स्थानीय बोली-भाषाएं : उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक पहचान

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

भाषा का सीधा संबंध संस्कृति से होता है। स्थानीय बोली-भाषाएं जिन्हें लोकभाषाएं भी कहा जाता है, उत्तराखण्ड का परिचय हैं। यह हमारी सांस्कृतिक विरासत और पंरपराओं की ‘‘विविधता में एकता’’ को सहेजती है और उन्हें शब्द देती है। इसीलिए उत्तराखण्ड की बोली-भाषाओं के गौरवशाली अतीत के संबंध में भाषा विज्ञानी भी मानते हैं कि यहां की बोली-भाषाएं अपने उद्गम, विकास, शब्द संपदा, विन्यास और स्वरूप की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध हैं। बोलियों एवं उपबोलियों में आधारभूत एकता व साम्यता के साथ कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी, भोटी, रंग आदि के नामों में भिन्नता तो है लेकिन ये बोली-भाषाएं एक-दूसरे की घनिष्ठ सहयोगी और उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक पहचान हैं।
अपने प्रारंभिक रूप में प्रत्येक भाषा ‘बोली’ ही होती है। शिक्षित व्यक्ति या समाज द्वारा बोली को नियमों में बांध कर किया गया प्रयोग ‘‘मौखिक भाषा’’ कहलाता है। भाषा जब व्याकरणिक नियमों में बंधकर शिक्षित साहित्य का रूप धारण करती है तो उसे लिखित साहित्यक भाषा कहा जाता है। यहीं से भाषिक सिद्धांतों का जन्म होता है। कालांतर में उत्तराखंड में भी उसी तर्ज पर प्राचीन भाषाओं को जीवित रखने के लिए शिलालेखों, शिलापटों तथा ताम्र पत्रों पर अभिलेखों का क्रम आरंभ हुआ। पर्वतीय प्रदेश में छोटे-छोटे गढ़पति और राजाओं की सीमाओं का विस्तार जहाँ तक रहा उनमें बोलियों की विविधता विद्यमान रही है। किन्तु यहाँ क्षेत्रानुसार संपर्क भाषा के रूप में प्रमुख रूप से कुमाऊँनी, गढ़वाली और जौनसारी ने ही अपना स्थान बनाया है।
हमारी सांस्कृतिक, परंपराएं और रीति रिवाज दिन-प्रतिदिन बदल रहे हैं। बदलते युग के साथ चलने के लिए बदलाव बेहत जरूरी होते हैं, लेकिन संस्कृति में बदलाव के बजाय विकास की आवश्यकता अधिक महत्वपूर्ण होती है। बोली-भाषाएं इसी संस्कृति का हिस्सा हैं जिनके संरक्षण और संवर्धन की आज आवश्यकता महसूस की जा रही है। अगर किसी भी भाषा का पठन-पाठन नहीं होगा या वह विद्यालयों में पढ़ाई नहीं जायेगी तो उसकी व्यावहारिकता धीरे-धीरे कम हो जाती है। इसीलिए विश्व में कई बोली-भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं और कइयों पर संकट मंडरा रहा है। लोकभाषाओं पर अनुपूरक पुस्तक अथवा वैकल्पिक विषय पाठयक्रम में शामिल करना उत्तराखण्ड की बोली-भाषाओं के संरक्षण और विकास में अत्यंत सहायक सिद्ध हो सकता है।
किसी भी संस्कृति के विकास और संरक्षण के लिए ‘भाषा’ का विकास जरूरी है। इसके लिए शिक्षा में सुधार के साथ समाजिक, वैचारिक और व्यावहारिक शिक्षा में बेहतर रिश्ते कायम करने, लोगों में साहित्य व भाषा के विकास की समझ पैदा करने व प्रेरणा देने से बोली-भाषाओं का संरक्षण और उनका विकास कार्यक्रम गतिमान रह सकता है।
उत्तराखण्ड की बोली भाषाओं को गढ़वाली-कुमाऊँनी साहित्य, चलचित्र, रंगमंच, रेडियो-टीवी और मीडिया ने देश-विदेश में पहुंचाया है। सोशल मीडिया के माध्यम से भी कुछ जागरूक लोगों द्वारा अपनी भाषा को बचाने और उसके प्रसार के प्रयास किये जा रहे हैं। कुमाऊँनी-गढ़वाली भाषा में कई पत्र-पत्रिकाएं और लगभग सभी विधाओं में साहित्य भी उपलब्ध है। इनमें न शब्द संपदाओं की कमी है न ही लेखकों व पाठकों की कमी है। उत्तराखंडी भाषाओं के कई कवि, गीतकार, संगीतकार, कलाकार, साहित्यकार, व पत्रकार अपनी मातृभाषा को समृद्ध करने में लगे हैं। अगर घर, बाहर, कार्यालय व व्यावसायिक कार्यों में भाषाई निरंतरता बनी रहेगी तो बोली-भाषाएं निश्चित रूप से जीवित रहेंगी। दूरदर्शन और विभिन्न चैनल कुमाऊँनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषाओं पर समय-समय पर कार्यक्रम प्रसारित कर भाषाई प्रसार कर रहे हैं। आकाशवाणी अल्मोड़ा, कुमाऊँनी भाषा में गीत, संगीत, लेख, कहानी, कविताएं प्रसारित कर रहा है। आकाशवाणी नजीवाबाद केंद्र से कुमाऊँनी, गढ़वाली, जौनसारी में कार्यक्रम प्रसारित होने से उत्तराखण्ड की बोली-भाषाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है।
भारतीय भाषाओं में साहित्य लेखन को प्रोस्ताहित करने के उद्धेश्य से स्थापित साहित्य अकादमी ने भी गढ़वाली एवं कुमाऊँनी भाषा को अन्य भारतीय भाषाओं के समान ही मान्यता प्रदान की है। इन दोनों भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए लगातार प्रयास हो रहे हैं। गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज ने गढ़वाली-कुमाऊँनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए निजी संविधान संशोधन बिल भी संसद में प्रस्तुत किया जिसे कई अन्य सांसदों का भी समर्थन प्राप्त हुआ था।
लोक गीत, कथा गीत, लोक कथाएं, कथाएं, लोकोक्तियां, पहेलियाँ व अन्य रचनाएं उत्तराखंड की बोली-भाषाओं के विकास में अत्यंत सहायक रही हैं। अलग-अलग माध्यमों से इन बोली-भाषाओं को बचाने, विकास करने और व्यावहारिक बनाने के लिए प्रयास भी हो रहे हैं। बोली भाषाओं के अनेक शब्दकोष और व्याकरण प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. नारायणदत्त पालीवाल और डॉ. केशवदत्त रूबाली के कुमाऊँनी शब्दकोश, चन्दशेखर ‘आजाद’ के गढ़वाली-हिंदी कहावत व मुहावरा कोष, रजनी कुकरेती द्वारा लिखित ‘गढ़वाली भाषा का व्याकरण’ आदि अनेक उल्लेखनीय कृतियाँ हैं।
मध्य पहाड़ी की उप-बोलियों गढ़वाली और कुमाऊँनी में कई शोध हुए हैं। कुमाऊँनी में डॉ. त्रिलोचन पाण्डे, डॉ. मोहन उप्रेती, डॉ. के.एन.जोशी, डॉ. भवानीदत्त उप्रेती और डॉ. नारायणदत्त पालीवाल ने महत्वपूर्ण कार्य किया है। गढ़वाली में डॉ. गोविन्द चातक ने जहाँ लोकगीत, गाथाओं एवं कथाओं का संग्रह किया है वहाँ मोहनलाल बाबुलकर ने ‘गढ़वाली लोक साहित्य का विवेचनात्मक अध्ययन’ पुस्तक लिखकर गढ़वाली लोक साहित्य के शोध के परिप्रेक्ष्य में नई दिशा दी है।
लोकवार्ता-लोकसाहित्य के समग्र संग्रह और संकलन में डॉ. गोवन्द चातक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योग है। डॉ. चातक ने पहली बार लोकगीतों, गाथाओं, कथाओं, पहेलियों, लोकोक्तियों इत्यादि का ‘गढ़वाली लोकगीत’ संग्रह किया। डॉ. हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’ का नाम भी गढ़वाली लोकसाहित्य और गढ़वाली भाषा के साहित्य के लिए, किये गये कार्य के लिए उल्लेखनीय है। डॉ. शैलेश ने गढ़वाली लोकसाहित्य के साथ गढ़वाली भाषा और उसके विकास तथा गढ़वाली बोली-भाषा के व्याकरण और उसके साहित्य पर विशेष बल दिया। गढ़वाली लोकभाषा की लिखित परंपरा के ऐतिहासिक क्रम के अतिरिक्त गढ़वाली के अनेक विद्वानों मोहनलाल बाबुलकर, डॉ. गोविन्द चातक, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, भजन सिंह ‘सिंह’, भगवती प्रसाद पांथरी, अबोधबंधु बहुगुणा आदि ने गढ़वाली भाषा के विकास का विस्तृत वर्गीकरण भी किया है।
कई विद्वान गढ़वाली लोकभाषा की लिखित परंपरा का समय सन् 1850 तो कोई सन् 1892 और कई विद्वान सन् 1900 मानते हैं। प्रारम्भ की हरिकृष्ण दौर्गादित्ती, हर्षपुरी और लीलानन्द कोटनाला की रचनाएं हैं। सन् 1892 में गढ़वाली भाषा में मिशनरियों ने बाइबिल प्रकाशित की। गोविन्द प्रसाद धिल्डियाल ने हितोपदेश तथा 1905 में गढ़वाली अखबार प्रकाशित हुआ। इसके बाद लोगों में अपनी भाषा और साहित्य के प्रति ललक उत्पन्न हुई। लोक भाषाओं के इतिहास, विकास, स्वरूप, लोक साहित्य, व्याकरण, मानकीकरण आदि विषयों पर आयोजित हो रहे सम्मेलन और परिचर्चाएं लोक भाषाओं के संरक्षण और विकास की अवधारणा को रेखांकित कर रही हैं। इस संबंध में 12 से 15 नवबंर, 2010 को अल्मोड़ा और 16 से 18 अप्रैल, 2011 को देहरादून में आयोजित लोकभाषा सम्मेलन उल्लेखनीय है।
मध्यकाल में राजसत्ताओं के अपनी विलासिता में व्यस्त रहने के कारण उसने भाषाई प्रोत्साहन पर ध्यान केंद्रित नहीं किया। जिससे उत्तराखंडी समाज में व्यापक रूप से भाषायी विविधता उत्पन्न हुई और यहाँ की तीन प्रमुख भाषाएं कुमाऊँनी, गढ़वाली ओर जौनसारी अलग-अलग ध्वनि समूहों में बंट गई। भाषाओं के अलग-अलग ध्वनि सूहों में बंटने का एक प्रमुख कारण उस समय उत्तराखंड का संगठित राजनीतिक इकाई न होना भी रहा।
उत्तराखंड से पलायन और नई पीढ़ी द्वारा अभिव्यक्ति के लिए कुमाऊँनी, गढ़वाली व जौनसारी भाषाओं का उपयोग कम करने से इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या में लगातार कमी आ रही है उसके स्थान पर सिर्फ फैशन के लिए भाषाओं को बोलने का प्रचलन बढ़ने से तीनों की भाषाओं के मूल शब्द, ध्वनियां, उच्चारण एवं अभिव्यक्तियां लुप्त होती जा रही है और उनके स्थान पर नकली स्वरूप ग्रहण कर रही हैं। भाषा के साथ संस्कृति और सभ्यता का अटूट रिश्ता है अगर भाषा समाप्त होती है तो एक मानव सभ्यता का अंत होता है इसीलिए यह एक गंभीर चिंता का विषय है।
कुमाऊँ मंडल में अनेक स्थानीय बोली भाषाएं प्रचलित रही हैं। इनमें कुमाऊँ व गढ़वाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में कुमाऊँनी-गढ़वाली के मिलेजुले रूप वाली ‘मझकुमैया’, नैनीताल के रौ व चौमेसी पट्टी में ‘रचभैसी’, हल्द्वानी, काठगोदाम और भीमताल आदि भावर क्षेत्रों में ‘नैणतलिया’, टनकपुर से काषीपुर तक के भावर क्षेत्र में ‘भावरी’, नैनीताल से सटे काली कुमाऊँ क्षेत्र में ‘कुमैया’ भाषा का प्रचन रहा है। इससे उपर के जोहार परगने में तिब्बती भाषा के प्रभावयुक्त ‘जोहारी’, जोहार के दक्षिणी व परगना दानपुर के उत्तरी भाग में ‘दनपुरिया’, सोर परगने और पूर्वी गंगोली के कुछ क्षेत्र में ‘सोर्याली’, बारामंडल और दानपुर के आस-पास ‘खस पवराजिया’, अल्मोड़ा के दक्षिण भाग से लेकर गढ़वाल सीमा तक ‘पछाई’, दानपुर की कुछ पट्टियों व गंगोली परगने में ‘गंगोई’, अस्कोट परगने में नेपाली भाषा के प्रभाव वाली ‘असकोटी’ अस्कोट के पश्चिम में सिरा परगने में ‘सीराली’ फल्दाकोट परगना व नैनीताल, अल्मोड़ा तथा पाली पछाऊँ के कुछ भागों में ‘फल्दाकोटी’ तथा कुमाऊँ के उत्तर तथा तिब्बत (चीन) व नेपाल से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘भोटिया’ भाषा का प्रचलन है।
गढ़वाल में ‘गढ़वाली’ मुख्य भाषा व्यावहार में लाई जाती है उसकी उप बोलियों में श्रीनगरी, नागपुरिया, दस्यौल्यां, बधानी, राठी, मांझ-कुमैया, सलाणी, टिहरियाली हैं। टिहरियाली के भी उपभेद हैं जिसमें टकनौरी, बाड़ाहाटी, स्मोल्या, जौनपुरी, रवांल्टी और बडियारगढ़ी शामिल हैं। तिब्बत की सीमा से जुड़ी भोटिया तथा उत्तरकाशी के पश्चिमी भाग में हिमाचल प्रदेश से सटे क्षेत्र में बंगाणी तथा जौनसारी का अस्तित्व है।
छान्दोग्योपनिषत् (7.2.1) में कहा गया है-‘‘यद्वै वाड्. नाभविष्यन्न धर्मो नाधर्मो व्यज्ञापयिष्यत्। न सत्यं नानृतं न साधु नासाधु न हृदयज्ञो नाहृदयज्ञो, वागेवैतत्सर्वं विज्ञापयति वाचमुपास्वेति।। अर्थात- यदि वाणी का अस्तित्व न होता तो धर्म और अर्धम का, सत्य और असत्य का, साधु और असाधु का, प्रिय और अप्रिय का ज्ञान न हो सकता। केवल मात्र वाणी के माध्यम से ही इनका ज्ञान होता है। इसलिए वाणी की उपासना करो। यहाँ यह कथन इसलिये उपयोगी हो जाता है कि अगर मुख में वाणी नहीं होगी तो भाषा के शब्द भी नहीं फूटेंगे और मनुष्य की स्थिति मुक, बधिर जैसी होगी।
कुमाऊँनी-गढ़वाली बोली-भाषाओं की विशिष्टता है कि उनके वर्णों के उच्चारण में यहाँ का पूरा सांस्कृतिक इतिहास सिमटा हुआ है। वर्णों के लेखन में अंग्रेजी व रोमन वर्ण की तरह ऐसा अंतर नहीं है कि अपनी वाणी से बोला कुछ जाए और लिखा कुछ जाए। दोनों भाषाओं मे कंठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि उच्चारण स्थान मुख में स्थित हैं। इसीलिए अपनी सार्वभौमिकता, व्यापकता, सरलता और सर्वप्रियता की शब्द संपदा से भरपूर लोकभाषाओं की लिखित पंरपराओं के और अधिक उन्नयन और नवजागरण के शंखनाद की आवश्यकता है।

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