प्राचीन लोकभाषा साहित्य कैं बचौंणैं जरूरत

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

ब्वेलि-भाषा हर समाजकि सांस्कृतिक पछ्याण हुनि। अगर ब्वेलि-भाषाक ह्रास हुँछ या उँ विलुप्त हुंनी तो यौ सिर्फ एक ब्वेलि या भाषा विलुप्त नै हुनी बल्कि यैक दगड़ एक पूरि संस्कृति पर संकट औंछ और धीरे-धीरे उ समृद्ध समाजैकि रीति-रिवाज, परंपरा सहित पूरि सांस्कृतिक पछ्याण समाप्त है जाँछ। पहाड़ि राजनाक अभिलेख, ताम्रलेख और शिलालेख आदि यौ बातनक प्रमाण छन कि यॉं साहित्य लेखन कार्य 14वीं शताब्दी में आरंभ है गोछी। लेकिन यौ हमर दुर्भाग्य छ कि 14वीं, 15,वीं, 17वीं, व 18वीं शताब्दी में आईं भूकंप में व्यापक जन-धनैकि हानि दगढ़ याँक अधिकांश साहित्य धरती मैं दफन है गोछी। बची खुची साहित्य कैं ले 1790 बटि 1815 मध्य में ग्वरखिनैल आपण शासनकाल मैं नुकसान पुजाछ। जब ग्वरखि नेपाल ग्येई तो आपण दगढ़ यांक मस्त साहित्यले लिर्ग्येइं। जो साहित्य उनर हाथ नै लाग उकैं अंग्रेजनैल आपण राज में खुर्द-बुर्द करण में कसर नै छवेड़ि, क्ये प्रकारैल याँक स्थानीय लोगनेक पास सुरक्षित बचीं साहित्य सामाजिक और राजनैतिक चेतना उँण पर जब भ्यैर आ तब हमन आपणि समृद्ध ब्वेलि-भाषाक शब्द संपदाक पत चलण बैठौ।
एक टैम पर टिहरी में कैप्टन शूरसिंह सिंह पंवारज्यूक पास दाराशिकोह कृत दोहासागर, सुकदेव कृत वृतविचार, सुदर्शन शाह कृत सभासार, भिलंगशाह कृत कौमुदी इन्द्रसार, गढ़वाली भाषाक व्याकरण, भोलाराम कृत गणिका नाटक, गढ़गीता, संगाम आदि हस्तलिखित ग्रंथ मौजूद छी। येक आलाव उनरि पास पास गढ़वालि-कुमाऊँनी भाषा में ल्येखि 300 हैले अधिक पांडुलिपि धरि छी। उनरि मृत्यु बाद आब उ पाण्डुलिपि काँ छन यैक जानकारी मिलण मुश्किल छू। यसिकै देवप्रयागक आचार्य चक्रधर वेधशाला में लगभग ढाई हजार हस्तलिखित पाण्डुलिपि मौजूद हुँछी जो सुरक्षित छन।
प्राचीन पांडुलिपिनक कैसि दुरगति भैछ वी लिजी य यक्के उदाहरण काफी छू कि डॉ. रामकृष्ण भंडारकर कैं 8वीं शताब्दी में फतेशाहकरण ग्रंथकि पाण्डुलिपि कराची में एक रद्दी कागजनकि दुकान में मिली यसीकै तोमर, गढ़वाल और कुमाऊँक प्राचीन राजनक वर्णन प्रस्तुत करणि वाई ‘राजवलि’ नामक गं्रथकि पांडुलिपि कनिंघम कैं देवलगढ़ में प्राप्त भैछि। कुछ साहित्य यस ले छू जो बिक्री हुणां बाद देश बटि ब्यैहार गौछ और आब वांक लाइब्रेरिन में धरि गोछ जै मैं यूरोपक सेंट पीटरस लाइब्रेरीक नाम विशेष उल्लेखनीय बताई जाँ।
विद्वाननक मानण छू कि उत्तराखण्डकि भूमि पर भाषाक सहज, स्वाभाविक एवं नैसर्गिक रूपक शब्द ब्रह्मक रूप में प्रकटिकरण प्रकृतिक धर्म छू। भाषाक ‘प्राकृतिक’ आदिरूप जाँ बटि संवाद कायम करणै लिजी आपणि ब्वलि-भाषाक विविध रूप में निरंतर प्रयोग करि जाँछ वाँ यौ ब्वलि-भाषा अत्यंत समृद्ध रूप में विद्यमान हुनि। भाषाक संस्कृतिक आदिरूप संरक्षित रुंण पर औंणी वालि पीढ़ी आपण गौरवशालि अतीत कैं आपणि भाषा में ल्येखि-पढ़ि सकें। प्रत्येक जागरूक और सभ्य समाजले आपणि आरंभिक संस्कृति कैं सहेजभेर संरक्षित करणक प्रयास करौं किलेकि पृथ्वी पर जन्म लिहड़ीं उ मानव, जनर दगड़ आपणि ब्वेलि-भाषाक अभाव हुँछ उनर जीवन ‘शून्य’ है जाँछ।
उत्तराखण्डकि गौरवशाली और समृद्ध संस्कृतिक दगड़ यांकि लोक भाषानक विकास और उनर संरक्षणैं प्रति राज्य सरकार अत्यंत संवेदनषीन और गंभीर छू। विभिन्न प्रोत्साहन योजना और उत्तराखण्ड भाषा संस्थानैंक पत्रिका ‘‘उद्गाता’’ माध्यमैंल ले गढ़वालि, कुमाऊँनी, जौनसारि, भोटी, रंग आदि लोकभाषानक विकास और संरक्षणैं लिजी निरंतर प्रयास हुणैई।
हालै में भाषाविद गणेश देवीक संस्थान भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेषन सैंटरकि तरफ बटि ‘भारतीय भाषानक लोक सर्वेक्षण’ (पीएलएसआई) विषयाक सर्वे में यौ बात सामड़ि में आरै कि भारत में करीब 850 भाषा जीवित छन, पछिल 50 सालन में करीब 250 भाषा विलुप्त है ग्येईं। अगर हमि यौ सर्वेक्षण कैं आधार माननू तो उ हिसाबेल जब हिंदी भाषिनैक संख्या 40 करोड़ में सिक्किम मे ‘माझी’ बुलाड़ि आदिमनै संख्या आज मात्र 4 है सकैं तो भविष्य में हमनले आपणि गढ़वालि, कुमाऊँनी, जौनसारि, भोटी, रंग आदि लोकभाषानक भविष्ये प्रति सर्तक और सावधान रैभेर इनर विकासतैं सार्थक प्रयास करणैं जरूरत छू।

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