Wednesday, October 9, 2024
NewsUttarakhand

UTTARAKHAND मुद्दा मूल निवास का : अपनी ही जमीन पर छले और ठगे गये हैं मूल निवासी

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट
देश में मूल निवास को लेकर करीब 75 साल पहले, प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन जारी हुआ था। इसके मुताबिक देश का संविधान लागू होने के साथ ही वर्ष 1950 में जो व्यक्ति, जिस राज्य का निवासी था, वह उसी राज्य का मूल निवासी होगा। उत्तराखण्ड के लोग, समय-समय पर विभिन्न मंचों से मूल निवास की इसी व्यवस्था को लागू करने की मांग उठा रहे हैं। उनकी आज भी यही मांग है कि इसकी कट ऑफ डेट 26 जनवरी, 1950 रखी जाय। यानि, जो व्यक्ति उस तारीख को उत्तराखण्ड में निवास करते थे, वही (और उसकी पुश्तें) ही यहां के मूल निवासी मानी जायें।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ राज्य गठन के साथ ही मूल निवास के नाम पर उत्तराखण्ड मंे जो राजनीतिक खेल खेला गया उसमें यहां के लोग अपनी ही जमीन पर छले और ठगे गये हैं। नई पीढ़ी अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं! लोग आन्दोलित हैं! आक्रोशित हैं! कारण स्पष्ट है- पिछली सरकारों की नीति, और उत्तराखण्ड हाईकोर्ट का, 2012 का वह आदेश!, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि 9 नवंबर 2000, यानी राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है, उसे यहां का मूल निवासी माना जाएगा।
जब कोर्ट का यह फैसला आया तो कांग्रेस सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया था। वह न तो अपील में गई और न ही उसने लोगों की पीड़ा को समझा। इससे पहले उत्तराखंड राज्य बनने के साथ ही राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने, राज्य में मूल निवास और स्थायी निवास को एक मानते हुए, इसकी कट ऑफ डेट वर्ष 1985 तय कर दी थी। तब उठे छुट-पुट विरोध के स्वर, कुछ दिन बाद ही शांत हो गये थे। लेकिन बीते कुछ वर्षों से अपने सुनहरे भविष्य की बाट जोह रही नई पीढ़ी को मूल निवास, और स्थायी निवास की प्रक्रिया से गुजरना पडा़ तो उसके सामने जमीनी हकीकत साामने आयी। इसके बाद ही आक्रोशित लोगों ने मूल निवास को लेकर मोर्चा खोला है।
बहुत से लोगों को तो यह भी पता नहीं है कि वर्ष 2010 में मूल निवास संबंधी मामले की सुनवाई करते समय कोर्ट ने देश में एक ही अधिवास व्यवस्था कायम रखते हुए, उत्तराखंड में 1950 के प्रेसीडेंशियल नोटिफिकेशन को मान्य किया था। लोगों का यह जानना भी जरूरी है कि वर्ष 2012 में इस मामले से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उत्तराखंड हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि 9 नवंबर सन् 2000, यानी राज्य गठन के दिन से जो भी व्यक्ति, उत्तराखंड की सीमा में रह रहा है, उसे यहां का मूल निवासी माना जाएगा। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने अदालत के इस आदेश को स्वीकार तो किया ही आगे कोई अपील भी नहीं की। उसके बाद बीजेपी की सरकार आयी, उसने भी मूल निवास के मुद्दे पर मौन ही साधे रखा। जब जब मामला गरमाया हुआ है तो सीएम साहब भी एक्शन मोड में आ गये है। कह तो रहे है कि प्रदेश में मूल निवास प्रमाण पत्र धारकों के लिए स्थायी निवास प्रमाण पत्र की बाध्यता नहीं है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे आन्दोलनकारियों के घावों पर मरहम लगेगा?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!