रोज ग्राउंड जीरो पर जूझने वाले हैं असल पत्रकार, बाकि सब विशेषाधिकार प्राप्त
-स्वराज पाल सिंह
जितने पत्रकार आपकी स्क्रीन पर नज़र आते हैं, जिनके नाम की बाईलाइन आप अखबारों में पढ़ते हैं, जिनके चेहरे अक्सर टीवी पर दिखाई देते हैं, वो सब प्रिविलेज्ड हैं|
इनकी बढ़िया और कमाल की रिपोर्ट्स के पीछे ज़्यादातर वो स्थानीय पत्रकार होते हैं जिन्हें लोकल सोर्स या स्ट्रिंगर के परिचय में बांधा जाता है. उन्हें न ड्यू क्रेडिट मिलता है ना उचित मेहनताना. इनमें से कुछ स्थानीय नेताओं और उद्योगपतियों के सहयोगी बन जाते हैं (आखिर पेट भी इसी पेशे से पालना है) और कुछ अपने ईमान को बचाए रखते हैं और उसी शिद्दत के साथ बिना ड्यू क्रेडिट और पैसे की चिंता किए लगे रहते हैं|
प्रिविलेज पत्रकारों की अच्छी रिपोर्ट पर भड़कते नेता, अफसर और ठेकेदार भी इन्हीं पत्रकारों का कॉलर सबसे पहले पकड़ते हैं. धमकियों से लेकर गालियां सब इनके हिस्से जाती हैं.
आप पत्रकारिता को लाख गालियां दें या कुछ चुनिंदा पत्रकारों को लाख सराहें, पर ये याद रखिएगा वो सब प्रिविलेज लोग हैं, और उनमें से अधिकतर अपने प्रिविलेज को स्वीकार तक नहीं करते|
असली पत्रकारिता कुछेक लोग कर रहे हैं, ग्राउंड पर रोज़ जूझ रहे हैं| स्थानीय गुंडों से घिरे हैं. जिनके पीछे कोई बैकअप, मोटी कमाई या इनफ्लुएंसर पत्रकारों जैसी फैन फॉलोइंग नहीं है| उनके नाम भी तब नेशनल मीडिया में आते हैं जब उनपर मुकदमे ठोके जाएं, जेल में ठूंसा जाए या मार डाला जाए|
ग्राउंड से जर्नलिज़्म करने वाले तमाम पत्रकारों के लिए आवाज़ उठाएं. उनके लिए भी बैकअप और प्रोटेक्शन की मांग करें|
साथ ही पाठक/दर्शक भी आगे आएं. आपको भी ये समझना होगा कि केवल कहने भर से पत्रकार लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नहीं बन सकते. उनको भी वो बैकअप, पावर और प्रोटेक्शन मिले जो लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों को मिला हुआ है. आप भी अंधी-गूंगी- बहरी सरकारों से कहें कि ऐसा कानून बनाओ कि फिर किसी पत्रकार को सिर्फ अपना काम करने और आपके संज्ञान में भ्रष्टाचार का खेल उजागर करने के लिए सजा ना मिले|