Thursday, October 23, 2025
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कोरोना की तीसरी लहर से पहले ……आओ अपने गिरेबां में झांकें..!

योगेश भट्ट

इंसानी सभ्यता में महामारी का अपना इतिहास रहा है। महामारी इंसानी जिंदगी में एक इम्तिहान की तरह आती है। इतिहास गवाह है कि हर बार इंसानी सभ्यता ने बड़ी कीमत चुकाई है मगर अंतत: महामारी पर इंसानी जीत नियति है। आज कोराना यानि कोविड-19 वैश्विक महामारी के रूप में इंसानी सभ्यता के लिए, खासकर हमारे देश में बड़ी चुनौती बना हुआ है । न कोई भरोसा न कोई जवाबदेही, हर तरफ सिर्फ भ्रम और भय । बीमारी को लेकर भ्रम, इलाज प्रोटोकाल को लेकर भ्रम, टीकों को लेकर भ्रम, दवाई पर भ्रम, रोजगार को लेकर भी भ्रम। कोरोना से मची तबाही के लिए कहीं सरकारों को कोसा जा रहा है तो कहीं सिस्टम को। कोई विचाराधारा को गरिया रहा है तो कोई इसे संप्रादायिक रंग देने की कोशिश में है। हर तरफ सिर्फ तू-तू, मैं-मैं, हर बात पर विवाद। सरकार भरोसा देने के बजाय नाकामी की पर्देदारी और आलोचना को दबाने की कोशिश कर रही है तो विपक्ष भी भटका हुआ है। जंग और संकटकाल का बुनियादी नियम भी भूल गए कि जंग मिलकर लड़ी जाती है , संकट का सामना एकजुट होकर किया जाता है। मेडिकल साइंस को भी धर्मों में बांटा जा रहा है, आयुर्वेद हिंदुत्व और ऐलौपेथी ईसाई धर्म के साथ नत्थी हो रहे हैं। मुनाफाखोर महामारी में अवसर तलाशते रहे तो विपक्ष सरकार की विफलताओं का चिट्ठा तैयार करने में लगा रहा। इंसान, इंसानियत और सियासत कटघरे में हैं। कोरोना महामारी ने इंसान को ही नहीं, इंसानियत को भी लीला है। इंसानों को लीलने का क्रम जारी है। कहने को इंसानी सभ्यता बहुत आगे बढ़ चुकी है, आधुनिक दौर में है, मगर महामारी के आगे इंसान आज भी बेबस है। हालात कमोवेश वैसे ही हैं, जैसे कि सौ साल पहले आई आपदा के बारे में पढ़ते-सुनते आए हैं। कोराना ने इंसान, इंसानियत उसके सिस्टम और सियासत को पूरी तरह बेपर्दा कर दिया है । यह सही है कि महामारी के आगे सरकार और सिस्टम दोनो नाकाम साबित हुए हैं मगर सवाल सिर्फ सरकार और सिस्टम का नहीं है। सवाल नैतिक विफलता का है, सवाल इंसानियत के मरने का है सवाल रिश्तों के संक्रमित होने का है।इंसानियत क्यों मरी ?आदमी, फरिश्ता, खुदा, देवता, भगवान….इंसान की इतनी किस्में होने बावजूद कोरोना महामारी इंसानियत को लील गई। क्या इंसानियत इतनी बेबस थी कि जिंदगी भर अपनों के लिए रात-दिन एक करने वाली मां को उसके अपने ही तड़पता छोड़ गए ? इंसानियत का इम्तिहान आखिर दुख और विपत्ति में ही तो होता है। किसी ने कहा भी है, इंसानियत का चरम और विद्रूप संकटकाल में ही दिखाई देता है। इसलिए सरकार और सिस्टम पर सवाल उठने चाहिए मगर उससे पहले नैतिक सवाल इंसानियत के संक्रमित होने और उसके मरने का भी है। कहां थी इंसानियत, जब अस्पतालों के दरवाजों पर मरीज तड़प-तड़प कर मर रहे थे और अस्पताल मालिक आईसीयू में जिंदगी और मौत का कारोबार कर रहे थे ? कहां थी इंसानियत, जब चंद रूपयों के लिए नकली दवा और इंजेक्शन सप्लाई किये जा रहे थे ? कहां थे रिश्ते, जब जिंदगी भर अपनों के लिए दिन-रात एक करने वाली मां अकेले कोने में पड़ी दम तोड़ रही थी ? एक ओर लोग आक्सीजन न होने से अकाल मौत मर रहे थे, दूसरी और लोग घरों में आक्सीजन सिलेंडर जमा कर रहे थे । आक्सीजन,दवा, उपकरण जो भी उस वक्त जरूरी हुआ उसकी ही कालाबाजारी हो रही थी। जान बचाने का हर सामान कई गुना अधिक कीमत पर बेचा गया। इंसानियत के मरने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जो जीवनरक्षक साबित हुई वही इंजेक्शन और दवायें बाजार में नकली उतारी गयी, उनकी भी कालाबाजारी कराई गयी। क्या क्या विद्रूपता नहीं दिखाई इस महामारी ने, बेटा अस्पताल में ही पिता के शव को छोड़ गया, बच्चे बिलखते रहे और मगर कोई उनके मां-बाप की अर्थी को कांधा देने आगे नहीं आया। नदी में तैरती लाशें, रेत में आधी दबीं क्षत-विक्षत लांशें कोरोना से इंसानियत के मरने और रिश्तों के संक्रमित होने की कहानी कहती रहीं। संबंध,नाते, रिश्ते सब बेईमानी सबित हुए, अधिकांश बार ऐसा हुआ कि संकट के वक्त किसी ने किसी का हाथ नहीं थामा। महामारी में जान गंवा देने वालों का कहीं अंतिम संस्कार नही होने दिया गया तो कहीं इसके एवज में मोटी रकम वसूली गयी। सरकारी सिस्टम तो वाकई दम तोड़ चुका था और प्राइेवट अस्पतालों में लूट मची थी। जिसके पास पैसा नहीं उसका कोई इलाज नहीं। सरकारी आंकडे़ ही दहशत पैदा कर रहे थे, मगर तस्वीर उतनी ही नहीं थी जितनी दिखायी जा रही थी,तस्वीर उससे कहीं ज्यादा खौफनाक थी। वो समझ सकते हैं जिन्होंने कोविड कर्फ्यू में श्मशान और अस्पतालों के बाहर जाम देखा है। वो महसूस कर सकते हैं जिन्होंने लावारिशों लाशों के ढ़ेर देखे हैं या फिर इस मर्म को वही महसूस कर सकता है जिसने उखड़ती सांसों के साथ अस्पताल दर अस्पताल धक्के खाये हों। इंसानियत ने मिशाल भी पेश की हैं , मगर 135 करोड़ की आबादी वाले देश में वह ठीक उसी तरह है जैसे कोरोना का मरीज वैंटीलेटर पर जिंदगी और मौत की जंग लड़ रहा हो। इंसानियत तो संक्रमित होनी ही नहीं चाहिए थी क्योंकि इंसानियत तो संकटकाल की नैतिकता है और किसी भी समाज का आंकलन उसकी नैतिक मूल्यों से होता है । इतनी संवदनहीनता क्यों ?समाज अगर संवेदनशील हो तो बड़ी से बड़ी आपदा और महामारी से उबरा जा सकता है । कोराना महामारी जिंदगी तो लील ही रही है इसके साथ ही दूसरे दुष्प्रभाव भी सामने आने लगे हैं। देश की तकरीबन नब्बे फीसदी आबादी सीधे तौर पर प्रभावित हुई है। महामारी के बाद बड़ा संकट अब रोजगार का है। अभी तो शुरूआत है, बीते डेढ़ साल में तकरीबन तीन करोड़ लोग रोजगार खो चुके हैं। रोजगार खत्म होने का मतलब बहुत कुछ खत्म होना है। रोजगार न होने का मतलब आमदनी का नुकसान, बचत का नुकसान, स्वास्थ्य का नुकसान, शिक्षा का नुकसान, सेवा का नुकसान, निवेश का नुकसान। अनुमान है कि तीन साल में बीस लाख करोड़ के उत्पादन का नुकसान होगा। ऐसा है तो रोजगार खत्म होंगे, भुखमरी फैलेगी। अनुमान है कि लगभग एक ही झटके में 23 करोड़ लोग मध्यम वर्ग से गरीबी रेखा के नीचे आ पहुंचे हैं। विश्व बैंक का भी अनुमान है कि भारत में डेढ़ करोड़ से अधिक लोग भुखमरी के शिकार होंगे। असर दिखने लगा है, शहरों से लोग गांवों की ओर पलायन करने लगे हैं, अमीर और गरीब की खाई और गहराने लगी है। हर शहर, हर बाजार, हर सड़क से कोराना से हुए नुकसान की इबारत साफ पढ़ी जा सकती है। दुखद यह है कि संकट के साथ समाज में संवेदनहीनता बढ़ती जा रही है। सरकार के पास ठोस उपाय हैं नहीं और समाज संवेदनहीन होता जा रहा है। निजी क्षेत्र में महामारी के नाम पर या तो छंटनी हो रही है या वेतन में भारी कटौती कर दी गयी है। दस फीसदी असरदार लोगों के हित में श्रम कानूनों तक में बदलाव कर दिया गया है। महामारी के चलते देश के नब्बे फीसदी परिवार आय में कमी का सामना कर रहे हैं। संवेदनहीनता कहां ले जाने वाली है इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है, क्योंकि एक बहुत बड़ा वर्ग जिसे मध्यम वर्ग कहा जाता है, वह इसका शिकार हो रहा है। यह वो वर्ग है जो मुफ्त की राशन के लिए कतार में खड़ा नहीं हो सकता, किसी के आगे हाथ नहीं फैला सकता। चिंता यही है कि अगर इसके सब्र का बांध टूटा तो क्या होगा ?संकट के वक्त सियासत क्यों ?यह सियासत का वक्त तो नहीं था, फिर इतनी सियासत क्यों ? कितना दुखद है आक्सीजन और कोरोना के टीके पर भी सियासत होना। सत्ता पक्ष महामारी के दौर में भी फीता काटने और फोटो खिंचाने में पीछे नहीं था तो वहीं दूसरी ओर विपक्षी भी महामारी में अवसर तलाश रहे थे। महामारी से निपटने में सहयोग के बजाय हर कदम पर सिर्फ विरोध और विवाद। सबसे ज्यादा निराश तो सियासत ने किया। एक तरफ लोग तड़प-तड़प कर मर रहे थे और सियासतदांओं को फिक्र सिर्फ सियासत की थी। असल मुद्दे कांग्रेस के टूलकिट और मोदी को बदनाम करने की साजिश के बीच उलझ कर रह गये। सिर्फ केंद्र में ही नहीं, केरल और उड़ीसा को छोड़कर तकरीबन हर राज्य की यही स्थिति थी। यह सही है कि सरकार महामारी से निपटने के मोर्चे पर नाकाम साबित हो रही थी पर नैतिकता कहती है कि वक्त सरकार को घेरने का नहीं का या सवाल करने का नहीं था। वक्त मशविरे का था, सरकार को सहयोग करने का था, आम लोगों का मनोबल बढ़ाने का था , जनता के साथ खड़े होने का था। जो सियासी दल चुनाव लड़ने में बूथ स्तर तक प्रबंधन कर सकते हैं अपना नेटवर्क खड़ा कर सकते हैं, उनके लिए महामारी में आम लोगों को भरोसा देना कोई बड़ा काम नहीं था, मगर सियासी दलों की प्राथमिकता में यह था ही नहीं। राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल ने नाकामी का ऐसा ढोल पीटा कि सरकार की प्राथमिकता भी मोदी और भाजपा की आलोचना दबाने की रह गयी। सच तो यह है कि सरकार नाकाम थी तो विपक्ष ने भी कोई समझदारी तो नहीं दिखायी अरविंद केजरीवाल ने आक्सीजन की कमी को लेकर जो रुख अपनाया उससे आम लोगों में और दहशत फैल गयी। संदेश यह गया कि जब देश की राजधानी के हाल इतने खराब हैं तो बाकी देश के दूसरे राज्यों की स्थिति क्या होगी। विपक्ष के रवैये ने महामारी से जूझ रहे देश को खलनायक बनाकर रख दिया।नकारा सिस्टम का जिम्मेदार कौन ?सिस्टम को कोसना आम बात है क्योंकि सिस्टम है ही ऐसा, किसी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता। आखिर सिस्टम से क्या उम्मीद की जाती है ? यही कि वह मानवीय, संवदेनशील और ईमानदारी हो। सिस्टम की कार्यशैली में दूरदर्शिता, वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण, व्यवहारिकता और समानता का भाव हो। सिस्टम जिम्मेदार और जवाबदेह हो, उसकी सोच हर हाल में समाधान की हो। वाकई किसी भी सिस्टम ऐसा ही होना चाहिए मगर सवाल यह है कि इतना जवाबदेह सिस्टम क्या सरकार के बूते की बात है ? सिस्टम का मतलब हम सरकार मान बैठते हैं जबकि सिस्टम की जितनी जिम्मेदारी सरकार की है, उतनी ही विपक्ष की और आम नागरिक की भी है। एक जवाबदेह सिस्टम के लिए समाज का भी संवेदनशील और मानवीय होना जरूरी है। जब समाज ही संवेदनहीन, अमानवीय हो जाए, फिर सिस्टम के मानवीय होने की उम्मीद आखिर कैसे की जा सकती है ? महामारी के वक्त तो बहुत करीब से यह महसूस किया गया कि सिस्टम वहीं जिम्मेदारी से काम कर रहा था जहां लोग संवेदनशील थे। चाहे वह सरकारी अस्पतालों में डाक्टर, नर्स और मेडिकल स्टाफ हों या फिर स्वयंसेवक और सेवादार। सिस्टम को समझने में सरकार के साथ ही समाज की भी चूक रही है। सच्चाई यह है कि देश में आज जिन हालातों से लोग गुजर रहे हैं उन्हें समझ पाना बहुत मुश्किल है। सामानांतर सिस्टम क्यों ?देश के उच्चतम न्यायालय से लेकर तमाम राज्यों के उच्च न्यायालयों ने सरकारों पर तल्ख टिप्पणियां यूं ही नहीं कीं। अस्पतालों में बेड की उपलब्धता, ऑक्सीजन की व्यवस्था से लेकर टीकाकरण नीति तक हर मोर्चे पर सरकार को न्यायालय की फटकार लगी। इससे ज्यदा शर्मनाक और क्या हो सकता है कि महामारी से निपटने के लिए उच्चतम न्यायालय को टास्क फोर्स का गठन करना पड़ा। सच यह है कि एक वक्त तो सरकार वाकई शुतुरमुर्ग नजर आयी। सरकार खुद भ्रम में रही, वह लोगों की जान बचाए या अर्थव्यवस्था ? और, हुआ यह कि न लोगों की जान बचा पायी और न अर्थव्यवस्था। सरकार की नाकामी का ही परिणाम है कि महामारी से हर कोई अपने तरीके निपटता नजर आया। न्यायालयों तक ने कहा कि सरकार हकीकत का सामना करने के लिए तैयार नहीं है। नागरकि अधिकारों के संरक्षक के रूप में न्यायालयों को आगे आना पड़ा। न्यायालय ने आम लोगों को स्वास्थ्य सुविधा दिए जाने और मजदूर वर्ग के लिए भोजन की व्यवस्था करने के निर्देश दिए। सरकारों की नाकामी के लिए न्यायालयों की यह सक्रियता अपने आप में बड़ा प्रमाण है। सरकारों के इस नकारेपन के चलते महमारी से निपटने के नाम पर सामांतर सिस्टम खड़े होते चले गए। जहां सरकारी सिस्टम दवा, ऑक्सीजन, प्लाज्मा, अस्पतालों में बेड, राशन और जरूरत का सामान नहीं दिला पा रहा था वहां समाजसेवी सब कुछ उपलब्ध करा रहे थे। सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर ऐसे समाजसेवियों की भीड़ उमड़ रही थी, इसी बीच तमाम जगहों से मदद के नाम पर ठगी तक की खबरें भी आयीं। कई जगह तो मदद के लिए सार्वजनिक किए गए महिलाओं के नंबरों पर अश्लील संदेश भेजकर उन्हें परेशान करने की घटनाएं भी देखने-सुनने में आयीं। महामारी से जंग के नाम पर यह सामानांतर सिस्टम संकटकाल के दौरान गांव-मौहल्लों से लेकर राष्टीय स्तर तक खड़ा है। इस सिस्टम पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं, सोशल प्लेटफार्मों पर ऐसे समाजसेवियों की भरमार है, कोई खुद की इमेज बिल्डिंग करने में लगा है, कोई इस बहाने अपने सियासी भविष्य की संभावनाएं तलाश रहा है। ऐसा नहीं है कि महामारी से मुकाबला करने के लिए चल रहा हर समानांतर सिस्टम गलत है, बहुत से ऐसे भी लोग है जो गुमनाम रह कर मदद कर रहे हैं, उन्होंने इंसानियत को जिंदा रखा है, अपनी आत्मा को नहीं मरने नहीं दिया। तमाम ऐसे उदाहरण हैं जो बिना प्रचार के दिन राज सीमित संसाधनों में जरूरतमंदों तक मदद पहुंचा रहे हैं। इनमें डाक्टर, शिक्षक, सरकारी अधिकारी कर्मचारी भी हैं तो उद्यमी और प्रगतिशील युवाओं और महिलाओं के समूह भी हैं। सवाल यह है कि अगर सरकार कोरोना से जंग के लिए सामजिक सहभागिता से एक पारदर्शी व्यवस्था तैयार करती तो इतना सब अनियोजित नहीं होता। मगर यहां तो स्थिति यह है कि सरकार यह तक बताने को तैयार नहीं है कि कोराना से जंग के लिए पीएम केयर फंड में कितनी रकम इकट्ठा हुई और उसका क्या इस्तेमाल, किसमें किया जा रहा है। मार्च 2020 से मार्च 2021 तक क्या किया ?साल 2020 में जब कोरोना ने भारत में दस्तक दी तो तभी से मालूम था कि कोरोना बहुत दूर तक साथ चलने वाला है। मगर जब सरकारें खुद बेपरवाह हो तो सिस्टम और समाज से क्या उम्मीद की जा सकती है ? इतिहास गवाह है कि कोई भी महामारी महीने, दो महीने की नहीं होती, वह वर्षों तक साथ चलती है। बताते हैं कि इन्फ्लूएंजा की तो 1918 से 1920 तक चार लहरें आयीं। साफ है, कोविड 19 की दूसरी लहर से सरकार अंजान ही नहीं, बेफिक्र भी थी। जबकि कहते हैं कि अगर मर्ज की पहचान समय पर हो जाए तो दवा आसान हो जाती है, लेकिन सरकार को न मर्ज का पता था और न आने वाली मुश्किलों का। यहां तो बिना किसी ठोस आधार के देश के प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने महामारी पर जीत की घोषणा कर डाली थी। जनवरी में तो हम गर्व से फूले नहीं समा रहे थे कि भारत ने कोरोना पर काबू पा लिया है। देश के स्वास्थ्य मंत्री ने भारत में कोरोना का एंड गेम यानी खेल खत्म करार दिया तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावोस में विश्व आर्थिक मंच से दावा कर चुके थे कि विश्व को भारत ने बड़े संकट बचा लिया है। सरकार प्रचारित कर रही थी कि भारत ने महामारी से निपटने के लिए मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली बना ली है। सच यह है कि स्वास्थ्य सिस्टम की कोई तैयारी थी ही नहीं थी। कोविड की पहली लहर में भारत में इतनी मौतें नहीं हुईं और दूसरी लहर में तो कब स्वास्थ्य सिस्टम ध्वस्त हो गया पता ही नहीं चला। लोग अस्पतालों में ही नहीं, अस्पतालों के बाहर सड़कों पर, कार में, एंबुलेंस में, आटो में संक्रमित मरने लगे, अस्पतालों में ऑक्सीजन खत्म होने लगे, बेड फुल हो गए और श्मशानों में लंबी कतार लगने लगी। अंतिम संस्कार के अभाव में लाशें नदी में बहाई जाने लगीं, रेत में दफनाई जाने लगीं। बताते हैं कि 1918 में स्पेनिश फलू के दौर में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। बीमारों के संपर्क में आने वाले परिजन भी संक्रमित होकर मर रहे थे। चिताओं के लिए लकड़ियां कम पड़ गयी थीं, तब भी नदियों में लाशें बहाई जा रहीं थीं। हम इस स्थिति से बच सकते थे, इसके लिए हमारे पास पर्याप्त समय था। देश में एक मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली तंत्र तैयार करने के लिए पर्याप्त समय था। किसी भी चुनौती से निपटने के लिए सरकार द्वारा एंपावर्ड क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप तैयार किया गया होता। दुर्भाग्य देखिए, मार्च 2020 से मार्च 2021 तक हमने कुछ नहीं किया, उल्टा कोविड-19 की पहली लहर के दौरान 2020 में जो ढांचा तैयार भी किया उसे भी अक्टूबर 2020 में ढहा दिया गया। यह तब किया गया जबकि वैज्ञानिक दूसरी लहर को लेकर आगाह कर चुके थे और इटली और अमेरिका में दूसरी लहर कहर बरपा रही थी ।प्राइवेट अस्पतालों पर मेहरबानी क्यों ?बीते साल नवंबर में संसदीय कमेटी की रिपोर्ट ‘द आउटब्रेक ऑफ कोविड-19 पेनेडमिक एंड इट्स मैनेजमेंट’ में कमजोर स्वास्थ्य ढांचे पर चिंता जताई गयी थी। रिपोर्ट के मुताबिक सरकारी अस्पतालों के कुल बेड कोविड-19 के बढ़ते मामलों की तुलना में काफी कम थे। हमें मालूम था कि हालात नाजुक हैं। नेशनल हैल्थ प्रोफाइल-2019 के मुताबिक देश में एक हजार की आबादी के आधे बेड भी नहीं थे। यह तो राष्ट्रीय आंकड़ा है, कई राज्यों मे तो स्थिति इससे भी खराब है। अगर निजी क्षेत्र के अस्पतालों को भी जोड़ दिया जाए तो कोरोना की दूसरी लहर के कहर से पहले स्थिति यह थी कि देश में बमुश्किल एक हजार की आबादी पर अस्पताल में एक बेड था । आईसीयू और वेंटिलेटर की तो बात करना भी बेमानी है । स्तरीय स्वास्थ्य सुविधाएं भी देश में दिल्ली, मुंबई और बंगलुरू जैसे शहरों में ही थी। संसदीय कमेटी की सिफारिश भी थी कि स्वास्थ्य सेक्टर में बजट बढ़ाया जाए। सरकार चाहती तो तस्वीर बदल सकती थी मगर ऐसा करने से निजी क्षेत्र के हित जो प्रभावित होते ! सच तो यह है कि देश में स्वास्थ्य पर जीडीपी का कुल दो फीसदी भी खर्च नहीं होता। प्राइवेट अस्पतालों की कमाई के लिए सरकार खुद ही सरकारी स्वास्थ्य सिस्टम को खोखला करने में लगी है।जहां तक मशविरों और रिपोर्टों का सवाल है तो सरकार के लिए वह कोई मायने नहीं रखती। नतीजा, अस्पतालों में बेड और वैंटिलेटर की कमी ने कोविड से लड़ाई को जटिल बना दिया। हमारी संवेदनहीनता और पूर्वाग्रह देखिए कि संकट के दौर में भी निजी क्षेत्र के अस्पतालों पर शिकंजा नहीं कस पाये। एक भी निजी क्षेत्र के अस्पताल का अधिग्रहण नहीं हुआ, न ही ऑक्सीजन के अभाव में इनसे प्लांट ही लगवा पाए। महामारी के दौर में भी इन अस्पतालों को बेरोकटोक मनमानी और लूट की खुली छूट रही। इनकी संवेदनहीनता देखिए, इन्हीं अस्पतालों में सेवा देते हुए संक्रमित होने पर यहां के डाक्टरों और मेडिकल स्टाफ को भी अस्पताल में बेड नहीं दिया, संक्रमित होने उन्हें उनके ही परिजनों के भरोसे छोड़ दिया गया।आत्मनिर्भरता का ढोंग क्यों ?अभी कुछ दिनों पहले तक तो हमारी गिनती उन बड़े देशों में हो रही थी जो दूसरे देशों की मदद कर रहे थे। हम महामारी से निपटने वाले फ्रंटलाइन देशों में शामिल थे, कोरोना टीके की विश्व मुहिम में शामिल थे, हम घोषणा कर चुके थे कि कोई विदेशी मदद नहीं लेंगे बल्कि आत्मनिर्भर बनेंगे। जो भारत कल तक बड़े दावे कर रहा था वहां आज मंजर बदला हुआ है, संक्रमण के वैश्विक आंकड़ों में चालीस फीसदी से अधिक अकेले भारत में हैं। मौत का सरकारी आंकड़ा ही तीन लाख के पार पहुंच चुका है, आकलन यह किया जा रहा है कि अगस्त तक भारत में कोविड से मरने वालों का आंकड़ा दस लाख तक पहुंच जाएगा। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि अभी तक शहरों और घनी आबादी वाले इलाकों में तबाही मचाने वाला कोरोना अब गांवों का रुख कर चुका है। फरवरी 21 में जो शुरुआती आंकड़े सामने आए उनके मुताबिक 21 फीसदी आबादी में संक्रमण के प्रमाण थे और 79 फीसदी आबादी संक्रमण के लिए संवेदनशील थी, इसके बाद भी हम महामारी से निपटने के लिए आत्मनिर्भर होने के दावे कर रहे थे। हर ओर अव्यवस्था, भ्रम, कहीं कोई जवाबदेही नहीं है। टीकाकरण कार्यक्रम टीकों की कमी के चलते दम तोड़ रहा है। अप्रैल माह में देश में टीकाकरण का औसत 30 लाख प्रतिदिन था जो मई मे गिरकर 18.5 लाख रह गया। आज हालत यह है कि दूसरे देशों को बेचेने और भेंट करने वाला भारत दूसरे देशों से टीके मांग रहा है । रूसी टीके स्पूतनिक के आयात से हालात थोड़े संभले जरूर हैं फिर भी यह उम्मीद नहीं है कि साल के अंत तक पचास फीसदी आबादी का टीकाकरण हो पाएगा। सरकार की टीकाकरण नीति पूरी तरह सवालों के घेरे में है। बिना राज्यों को भरोसे में लिए तय की गयी टीकाकरण नीति को उच्चतम न्यायालय ही मनमानी और तर्कहीन करार दे चुका है। सवाल यह है कि जब हमारे पास आपातकालीन स्थिति से निपटने की कोई ठोस योजना नहीं हैं, महामारी से सुरक्षा के लिए जरूरी टीके की आवश्यकता के मुताबिक उत्पादन और उपलब्धता नहीं है तो आत्मनिर्भरता का ढोंग क्यों ? सबका साथ क्यों नहीं ?दुनिया भर में वैज्ञानिक और शोधकर्ता इस बात को समझने की कोशिश कर रहे हैं कि चंद दिनों में भारत में हालात इतने खराब कैसे हो गए। प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल ‘द लैंसेट’ ने सीधे-सीधे मोदी सरकार को जिम्मेदार बताया है। इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेटिक्स एंड इवैल्यूएशन के आकलन के हवाले से लैंसेट ने अपने संपादकीय में कहा है कि अगस्त तक भारत में दस लाख मौतें हो सकती हैं। ऐसा होता है तो मोदी सरकार खुद पैदा की गयी राष्ट्रीय आपदा के लिए जिम्मेदार होगी। लैसेंट ने धार्मिक आयोजनों और चुनावी रैलियों पर भी सवाल उठाते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर तंज कसा कि उनका ध्यान ट्विटर से आलोचना हटाने में अधिक और संक्रमण पर नियंत्रण कसने में कम था। संपादकीय में लिखा है कि संकट के बीच आलोचना और चर्चा को खत्म करने के लिए मोदी सरकार के एक्शन अक्षम्य हैं। यह तो रही बात विदेशी मीडिया की लेकिन यह सच है कि सरकार ने महामारी से निपटने में सबको साथ लेने की कोशिश नहीं की। जब सरकार महामारी पर विदेशी राष्ट्राध्यक्षों से संवाद कर सकती है तो फिर अपने ही देश में संवाद क्यों नहीं ? पहल सरकार की ओर से होनी चाहिए थी मगर सरकार का रवैया अभी तक सबको साथ लेकर चलने के बजाय टकराव का ही रहा।और अंत में…विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैज्ञानिक डॉक्टर सौम्या का दावा है कि भारत में कोराना कहर की कई नयी लहरें आ सकती हैं। मतलब यह कि खतरा टला नहीं है, बल्कि आने वाले दिनों में संकट और भी बढ़ सकता है। ऐसा है तो क्या आने वाले समय में नयी चुनौतियों का मुकाबला कर पाएंगे ? यह भी पुख्ता हो चला है कि भारत में मिला वायरस बी 1617 वैरिएंट कोरोना के मूल स्टेन के मुकाबले दो गुना अधिक संक्रामक है। इस बीच पता चला है कि कोरोना वायरस ने फिर रूप बदल लिया है, इस बार यह बदला स्वरूप, डेल्टा वैरिएंट और भी अधिक आक्रामक नजर आ रहा है। ऐसे प्रमाण मिले हैं कि कोरोना के बीटा वैरिएंट में मिलने वाला म्यूटेशन अब दूसरी लहर में तबाही मचा चुके डेल्टा में भी जा पहुंचा है। कोरोना वायरस के इस नए म्यूटेशन को डेल्टा प्लस कहा जा रहा है वैज्ञानिकों ने इसकी पहचान K 417 N के नाम से की है। ऐसा कहा जा रहा है कि यह नया म्यूटेशन इंसान के शरीर में मौजूदा एंटीबाडी पर हमला करता है। यह इतना ताकतवर है कि इससे न सिर्फ एक से अधिक बार कोरोना संक्रमण हो सकता है बल्कि वैक्सीन लगने के बाद भी संक्रमित होने की संभावना है। अब सवाल यह है कि क्या हम आसन्न संकट से मुकाबले के लिए तैयार हैं ? मौजूदा हालात में तो कतई नहीं… सच यह है कि हम बड़ी आपदा की ओर बढ़ रहे हैं। हम हकीकत से मुंह मोड़ भी लें तो सच्चाई बदल नहीं जाएगी। इतिहास तो लिखा ही जाएगा और महामारी के इस दौर का हर अपराध उसमें दर्ज होगा। अपराध सरकारों का ही नहीं, इंसानियत का भी दर्ज होगा। हमें अपराध स्वीकारना होगा, हमारा अपराध यह है कि हम स्वार्थी और संवेदनहीन हो गए थे, शरीर से पहले हमारी आत्मा मृत हो चुकी है ।

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