Sunday, September 14, 2025
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उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध मठ

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

ज्योर्तिमठ
उत्तराखण्ड के कत्यूरी शासकों की वैभवशाली संस्कृति वाली राजधानी कार्तिकेयपुर अथवा ज्योर्तिमठ का आध्ुनिक नाम जोशीमठ है। यह बदरीनाथ यात्रा मार्ग का मुख्य पड़ाव है। शीतकाल में बदरीनाथ के कपाट बन्द होने पर जोशीामठ में ही भगवान बदरीनाथ की उत्सव मूर्ति का पूजन होता है। बदरीनाथ मुख्य मार्ग पर स्थित नगर से लगभग आधा किलोमीटर की दूरी पर ज्योर्तिमठ है। सनातन र्ध्म को प्रतिष्ठित करने और धर्मिक सुव्यवस्थाओं के लिए आदि काल में भारतभूमि पर चार पीठों अथवा मठों की स्थापना की गयी थी। जिनमें ज्योर्तिमठ का प्रमुख स्थान है।
ज्योर्तिमठ, गोवर्धनमठ, श्रंगेरीमठ और शारदामठ में से सबसे पहले कार्तिक शुक्ल पंचमी युििध्ष्ठर संवत्् 2646 में यहाँ ज्योतिर्मठ का निर्माण हुआ था। ज्योर्तिमठ भवनों के मध्य स्थित शंकराचार्य गुफा में आदि शंकराचार्य को दिव्य ज्योति के दर्शन हुए थे। इस गुफा के समीप स्थित ज्योतिरीश्वर मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग वाले स्थान पर ही दिव्य ज्योति प्रज्जवलित हुई थी जो बाद में शिवलिंग के रूप मे परिवर्तित हो गयी थी। आदि शंकराचार्य ने इसी गुफा में ब्रह्म भाष्य लिखा था। आचार्य शंकर ने अपने शिष्य त्रोटकाचार्य को ज्योर्तिमठ का पहला शंकराचार्य प्रतिष्ठित किया था।
आचार्य शंकर द्वारा निर्धरित अकिार क्षेत्र के अनुसार उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कश्मीर हिमाचल और पंजाब आदि प्रान्त ज्योर्तिमठ के अन्तर्गत आते है। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद ही उत्तर में ज्योर्तिमठ, दक्षिण में श्रंगेरी मठ, पूर्व में गोवर्धन मठ तथा पश्चिम में शारदा मठ स्थापित किये गये थे।
यहाँ का नृसिंह देव मंदिर जनता की श्रद्धा का स्थल है। यहाँ एक कुआँ भी है जिसका पानी गंगा सा पवित्र माना गया है। इसकी जलधारा भूमि के अन्दर-अन्दर नृसिंह देव मंदिर के सम्मुख नृसिंह दण्ड धारा नामक नाम से गिरती है। जागर गाथाओं में प्रसंग आता है कि नृसिंह देव ने खाण्डा की चोट से यहाँ पर मंत्र शक्ति से जलधारा निकाली थी। यहाँ पर बड़ा यज्ञ कुण्ड था। नृसिंह के भैरवों में से तिमुंडिया भैरव पद है। प्राचीन वासुदेव नाम का मंदिर है। जिसमें आदमकद सुन्दर विष्णु की मूर्ति स्थापित है। नरसिंह मंदिर में छोटी सी एक नृसिंह देव की आभासात्मक मूर्ति है। नृसिंह देव का भोग के रूप में चावल चढ़ता रहा है। अब भी यहां खिचड़ी बनती और बँटती है। मंदिर के अन्दर बदरीनाथ मूर्ति, नृसिंह देव की छोटी सी काली शिला की अद्भुत मूर्ति है। कहा जाता है कि जब नृसिंह देव जोशीमठ आया तब कत्यूरी राजा ने भयभीत होकर उसेे जोशीमठ का स्वर्ण सिंहासन एक ताम्र पत्र में लिखकर दान में दे दिया। राजा नृसिंह देव ने कत्यूरी राजा को यहां से हटाकर कत्यूर घाटी राम गंगा क्षेत्र में राज्य करने की आज्ञा दी। जोशीमठ राजधानी होने के कारण इस मंदिर में स्वर्ण मूर्तियाँ रही होंगी। यहाँ पर स्वर्ण सिंहासन भी था लेकिन सब आक्रमणकारी लुटेरे ले गये।
नृसिंह मंदिर में जाते समय पहले कुछ और भी मंदिर हैं जिनमें वासुदेव-अष्टभुज गणेश की दुर्लभ मूर्ति मण्डप ब्रह्मा-रूद्र सूर्य-इन्द्र-नवदुर्गा मंदिर है। काली की पूजा में बलि की प्रथा थी। जिसके लिए एक पाषाण चक्र शिला थी। यहाँ पहले वासुदेव मंदिर बहुत विशाल था। आज भी मंदिर का क्षेत्रफल देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि मंदिर के बाहर भी प्रदक्षिणा के लिए विशाल मैदान रहा होगा। कत्यूरी राजाओं की झाली माली देवी का मंदिर घ्वस्त है। इनके बाद प्रांगण है जिसके प्रारम्भ में तिमुण्डिया देवता की स्थान है। इसकी पूजा के बाद यहाँ से बद्रीनाथ की मूर्ति बदरीनाथ ले जाते हैं।
कालीमठ
गढ़वाल के प्रसिद्ध सिद्धपीठों में कालीमठ का प्रमुख स्थान है। इस पवित्र स्थान को कालिदास की जन्म स्थली एवं साधना-सिद्धि की भूमि भी माना गया है। यहाँ महाकाली, महासरस्वती, और महालक्ष्मी के प्राचीन मंदिरों के अलावा गौरी शंकर, कालीश्वर महादेव, सिद्धेश्वर महादेव, पांडवकाली, भैरवनाथ, अघोर काली में मंदिर हैं। कालीमठ में अखण्ड ध्ूानी भी जलती रहती है जिसकी राख को श्रद्धालु अपने मस्तक पर लगाते हैं। महालक्ष्मी मंदिर के गर्भगृह में महालक्ष्मी की पीतल से निर्मित तथा महासरस्वती मंदिर के गर्भगृह में पाषाण मूर्ति है।
देवताओं ने दानवों के अत्याचारों से दुखी होकर जब भगवान शिव की शरण में में जाकर राक्षसों से मुक्ति का उपाय पूछा तो शिव ने उन्हें शक्ति की उपासना करने को कहा। तब देवताओं ने रक्तबीज नामक दैत्य के वध की कामना से भगवती काली की तपस्या की थी। देवताओं की उपासना से प्रसन्न होकर काली ने उन्हें अभयदान दिया। ऐसा भी कहा जाता है कि शक्ति ने काली के रूप में यहाँ से लगभग 4 किलोमीटर दूर ‘कालीशिला’ नामक स्थान पर देवताओं को दर्शन दिये। देवगणों की व्यथा सुनकर मॉँ काली ने क्रोध में एक शिला पर अपने दोना हाथ पटके जिससे उस शिला पर उनके दोनों हाथों के निशान पड़ गये। यही शिला काली शिला के नाम से प्रसिद्ध है। समुद्र की सतह से 2910 मी. की ऊँचाई पर स्थित इस देवी स्थल पर सन् 1974 में स्थानीय लोगों के सहयोग से एक भव्य मन्दिर का निर्माण किया गया है। इस स्थान को काली का उत्पत्ति स्थल बताया जाता है। माँ काली का बाल्यकाल इसी शिला के इर्द-गिर्द व्यतीत हुआ था।
महाकवि कालीदास को भी जातिच्युत करने से पूर्व कालीमठ मंदिर का पुजारी बताया जाता है। लोक मान्यताओं के अनुसार कालीमठ में ही कालीदास ने काली की उपासना की थी। एक किंवदन्ति के अनुसान राजा भोज नवरात्रों में कालीमठ और काली शिला में ब्राह्मणों को भोजन कराते थे। पटियाला के पूर्व महाराजा द्वारा नवरात्रों में यहाँ तांत्रिक अनुष्ठान करवाये जाने का भी उल्लेख मिलता है।
प्रमुख कालीमठ मंदिर में एक कुंडी है जिसके ऊपर चाँदी की चौकोर शिला रखी रहती है। यहाँ काली की मूर्ति के बजाय कुंडी की ही पूजा की जाती है। वैसे तो यहाँ पूरे साल भर भक्तों का आना जाना लगा रहता है लेकिन आषाढ़ और चेैत्र के नवरात्रों में भारी भीड़ रहती है नवरात्रों में पूजा का विशेष आयोजन किया जाता है। माँ भगवती काली की कुंडी के चारों ओर साध्ुा सन्यासी, ओर वेदपाठी ब्राह्मण दुर्गापाठ करते रहते हैं।
ऊखीमठ
केदारनाथ तथा मद्महेश्वर के गद्दीस्थल ऊखीमठ में प्राचीन शिल्पकला का ऐतिहासिक नमूना भगवान शिव का ओंकारेश्वर मंदिर है। यहाँ मान्धता की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव से उन्हें आंेकार रूप में दर्शन दिये थे। केदारनाथ के कपाट 6 महिने बन्द रहने पर केदारेश्वर की चल प्रतिमा यहीं रहती हैं और रावल यहीं भगवान की पूजा करता है। यहाँ पत्थर के चबूतरे पर हुए मन्दिर निर्माण में गढ़ी हुई पाषाण शिलाओं का प्रयोग किया गया है। यह भगवान श्रीकृष्ण और वाणासुर का युद्ध स्थल भी है। पौराणिक कथा के अनुसार कृष्ण के पौत्र प्रद्युम्न के बेटे अनिरूद्ध की सुन्दरता पर मुग्ध होकर बाणासुर की पुत्री ऊषा ने यहाँ छिपकर अनिरूद्ध से विवाह किया था। वह एक महल बनवा कर गुप्त रूप से अनिरूद्ध से यहीं मिला करती थी। ऊखीमठ में मान्धता, चित्रालेखा, पार्वती, ऊषा, नवदुर्गा, अनिरूद्ध, वाराही, भैरव, चंडिका, गणेश, सूर्य, सत्यनाराण, घंटाकर्ण, भुकुण्ड, आदि मूर्तियाँ भी दर्शनीय है। शीतकाल में केदारनाथ और मद्महेश्वर के कपाट बन्द होने पर उत्सव डोली के यहाँ पहुँचने पर विशाल मेला लगता है।
श्रवणनाथ मठ
हरिद्वार में श्री श्रवण नाथ मठ अपनी विलक्षणता के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। इसकी स्थापना तपोनिष्ट बाबा श्री श्रवण नाथ जी महाराज ने करीब 250 साल पहले की थी। यहां पर बैठ कर बाबा जी तपस्या किया करते थे। हंत श्रवण नाथ महाराज ने नेपाल नरेश राजाधिराज विक्रम शाह को हरिद्वार आमंत्रित किया और यहां पावन तट पर उनके कर-कमलों से पशुपतिनाथ शिवलिंग की स्थापना करवाई। नेपाल नरेश ने यहां अपना शिलालेख भी लगवाया। यह मंदिर पूर्णरूपेण नेपाल के पशुपतिनाथ का स्वरूप माना जाता है। महंत श्रवण नाथ महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद श्री निरंजनी पंचायती अखाड़ा के महंतों ने महंत श्रवण नाथ महाराज के नाम पर पशुपतिनाथ महादेव मंदिर के इस क्षेत्र का नाम श्रवण नाथ मठ रख दिया। इस पशुपतिनाथ मंदिर का संचालन श्री निरंजनी पंचायती अखाड़ा करता है। सावन के महीने में नाग पंचमी के दिन इस पशुपतिनाथ महादेव मंदिर में रुद्राभिषेक करने का विशेष महत्व माना जाता है।

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