मात्र नदी नहीं एक संस्कृति है ‘गंगा’

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट
धर्मशास्त्रों में जहाँ पावन गंगा का वैशिष्टय प्रदर्शित है, वहीं इसके उद्गम एवं स्वरूपादि की भी चर्चा हुई है। भारतवसियों के लिये यह सिर्फ नदी नहीं बल्कि पूरी एक संस्कृति है जिसके तट पर न जाने कितनी सभ्यताएं फली-फूली और विकसित हुई हैं। यह पूरे विश्व में एकमात्र ऐसी नदी है जिसे करोड़ो लोग ‘माँ’ का दर्जा देते हैं और इसकी पूजा करते हैं। करोड़ो लोगों की रोजी-रोटी और जीवन गंगा के सहारे ही चल रहा है। इसी लिये गंगा को उत्तर भारत की जीवन रेखा भी कहा जाता है।
भारतीय संस्कृति में ‘ओंकार’ शब्द जो ब्रह्म का द्योतक है, उसको बड़ा महत्व दिया गया है। समस्त मन्त्र इस एक विराट् शब्द में गर्भित हैं। ओंकार में सरस्वती, यमुना तथा गंगा ये तीनों नदियाँ समाविष्ट हैं। ‘अ, उ, म्-गंगा का द्योतक है और इन तीनों के जल क्रमशः प्रद्युम्न, अनिरुद्ध एवं संकर्षण हरि के प्रतीक माने गये हैं। भगवती गंगा को साक्षात् ब्रह्मदेव भी कहा गया है। वराह पुराण में गंगा की व्युत्पत्ति के लिए कहा गया है कि ‘गां गतां’ अर्थात् जो पृथ्वी की ओर गयी हों, वे गंगा हैं। ‘पदमपुराण के सृष्टि खण्ड में निम्न मूल मन्त्र में गंगा के स्वरूप को स्थिर करते हुए कहा गया है- ‘नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नमः।’ अर्थात्-विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और नारायणी गंगा भगवान् विष्णु का। इसमें आगे कहा गया है कि गंगा मंदाकिनी के रूप में स्वर्ग में, गंगा के रूप में पृथ्वी पर और भगवती के रूप में पाताल में सतत् प्रवाहमान हैं।
गंगा अवतरण की दो तिथियाँ मिलती हैं। वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को गंगा जयंती कहा जाता है। कुछेक की मान्यता है कि इस दिन गंगा जी का अवतरण हुआ था। दूसरी तिथि राजा भगीरथ से जुड़ी है। स्कंदपुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगाजी का अवतरण हुआ था। इसी को गंगा दशहरा कहा जाता है। यह लोक मान्य कथा है। राजा भगीरथ को हर समय यही चिंता रहती थी कि उनके पितरों का पता नहीं, उद्धार होगा कि नहीं? इसलिए भूतल पर गंगा को लाने का श्रेय राजा भगीरथ को है। इक्ष्वाकु वंशीय राजा सगर ने अपने राज्य में बहुत बड़े अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया। 99वां यज्ञ कर चुके राजा ने जब 100वां यज्ञ करने के लिए घोड़ा छोड़ा तो अश्वमेघ यज्ञ पूरा होने के साथ अपना इन्द्रासन छिन जाने के भय से राजा इन्द्र ने अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में ले जाकर बाँध दिया और स्वयं इन्द्रलोक चले गये।
राजा सगर के साठ हजार पुत्र जब घोड़े को खोजते हुए वहाँ पहुँचे तो ध्यानस्थ कपिल मुनि के आश्रम में यज्ञ का घोड़ा देख कर क्रोधित हो उन्हें अपशब्द कहने लगे। अकारण घोड़ा पकड़ कर बाँध्ने का लांछन लगाने पर कपिल मुनि ने सगर पुत्रों को भस्म कर दिया। यज्ञ का घेाड़ा और साठ हजार पुत्रों के निर्धरित समय तक वापिस न आने पर राजा सगर को काफी चिन्ता हुई और उन्होंने अंशुमान को उनका पता लगाने के लिए भेजा। कपिलमुनि के आश्रम पहुंँचने पर उन्हें सारी स्थिति का पता चला तदुपरान्त राजा सगर का पुत्र अंशुमान् कपिल मुनि की सेवा करके उस घोड़े को वापस लाया, जिससे राजा का यज्ञ पूर्ण हुआ। कपिल मुनि द्वारा गंगावतरण से ही सगर पुत्रों की सद्गति का उपाय बताने जाने पर अंशुमान और उसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या की लेकिन वे सफल नहीं हो पाये।
अपने इन्हीं पितरों के तारण के लिए राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए हिमालय में कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा ने मृत्युलोक में आना स्वीकार किया। विष्णु पद से निकली गंगा ने ब्रह्मा के कमण्डल में स्थान लिया। जब ब्रह्मा ने उसे पृथ्वी पर गिराया तो यह शिव के मस्तक पर गिरी। तीव्रगति के साथ आकाश से गिरती गंगा के वेग को शिवजी ने अपनी जटा में रोका। पिफर वहाँ से चलकर गंगा की धरा श्रीमुख पर्वत पर आकर तीन धराओं में विभाजित हो गई। भगीरथ के साथ आयी भागीरथी नामक घारा श्रीमुख पर्वत के उत्तरी भाग से होकर निकली, दूसरी धरा अलका में गई, तीसरी धरा कुरूवर्ष में गई।
गंगा को पृथ्वी पर लाते समय भगीरथ के सामने कई परेशानियां भी आयी। जब गंगा को लेकर वह चन्द्रकूट पर्वत पर पहुँचे तो वहाँ के निवासियों ने भगीरथ को रोक लिया उनको पराजित कर जब भगीरथ स्वच्छोद सरोवर पहुँचे तो गंगा अलोप हो गई। तब एक ऋषि ने भगीरथ को बताया कि सरोवर के दक्षिण भाग में स्थित एक बिल से राक्षस गंगा को पाताल ले गयें हैं। भगीरथ जब गंगा को लाने पाताल पहँुचे तो वहाँ मिली संवरण नामक राजा की कन्या मनोहरी ने राक्षस द्वारा अपने हरण की बात भगीरथ को बताई और कहा कि आपके पराक्रम केा सुन कर मैंने अन्तःमन से आपका वरण कर लिया था इसी लिए मैने ही राक्षस से गंगा को यहाँ लाने को कहा था। तदोपरान्त मनोहरी के प्रस्ताव पर भगीरथ उसका वरण कर गंगा को लेकर सोमकूट पर्वत पहुँचे गंगा के प्रचण्ड वेग से जन्हु ऋषि की कुश कंडिका बह गयी, क्रोधित ऋषि ने गंगा को पी लिया। भगीरथ की प्रार्थना पर उन्होंने अपनी जंघा से गंगा को निर्गत किया तभी से गंगा का एक नाम जहान्वी भी है।
इसके बाद भगीरथ अनेक बाधाओं को पार करते हुए समुद्र तट पर स्थित कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुये थे उनकी राख को गंगा ने अपने मिला कर समुद्र में प्रवेश किया। तभी से समुद्र का नाम ‘सागर’ और संगम स्थल का नाम ‘गंगा सागर’ हुआ।
गंगा के मर्त्यलोक में प्रवाहित होने के साथ उसका एक दूसरा रूप भी है जिसे मानव रूप कहा गया है। महाभारत के आदि पर्व के अनुसार गंगा का आध्दिैविक रूप देवांगना के तुल्य है, वे उसी रूप से एक दिन ब्रह्मा की सभा में उपस्थित हुई उस समय वायु के झोंके से उनके शरीर का चाँदनी के समान सज्जवल वस्त्रा सहसा उठ गया उस अवस्था में उनको शरीर की दृष्टि से देखने के कारण सहस्त्रा अश्वमेध यज्ञ एवं सौ राजसूय यज्ञों द्वारा इन्द्र को सन्तुष्ट कर स्वर्गलोक प्राप्त करने वाले इक्ष्वाकु वंशी महा प्रतापी सत्यवादी और पराक्र्रमी राजा ‘महाभिष’ को ब्रह्मा ने मर्त्यलोक में जन्म लेने का शाप दिया। साथ ही गंगा को भी उनके प्रतिकूल आचरण करने के लिए उनके साथ जाने का संकेत किया।
ब्रह्माके श्राप के कारण ‘महाभिष’ राजा प्रतीप के यहाँ शान्तनु के रूप में उत्पन्न हुए। तब गंगा ने भी मृर्त्यलोक में आकर गंगा ने पति के रूप में शान्तनु का वरण किया। 8 तेजस्वी पुत्र रत्नों की प्राप्ति होने पर गंगा ने 7 पुत्रों को ‘मैं तेरी प्रसन्नता का कार्य करती हूँ’ कह कर अपनी धरा में डाल दिया। आठवाँ पुत्र उत्पन्न होने पर शान्तनु के पुत्र मोह ने उसे जल में प्रवाहित करने से रोकने और फटकारने पर गंगा ने उसे छोड़ दिया। अपनी इच्छा के विपरीत कार्य करवाने पर पूर्व शर्त के अनुसार गंगा शान्तनु को छोड़ कर स्वर्गलोक को चली गई। यह आठवाँ पुत्र महा पराक्रमी भीष्म था।
गंगा ‘सनातन धर्म’ की अक्षुण्ण धरा, भारतीय संस्कृति का प्राण और जन-जन की मातृ शक्ति है। गंगा जल से न केवल मन का ताप कटता है वरन् शरीर के रोग भी दूर हो जाते हैं। गंगा माता व्यक्ति-समष्टि के सारे कष्टों को दूर करती है। वह कभी किसी को निराश नहीं करती। कभी नहीं कहती कि अभी तो तू पापों को धेकर गया था, फिर आ गया। मानो पापों को दूर करने का भागीरथी ने व्रत ले रखा है। इस दृष्टि से देखें तो गंगा माँ से बढ़कर धैर्य भला कहाँ और किसमें होगा। धैर्य की तो वह प्रतिमूर्ति है। वह केवल जलधर नहीं बल्कि जीवन है और उसका संगीत। गंगा की अपनी कोई सीमा नहीं है और न ही हो सकती है। जिस प्रकार पाप और पुण्य की कोई सीमा नहीं होती, उसी प्रकार गंगा की जलधरा की भी सीमा नहीं हो सकती। जीवन के संगीत को तो शब्दों में बाँध जा सकता है लेकिन गंगा की तरंगों को नहीं।
हिमालय की कन्या के रूप में जन्मी गंगा ने इस ध्रती पर करोड़ों लोगों का उद्धार किया है। ‘गंगा’ तीर्थों में परम तीर्थ, नदियों में श्रेष्ठ नदी और सभी प्राणियों को मोक्ष प्रदान करने वाली है। यह पृथ्वी पर मनुष्यों को, पाताल में नागों को और द्युलोक में देवताओं का तारण करती है। सद्गति की इच्छा करने वाले प्राणियों के लिए गंगा के समान कोई दूसरी नदी नहीं है। इच्छा अथवा अनिच्छा से जो मनुष्य गंगा में मृत्यु प्राप्त करता है वह सीध्े स्वर्ग को जाता है तथा मनुष्य की अस्थियाँ जब तक गंगा में पड़ी रहती हैं उतने हजार वर्षों तक वह मनुष्य स्वर्ग में पूजित होता है। पतित पावनी गंगा को हिन्दु र्ध्म में ‘माँ ’ का दर्जा दिया गया है। गंगा में ही जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न धर्मिक कृत्य सम्पन्न होते हैं यथा मुण्डन, स्नान, दान, पिण्डदान तथा मृत्यु के पश्चात् अस्थिविसर्जन के लिए गंगा सर्वोत्तम मानी जाती है। गंगावरण की कथा के अनुसार गंगा ने सुमेरू तनया अथवा मैना के गर्भ से जन्म लिया था। दूसरी कथा के अनुसार गंगा की उत्पत्ति विष्णु के चरणों से हुई थी। ब्रह्मा ने उसे अपने कमण्डल मंे भर लिया था। ऐसी प्रसिद्धि है कि विराट अवतार के आकाश स्थित तीसरे चरण को धेकर ब्रह्मा ने गंगा को अपने कमण्डल में रख लिया था। ध्रु्रव नक्षत्र स्थान को पौराणिक गण विष्णु का तीसरा चरण मानते हैं। वहीं मेघ एकत्र होते हैं। और वृष्टि करते हैं। वृष्टि से ही गंगा की उत्पत्ति होती है।
‘जन्हु’ की कृपा से प्रवाहित होने के कारण गंगा को ‘जहान्वी’ देवकुल की होने से ‘सुरसुरी’ विष्णु चरणों से उत्पत्ति के कारण ‘विष्णुपदी’ भगीरथ के प्रयत्नों से प्रवाहित होने के कारण ‘भागीरथी’ कहा गया। पृथ्वी, पाताल और द्युलोक में प्रवाहित होने वाली तीन धराओं के कारण इसे ‘त्रिपथगा’ भी कहा जाता है मन्दाकिनी, देवपगा, हरिनदी भी गंगा के ही पर्याय हैं। जहाँ-जहाँ गंगा का प्रवाह मर्त्य भूमि को स्पर्श करता गया वह भूमि पवित्र हो गई और वहाँ तीर्थ बन गये। धर्मिक दृष्टि से गंगा के महत्व का वर्णन महाभारत, पुराण ग्रन्थों और संस्कृत-काव्यों से लेकर मानस, गंगावतरण जैसे हिन्दी काव्यों से होता हुआ आध्ुनिकतम युग की काव्य कृतियों में वर्णित है।
गंगा ने भारत के कोने-कोने को तथा प्रत्येक जाति और सम्प्रदाय को एक-दूसरे से जोड़ दिया है। गंगा ने हिमालय को समुद्र से, गंगोत्री-गोमुख को रामेश्वरम् से जोड़ दिया है। गंगोत्री का जल रामेश्वरम् में चढ़ता है। केरल का नंबूदरी गंगा जी के तट पर बदरीनाथ में पूजा करता है। गंगाजी ने अनेकता में एकता उत्पन्न की है।
पापनाशिनी और मोक्षदायिनी गंगा के महत्व के विषय में विष्णु पुराण में कहा गया है कि गंगा का नाम लेने, सुनने उसे देखने, गंगा जल पीने, स्पर्श करने तथा सौ योजन से भी ‘गंगा’ के नाम का उच्चारण करने मात्र से मनुष्य के तीन जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। पदम् पुराण के अनुसार गंगा सभी प्रकार के पतितों का उद्धार कर देती है। भविष्य पुराण कहता है कि हरिद्वार, प्रयाग और गंगा के समुद्र-संगम में स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग पहंुँच जाता है और फिर कभी उत्तपन्न नहीं होता। उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है। मनुष्य गंगा के महत्व को मानता हो या न मानता हो, यदि वह गंगा के समीप मृत्युु को प्राप्त हो जाए तो वह स्वर्ग को जाता है। रामायण में गंगा को समुद्र पत्नी कहते हुए अत्यंत पवित्र और पापहारिणी कहा गया है।
महर्षि वेदव्यास ने महाभारत के अनुशासन पर्व में गंगा का महत्व दर्शाते हुए लिखा है ‘‘दर्शन से जलपान तथा नाम कीर्तन से सैकड़ों तथा हजारों पापियों को गंगा पवित्र कर देती हैं’’ गंगाजल को ‘गंगाजलं पावनं नृणाम्’ कह कर सबसे अध्कि तृप्तिकारक माना है। तुलसीदास ने भी ‘‘गंगा सकल मुद मंगल मूला, सब सुख करनि हरनी सब सूला’’ कह कर गंगा का गुणगान किया है। हिन्दू ही नहीं मुसलमानों ने भी गंगा जल के महत्व को स्वीकार किया है। मुगल बादशाहों के मन में गंगा जल के प्रति बहुत श्रद्धा रही है। ‘अकबर सदैव गंगाजल ही पीया करता था।’ आईन-ए अकबरी में अब्दुल पफजल ने गंगा जल के मिठास की प्रशंसा की है। औरंगजेब अपनी सेनाओं तक के लिए गंगाजल का प्रबन्ध करता था। स्वामी रामतीर्थ ने भाव विभोर होकर कहा था-‘‘गंगा माई तेरी बलि जाऊँ, हाड़-मांस का पफूल बताशा, तुझको अर्पित कर जाऊँ।’’
इंग्लैण्ड के सम्राट एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में जाते समय जयपुर के राजा सवाई माधेसिंह (द्वितीय) चांदी के दो घड़ों मंे हरिद्वार से गंगा का 615 लीटर जल ले गए थे। ये घड़े उनकी मृत्यु के पश्चायत् 1922 में राजप्रासाद में रख दिये गये थे। 1962 में जब उन्हें खोला गया तब भी गंगा जल वैसा ही निर्मल व स्वच्छ था। 1983 में हरिद्वार में गंगा जल का परीक्षण करने वाले यूनेस्को के वैज्ञानिकों ने पाया कि गंगा में मुर्दों, हड्डियों आदि विभिन्न प्रदूषणांे के बहने पर भी कुछ ही पफीट नीचे जल पूर्णतः स्वच्छ था। गंगा की यह निर्मलता उसके अविरल प्रवाह के कारण है।
वर्नियर और इब्नबतूता जैसे विदेशी यात्रियों ने भी गंगा के महत्व का वर्णन किया है। अनेक लेखकों ने गंगा जल के मिठास, स्वाद और हल्केपन की प्रशंसा की है। गंगाजल सैंकड़ों मील दूर जानवरों की पीठ पर पहुँचाया जाता था। मैगस्थनीज ने अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व लिखा था कि ‘‘भारतीयों के केवल दो ही मुख्य आराध्य देव थे, इन्द्र और गंगा।
विश्व विजय का सपना देखने वाला सिकंदर भी गंगा तट तक पहुँचना चाहता था। सिकंदर ने अपने थके हुए सैनिकों को सम्बोध्ति करते हुए कहा था, ‘‘यदि कोई मेरे इस युद्ध का अंत सुनना चाहता है तो उसे यह जानना चाहिए कि जब तक हम गंगा तक नही पहुंचें, इसका अंत नहीं है।’’
पुराणों के अनुसार गंगा में स्नान करने से मनुष्य पाप मुक्त हो जाता है और उसका जल पीने से अमरत्व प्राप्त करता है। इस धर्मिक भावना के पीछे गंगा जल की शुद्धता और उसकी औषध्ीय शक्ति है। गंगा का नाम सुनने, इसके दर्शन की अभिलाषा अथवा इसकी स्तुति मात्रा से ही प्राणियों को अमरत्व की प्राप्ति होती है। गंगा की महानता के विषय में कहा गया है कि पिता, पति, मित्र और सम्बन्धियों के पतित, दुष्ट व चाण्डाल होने पर उनके संबंध्ी उनका त्याग कर देते हैं किन्तु गंगा उनको परित्यक्त नहीं करती।
स्कन्द पुराण में गंगा स्नान के विशिष्ट पुण्य फलों की प्राप्ति इस प्रकार बताई गई है-साधारण दिनों की अपेक्षा अमावस्या पर स्नान करने से सौ गुना पफल प्राप्त होता है। सक्रान्ति पर स्नान करने से सहस्र गुना सूर्य अथवा चन्द्र ग्रहण पर स्नान करने से सौ लाख गुना और सोमवार को चन्द्र गहण पर और रविवार को सूर्य ग्रहण पर स्नान करने से असंख्य फल प्राप्त होता है। स्नान यदि शास्त्र सम्मत तथा विधि विधन पूर्वक मंत्र उच्चारण के साथ किया जाये तो उसका पफल दुगना हो जाता है। गंगा के आह्वान का ‘नमांे नारायणाय’ विशेष मंत्र बताया गया है। ।
चरक संहिता में गंगा जल को मीठा, गुणकारी और स्वास्थ्यवधर््ाक कहा गया है। भण्डारकर ऑरियन्टल इंस्टीट्यूट पूना में अठारहवीं शताब्दी का एक हस्तलिखित ग्रन्थ है ‘भोजनकुतूहल’। उसका एक श्लोक है-
शीतं स्वादु स्वच्छमत्यन्तरुच्यं पथ्यं पाचनं पापहारि।
तृष्णा मोहधवसनं पापनं च प्रज्ञां धत्ते वारि भागीरथीयम्।।
विष्णु पुराण में गंगा महात्मय-
‘‘ गंगा जल में स्नान करने से शीघ्र पाप का नाश होकर अपूर्व पुण्य की प्राप्ति होती है, जिसके प्रवाह में पुत्रों के द्वारा पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किया हुआ एक दिन का भी तर्पण उन्हें सौ वर्ष तक दुर्लभ तृप्ति प्रदान करता है, जिसके तट पर राजाओं ने महायज्ञों से यज्ञेश्वर भगवान पुरूषोत्तम का भजन करके इहलोक और परलोक की परम सिद्धि लाभ किया है। जिसके जल में स्नान तथा यशोगान करने से ही नित्य प्रति प्राणियों को पवित्र करती रहती है तथा जिसका गंगा ऐसा नाम तीन सौ योजन की दूरी से भी उच्चारण किये जाने पर जीव के तीन जन्मों के संचित पापों को नष्ट कर देता है त्रिलोकी को पवित्र करने में वह गंगा जिससे उत्पन्न हुई है, भगवान का तीसरा परम पद है।’’
.ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार-
नरनरविघं महत्स्वल्पं पापं स्याद्भारते नृभिः ।
गंगायाः स्पर्शवातेन नश्यतीति श्रुतौ श्रुतम् ।
स्पर्शनं दर्शनाद्देव्याः पुण्यं दशगुणं ततः ।।
अर्थात ‘‘भारतवर्ष में मनुष्यों द्वारा जो छोटे बड़े पाप हो जाते हैं वे गंगा के स्पर्श वायु क्षरा नष्ट हो जाते हैं ऐसा वेद में सुना गया है। देवी गंगा के दर्शन से स्पर्श करने में दश गुना पुण्य अधिक होता है।’’
वृहन्नारदीय पुराण के अनुसार-
सर्वेषामपि तीर्थानां श्रेष्ठा गंगा ध्रातले ।
न तस्या सदृशं किंचित् विद्यते पाप नाशनम्।।
अर्थात ‘‘ इस पृथ्वी पर सभी तीर्थों में गंगा श्रेष्ठ है, उसके समान पापों का नाश करने वाला कोई अन्य तीर्थ इस भूमण्डल में नहीं हैं’

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