उत्तराखण्ड में तीन लोगों के पास रहा ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे गौरवपूर्ण सम्मान

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

उत्तराखण्ड का इतिहास यहाँ के लोगों की वीरता, शौर्य, पराक्रम एवं बलिदानों की गौरव गाथा से भरा पड़ा है। अदम्य साहस और बहादुरी के बूते यहाँ के सैनिकों ने विश्व के अनेक युद्धों में विशिष्ठ सम्मान प्राप्त किया है। इन सैनिकों को विश्व का सर्वश्रेष्ठ योद्धा भी माना जाता रहा है। अनेक पुरस्कार ऐसे हैं जिनको उत्तराखण्ड में निवास करने वाले व्यक्तियों ने प्राप्त किये हैं लेकिन उनको भारत या उत्तराखण्ड के खाते में नहीं जोड़ा गया है। उन्हीं में से ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदान किया जाने वाला सर्वाेच्च सैनिक सम्मान झ्विक्टोरिया क्रॉसश् भी एक है। भारत की स्वाधीनता से पूर्व विक्टोरिया क्रॉस बहादुरी के लिए दिया जाने वाला ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे गौरवपूर्ण सम्मान था। 29 जनवरी, 1856 को एक राजाज्ञा के माध्यम से रॉयल वारन्ट द्वारा स्थापित इस पुरस्कार का मकसद तत्कालीन क्रिमियन युद्ध लड़ रहे बहादुर सैनिकों को सम्मानित करना था। विक्टोरिया क्रॉस क्रिमियन युद्ध के दौरान सेवास्टोपोल में जब्त की गई तोपों के काँसे से बना था। जिसके डिजाईन का चयन स्वयं महारानी विक्टोरिया ने किया था। क्रॉसनुमा धातु के पट् पर किरीट के नीचे अंग्रेजी में ‘पराक्रम के लिए’् लिखा होता था। उसके ऊपर धातु की आड़ी पट्टी के पीछे क्रास पाने वाले वीर का नाम, पद और यूनिट का नाम अंकित होता था। क्रॉस के पीछे उस कारनामे, जिसके लिए सैनिक विशेष को सम्मान दिया जाता था, उकेरी होती थी। इस सम्मान को प्राप्त करने के लिए पद, प्रतिष्ठा, लम्बी सेवा, गहरे घाव जैसे मापदण्ड नगण्य थे। कोई भी सैनिक अपनी बहादुरी के दम पर इसे हासिल कर सकता था। सन्‌ 1912 से पहले विक्टोरिया क्रॉस से किसी भारतीय को सम्मानित नहीं किया गया। काँसे का यह क्रास 1350 बार वितरित किया गया। इसे पाने वालों में सबसे कम उम्र का सैनिक 15 वर्ष और सबसे उम्रदराज 61 वर्ष का था। 1914 से 1947 तक 40 भारतीय जवानों को यह सम्मान दिया गया। जिनमें नायक दरबान सिंह, रायपफलमैन गबर सिंह और नेपाली मूल के अल्मोड़ा में बसे कैप्टन गजे ध्ले भी शामिल थे। कैप्टन गजेघले के मूलतः नेपाली होने के कारण उनको मिले विक्टोरिया क्रॉस को भारत का उत्तराखण्ड के खाते में नहीं जोड़ा जाता।
पर्वतों के ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों, गहरी कन्दराओं, और वहाँ की तपोभूमि सदियों से अपनी वीरता की दास्तानें अपनी जुबानी कहती आयी है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि यहाँ के सिपाहियों ने भारत को वह सम्मान दिलाया है जिससे आज देशवासियों का सिर गर्व से ऊँचा है। इस श्रेय से गढ़वाल राइफल्स और उसके बहादुर जवान अछूते नहीं हैं। गढ़वाल रायपफल की स्थापना से लेकर आज तक गढ़वालियों ने हमेशा यह सिद्ध किया है कि वे सबसे बहादुर योद्धा हैं और आजादी के लिए जिस तरह से उन्होंने कुर्बानियाँ दी, वह उनके शेरदिल होने का सबूत है।
1914 में फ्राँस के फेस्टुबर्ट व नोव चौपल में गढ़वाली वीरों की वीरता और अनुशासन का कोई सानी नहीं था। गढ़वाल राइफल्स एक अनुशासित व होशियार रेजीमेन्ट है। इसकी दोनों ही बटालियनों ने इस युद्ध में जो वीरता दिखाई उसने साबित कर दिया कि वे भारत में अद्वितीय हैं। वैसे तो जान पर खेलकर देश की रक्षा करने वाले वीरों की सूची लम्बी है लेकिन विशेष रूप से इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों से अपनी वीरता की गाथा दर्ज करवाने वाले न0 1909 नायक दरबान सिंह नेगी को आज गढ़वाली ही नहीं पूरे भारत के लोग एक जाबांज सैनिक के रूप में याद करते हैं। 4 मार्च 1883 को जन्मे दरबान सिंह को पहाड़ के कष्टसाध्य जीवन ने साहसी और निर्भीक बनाया। बचपन में देशभक्ति, साहस और हिम्मत का जो पाठ पढ़ने को मिला उससे उन्हे हर मुसीबत का बहादुरी से मुकाबला करने की प्रेरणा मिली। 19 वर्ष की आयु में जब 4 मार्च 1902 को वे सेना में भर्ती हुये तो उन्होंने युद्ध के मैदान में दुश्मन से भी अपनी बहादुरी का लोहा मनवा लिया।
प्रथम विश्व युद्धमें असाधारण वीरता दिखाने के लिए चमोली गढ़वाल की कड़ाकोट पट्टी के कफाड़तीर गाँव के निवासी दरबान सिंह नेगी 39वीं गढ़वाल रायफल्स की नम्बर एक बटालियन की वह शखिसयत रहे हैं जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने अपने देश के सर्वाेच्च सैनिक सम्मान झ्विक्टोरिया क्रासश् से सम्मानित किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 23/24 नवम्बर 1914 की रात्री को फ्राँस में पफेस्टूवर्ट के निकट युद्ध के मोर्चे पर जर्मनी के विरूद्ध बहादुरी से लड़ते हुए दुश्मन की टुकड़ी को आगे बढ़ने से रोकने वाले दरबान सिंह ब्रिटेन के सम्राट के हाथों विक्टोरिया क्रास प्राप्त करने के वाले दूसरे भारतीय और पहले उत्तराखण्डी थे। जब दुश्मन ब्रिटिश लाइन पार कर गया तो राइफल्स को आदेश मिला कि उन्हें रोका जाए। रेजीमेन्ट उस समय ब्रिटिश खंदको में घुस आये शत्राु को बाहर निकाल कर उनका सफाया करने के अभियान में लगी थी। नेगी पहले सिपाही थे जो शत्राु की गोलाबारी में सिर और हाथों पर गहरे जख्म होने के बावजूद अपनी जान की परवाह किये बिना दुश्मनों के दस्तों पर टूट पड़े और आग व शोले उगलती मशीनगनों के सामने जाकर मुकाबले के लिये खड़े हो गए। रक्त से लथपथ और घायल जिस्म के साथ उन्होंने वह लड़ाई लड़ी। सम्राट जार्ज पंचम ने स्वयं उन्हें सम्मानित किया था। उनकी वीर गाथा का उल्लेख 7 दिसम्बर 1914 के लन्दन गजट में भी किया गया है।
अपने फर्ज के लिए मर मिटने वाले ऐसे ही लोगों में से गढ़वाल रायफल्स के नम्बर 1685 रायफलमैन गबर सिंह का नाम भी सन्‌ 1914 से इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। मरणोपरान्त ब्रिटिश हुकूमत के सर्वाेच्च सैनिक सम्मान ‘विक्टोरिया क्रास’ से सम्मानित गबर सिंह का जन्म टिहरी जिले की वमुन्ड पट्टी में चम्बा के निकट मज्यूड़ गाँव में 18 अप्रैल सन्‌ा 1895 ई0 में एक किसान परिवार में बद्री सिंह नेगी एवं श्रीमती सावित्री देवी के यहाँ हुआ था। बाल्यवस्था में ही सिर से पिता का साया उठ जाने पर घर-परिवार की जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए इन्होंने प्रताप नगर के राजमहल में नौकरी कर ली। सन्‌ 1912 में मात्र 17 वर्ष की आयु में इनका विवाह मखलोगी पट्टी के छाती गाँव की सतूरी देवी से हुआ। सन्‌ा 1913 तक इन्होंने प्रताप नगर राजमहल में नौकरी की। प्रथम विश्वयुद्ध की आशंका बढ़ने पर जब अंग्रेजों ने विभिन्न जगहों पर सेना की भर्तियाँ आरम्भ की तो अक्टूबर 1913 में लैंसडाउन पहुँच कर गबर सिंह भी गढ़वाल रायपफल्स की 2/39 बटालियन में राइफलमैन के रूप में भर्ती हो गये। इन दिनों युद्ध की विभीषिका में पफँसे यूरोप में जर्मनी ने ब्रिटिश हुकूमत को झकझोर कर रख दिया था। अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने स्वशासित क्षेत्रों से यूरोप के मोर्चे के लिए सैनिक टुकड़ियाँ भेजनी शुरू कर दी। इसी कड़ी में गढ़वाल रेजीमेंट की कम्पनियाँ भी रवाना की गई।
जब गढ़वाल रेजीमेंट की दूसरी बटालियन यूरोप गई तो चन्द्र सिंह गढ़वाली को भी उनके साथ भेजा गया। गढ़वाली ब्रिगेड 1/29-2/39 बी बटालियन को 2 सितम्बर 1914 को रवाना किया गया। यह सैनिक 13 अक्टूबर 1914 को फ्राँस के बंदरगाह मार्सेल्स पहँुच कर अपने अपने मोर्चे पर डट गये। युद्ध के दौरान सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण लिली जैसे विशाल शहर के मुख्य द्वार न्यू चौपल के मोर्चे को फतह करना अंग्रेजों के लिए महत्वपूर्ण था। इस मोर्चे को कब्जाने हेतु रणनीति तैयार करने के लिए सैन्य अधिकारियों ने मंत्रणा करने के बाद गढ़वाल रायफल्स को सबसे आगे भेजने का निर्णय लिया। 10 मार्च 1915 की सुबह मुँह अंधेरे ही कड़कड़ाती ठंड और कोहरे के बीच अपने बुलन्द हौसले के साथ गढ़वाली सैनिकों ने आगे बढ़ना शुरू किया। शत्रु पक्ष की भयंकर गोलीबारी के बीच अपने प्राणों की परवाह न कर उसके द्वारा लगाये गये अवरोधों को हटाते हुए गढ़वाली सैनिक चीते जैसी फुर्ती के साथ दुश्मन पर टूट पड़े। दुश्मन की भारी गोलाबारी में 350 सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। इसमें 2/39 गढ़वाली सैनिक टुकड़ी का कमाँडर भी मारा गया। लेकिन गढ़वाली सैनिकों के आगे बढ़ने का क्रम नहीं रुका जब दोनो पक्षों के सैनिक इतने निकट आ गये कि रायफल से गोली चलाना असम्भव हो गया तो सैनिक खुखरियाँ और संगीने लेकर शत्रु पर टूट पड़े।
गढ़वाली सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व गबर सिंह ने सँभाल रखा था। इसी बीच गबर सिंह की नजर उस जर्मन सैनिक पर पड़ी जो अपनी ब्रेनगन से अंधाधुंध गोलियाँ बरसा रहा था। ब्रेनगन की मार से भारतीय सैनिकों का बच निकलना मुश्किल जान कर गबर सिंह साहस और बहादुरी का परिचय देते हुए कोहनियों के बल जमीन पर रेंगते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ से फायरिंग चल रही थी। गबर सिंह ने पफुर्ती के साथ ब्रेनगन चला रहे व्यक्ति को दबोच लिया और गन का रूख जर्मन सैनिकों की ओर मोड़ कर उन पर फायर खोल दिया। इस अप्रत्याशित हमले में सैकड़ों जर्मन सैनिक मारे गये। अन्ततः शत्रु की सेना को आत्म समर्पण के लिए मजबूर होना पड़ा। न्यू चेपल्स के इस युद्ध में भारतीयों सैनिकों ने भारी मात्रा में राइफलें और गोली-बारूद जब्त किया। दोनों ओर से हुई जबरदस्ती गोलाबारी में रायफलमैन गबर सिंह भी बुरी तरह घायल हो गया। युद्ध में लहुलूहान गढ़वाल के इस वीर सपूत की अपने पड़ाव की ओर लौटते हुए मृत्यु हो गई। न्यू चेपल्स के युद्ध में असाधरण वीरता, अद्वितीय साहस और पराक्रम के लिए गबर सिंह नेगी को मरणोपरान्त ब्रिटिश सेना का सम्मान ‘विक्टोरिया क्रास’ प्रदान किया गया। युद्ध की समाप्ति के बाद यह सम्मान दिल्ली में आयोजित एक भव्य समारोह में तत्कालीन वायसराय द्वारा गबर सिंह की विधवा पत्नी सतूरी देवी को प्रदान किया गया।
गबर सिंह के जन्म स्थान चम्बा के निकट सन्‌ा 1925 में भारत सरकार ने गबर सिंह नेगी का स्मारक स्थापित किया। इस अवसर पर कुमाऊँ के कमिश्नर और टिहरी नरेश सहित सैकड़ों लोग उपस्थित थे। प्रतिवर्ष 12 अप्रैल को यहाँ उनकी स्मृति में एक मेले का आयोजन किया जाता है। जहाँ गढ़वाल रेजीमेन्ट सेन्टर लैन्सडाउन से एक सैन्य टुकड़ी आकर इस अमर शहीद को श्रद्धांजलि अर्पित करती है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अदम्य शौर्य का प्रदर्शन कर (विक्टोरिया क्रास) प्राप्त छावनी क्षेत्रा अल्मोड़ा में स्थायी रूप से निवास करने वाले ऐसे ही लोगों में से कैप्टन गजेघले का नाम आज भी बड़े गर्व के साथ लिया जाता रहा है।
मूलतः नेपाल में गोरखा जिले के बारपक गाँव में सन्‌ 1916 को जन्मे गजे धले 1934 में गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) में गोरखा रेजीमेन्ट में भर्ती हुए थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारतीय सेना ब्रिटेन की तरपफ से लड़ रही थी। इस दौरान गजे घले को जापानी सेना से मुकाबले के लिए म्याँमार (बर्मा) के मोर्चे पर भेजा गया। इनके पहुँचने से पूर्व जापानी सैनिकों ने म्याँमार के सर्वाेच्च शिखर (बादशाह हिल) पर कब्जा कर लिया। इस चोटी को मुक्त कराने के लिए दोनों पक्षों के बीच भयंकर गोलाबारी हुई। युद्ध में भारतीय पक्ष के कई सैनिक हताहत हुए और अनेक गम्भीर रूप से घायल हुए थे। अन्त में प्लाटून कमान्डर गजे घले के नेतृत्व में 2/5 रायल गोरखा रेजीमेन्ट की 16वीं बटालिय ने बादशाह हिल पर धावा बोला। भीषण संषर्ष में में काफी सैनिक वीरगति को प्राप्त हुये। घमासान युद्ध में न0 6816 हवलदार गजे घले स्वयं भी घायल हुये लेकिन बिना हिम्मत हारे वे दुश्मन से लोहा लेते रहे। लगातार लड़ते-लड़ते गोली बारूद समाप्ति की ओर था एक घायल सैनिक के पास बचे हथगोले को लेकर उन्होंने जैसे ही दुश्मन पर फेंका उसके ध्माके से कई सैनिक मारे गये और जो शेष रहे वे जान बचा कर भाग निकले।
युद्धभूमि में बेमिसाल बहादुरी और शौर्य का प्रदर्शन करने पर 1943 में इन्हें ब्रिटेन का सर्वाेच्च सैनिक सम्मान प्रदान किया गया। बाद में ये प्रोन्नत होकर कैप्टन के रैंक तक पहुँचे। 1961 में 2/5 गोरखा बटालियान को काँगो भेजा गया तो गजे घले भी साथ थे। 1963 तक कैप्टन गजघले भी पल्टन के साथ दो वर्ष तक वहीं रहे। बटालियन के काँगो से भारत वापसी के बाद उसे अल्मोड़ा भेजा गया। 31 वर्षों की शानदार लम्बी सेवाओं के उपरान्त 1965 में कैप्टन गजे घले ने यहीं से अवकाश ग्रहण किया। सेवा निवृत्ति के उपरान्त ब्रिटिश सरकार उनको आजीवन पेन्सन देती रही। सन्‌ 2000 में यह बहादुर योद्धा हमेशा के लिए चिरनिद्रा में लीन हो गया।

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