता चला गया।
दरसल आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले प्रमुख लोेगों में अधिकांशतः नेता बीएचईएल जैसी औद्योगिक प्रवृत्ति अथवा अन्य संस्थानों के वे कामगार रहे जिनके कार्य की प्रवृित्त तकनीकी थी। मजदूर वर्ग के नेताओं ने अच्छे बुद्धिजीवी, चिन्तक, विचारक और कुशल नीति निर्धारकों से दूरी बना कर आन्दोलन की कमान अपने हाथों में ही लिये रखी। श्रमिक परिवेश में रहने के कारण इनकी मनोवृत्ति पृथक राज्य आन्दोलन जैसे ‘जन आन्दोलन’ से जुड़े बुद्धिजीवियों तथा स्थानीय लोगों की भावनाओं को नहीं समझ सकी। यह एक ऐसी चूक थी जिसने आन्दोलन के प्रति लोगों के जुड़ाव को उसी तीव्रता के साथ घटाया जिस तीव्रता के साथ लोगों का आन्दोलन के साथ जुड़ाव हुआ था।
शीर्ष और प्रमुख पदों पर काबिज नेताओं द्वारा आम लोगों और कार्यकर्ताओं की भावनाओं को न समझने तथा उनका सम्मान न करने से आन्दोलन से जुड़े लोगों की विचारधारओं में आपस में ही टकराव हुआ। जल्दी ही यह टकराव पहले उत्तराखंड क्रांति दल और बाद में उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के विभाजन का कारण बना। उसके बाद अलग-अलग धड़ों में बंटे आन्दोलनकारी संगठनों के कार्यक्रमों की एकरूपता भी समाप्त हो गई। किन्तु नेताओं ने इससे भी सबक नहीं लिया बल्कि अपने वजूद को जिन्दा रखने के लिए और अधिक अक्रामक होकर दूसरे घटकों, व्यक्तियों व नेताओं की बुराई और दुष्प्रचार करते हुए आन्दोलनकारियों को ही गुमराह करना प्रारंभ किया जो सिलसिला राज्य बनने के बाद भी बदस्तूर जारी रहा।
एक सरकारी अभिलेख के अनुसार हरिद्वार जनपद में आठ हजार बच्चे, बूढ़े और जवानों ने राज्य आन्दोलन भी भागीदारी की थी। चिन्हीकरण प्रक्रिया में साक्ष्यों के अभाव में बहुत कम लोग चिन्हित हुए, जिन लोगों का चिन्हींकरण किन्हीं कारणों से नहीं हुआ उनके लिये संयुक्त प्रयास करने के बजाय दो अलग-अलग संगठनों में बंटे आन्दोलनकारी व नेता अपने-अपने धड़ों में भीड़ बढ़ाने के लिए फिर जुबानी जंग में एक दूसरे के खिलापफ खड़े होकर आरोप लगाते नजर आये। इन लोगों ने इंसानियत, नैतिकता और मर्यादा की सारी सीमाएं लांघते हुए बैठकों और सभाओं में एक-दूसरे के खिलापफ विषवमन करना आरंभ किया। चिन्हीकरण प्रक्रिया में मददगार लोगों पर झूठे, निराधार और बेबुनियाद आरोप तो लगाये ही, अधिकारियों के समक्ष लिखित और मौखिक शिकायतें भी की। अपने आप को कर्मठ समाजसेवी, दूध का धुला और गंगाजल जैसा पवित्र बताने वाले तथाकथित नेताओं ने तत्कालीन बाल आन्दोलनकारियों का सार्वजनिक बैठकों व मंचो से यह कह कर अपमान किया कि ‘‘तब ये पैदा भी नहीं हुये थे और आन्दोलन के समय वे माता के गर्भ में थे’’। यह उन आन्दोलनकारियों लिये कहा गया जो बाल आन्दोलनकारी हरिद्वार ही नहीं देहरादून, कोटद्वार और रामनगर तक के जूलूस प्रदर्शनों में अपनी दस्तक दे चुके थे अनेक लोग और तमाम तस्वीरें जिसकी हकीकत बयां करते हैं। इनके दुष्प्रचार की इन्तहाँ यहीं समाप्त नहीं हुई। बल्कि उन गैर पर्वतीय मैदानी लोगों पर भी इनके द्वारा राज्य आन्दोलनकारी न होने के तंज कस कर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ की गई, जिनके कंधो का सहारा लेकर इन्होंने 1994 में हरिद्वार जनपद में आन्दोलन चलाया था।
पृथक राज्य के लिये आन्दोलन करने वालों की राज्य निर्माण के अलावा कोई अपेक्षा नहीं थी लेकिन राज्य बनने के बाद अपेक्षाएं लगातार इस कदर बढीं़ कि कल तक सिर्फ पृथक राज्य माँगने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की तरह अधिकार, सुविधाएं और सम्मान माँगने लगे। राज्य आन्दोलनकारियों के नेता अपने स्वार्थों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के लिये नये-नये सब्जबागों के साथ आन्दोलनकारियों की अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं को हवा दी और आन्दोलनकारी गुमराह होते रहे। राज्य आन्दोलनकारियों को आपस में बाँंटने वालों की करनी, कथनी का यह खेल जल्दी ही पर्दे के पीछे का विषय न होकर सबसे सामने आ गया। इसलिलिए सच को स्वीकार न कर सब्जबाग दिखाने वाले नेताओं के पीछे से आन्दोलनकारियों की भीड़ छंटने लगी। अलग-अलग गुट और संगठन बना कर अलग-अलग राग अलापे जाने लगे। कुल मिला कर खुद अपनी छिछालेदार करवा कर लोगों को यह कहने का मौका दे दिया कि ‘देखों आन्दोलनकारी आपस में ही कैसे लड़ रहे हैं’?
कोई भी नेता या व्यक्ति चंद व्यक्तियों की भीड़ खड़ी कर सोचता है कि समाज में उसकी बहुत अच्छी साख है और उसकी इज्जत बढ़ रही है जबकि सही मायने में नेता की साख चंद लोगों से नहीं बल्कि उसके कार्य, व्यवहार और आचरण से बनती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अपने आप को सर्वश्रेष्ठ समझने का दंभ भरने वालों ने हमेशा अपने समाज और अपने ही लोगों का नुकसान किया है ऐसा ही यहाँ भी हुआ है।
अगर राज्य आन्दोलन से जुड़े नेता दुष्प्रचार कर एक-दूसरे को नीचा दिखाने और लोगों को तोड़ने के बजाय जोड़ने का कार्य करते और एक मंच पर आकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ते तो राज्य आन्दोलनकारी एक मजबूत ताकत बन कर उभरते। लेकिन ‘अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग’ अलापते हुए तथाकथित नेताआंे ने आपसी प्रतिद्वंता में अपने समाज और अपने ही लोगो को नुकसान पहुँचाया।

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