स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड का योगदान

त्रिलोक चन्द्र भट्ट

भारत की आजादी का इतिहास उत्तराखंड के वीरों के अनुपम शौर्य, पराक्रम, बलिदान एवं गौरवशाली सैनिक परम्पराओं की गाथाओं से भरा पड़ा है। इस धरती ने ऐसे क्रांति वीरों को जना है जिन्होंने विदेशी आक्रान्ताओं के सम्मुख घुटने टेकने से बेहतर मौत को गले लगाकर देश के लिए मर मिटना बेहतर समझा। कठिन से कठिन परिस्थितियों मे संघर्ष करने की शक्ति उत्तराखंडियों की विशेेषता रही है। यहाँ की जनता को भारत के स्वतंत्र होने तक अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक आजादी के लिए तीन-तीन राजसत्ताओं से संघर्ष करना पड़ा। इसके बावजूद वह न कभी थकी, न कभी रूकी और नही उसने हिम्मत हारी। जनता का पहला संघर्ष स्थानीय नरेशों अथवा गढ़पतियों की वह राजसत्ता थी जिनके राज्य में वह पीढ़ी दर पीढ़ी जुल्म सह रही थी। दूसरी राजसत्ता स्थानीय राजाओं व गढ़पतियों को पराजित करने वाले गोरखों और तीसरी राजसत्ता गोरखों के शासन से मुक्ति दिलाने वाले उन अंग्रेजों की थी जिनकी दास्ता से मुक्ति के लिए सैकड़ों लोगों ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था।
जब गढ़वाल एवं कुमाऊँ में आंचलिक अधिपतियों के अस्थिर शासन में जनता पर अत्याचार हो रहे थे उन्हीं दिनों नेपाल की छोटी बड़ी ठकुराइयों कों संगठित कर गोरखा-राजशक्ति ने पश्चिम की ओर बढ़ते हुए सं. 1846 के माघ मास (जनवरी 1790) में कुमाऊँ पर आक्रमण करने हेतु प्रयाण किया और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन अल्मोड़ा पर अधिकार कर कुमाऊँ पर अपना कब्जा किया। 12 वर्ष बाद सन् 1803 में उन्होंने गढ़वाल का रूख किया। सं. 1860 के आश्विन (अक्टूबर 1803) को दून उपत्यका पर अधिकार कर, माघ सं. 1860 (जनवरी, 1804) के युद्ध में देहरादून के खुड़बुड़ा मैदान में राजा प्रद्युमन शाह की मृत्यु के साथ ही पूरे उत्तराखण्ड पर गोरखों का शासन कायम हुआ।
गोरखा राज्य में शोषण और अत्याचार के साथ मनमाने कर लगाने और लोगों को दास-दासियों के रूप में बेचने जैसे घृणित कार्य हुए। उनके अत्याचारों से पीड़ितों स्थानीय लोगों द्वारा मिली ‘गोरख्योल’ नाम की बदनामी गोरखों के उत्तराखण्ड छोड़ने के बाद भी नहीं गई। गढ़वाल और कुमाऊँ में गोरखों की शोषण और दमनकारी नीति का छुट-पुट विरोध उनकी क्रूरता के आगे टिक नहीं सका परिणामतः 24 सालों तक पहाड़ की असक्त जनता लुटती-पिटती रही। सन् 1815 में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ ही उत्तराखण्ड में गोरखों के 25 वर्षीय सामन्ती सैनिक शासन का भी अंत हुआ। 1916 में नेपाल और अंग्रेजों के मध्य हुई सिगौंली संधि के अनुसार पूर्वी छोर पर स्थित दार्जिलिंग व तिस्ता, दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में बसे नैनीताल, पश्चिमी छोर पर बसे कुमाऊँ, गढ़वाल के अलावा कुछ तराई के इलाकों का एक-तिहाई इलाका नेपाल को ‘ब्रिटिश भारत’ के अधीन देना पड़ा।
इसके बाद से उत्तराखंड में अंग्रेजों की पराधीनता के एक और नये अध्याय की शुरूआत हुई। टिहरी राज्य को छोड़कर शेष ब्रिटिश गढ़वाल एवं कुमाऊँ को 132 वर्ष तक ब्रिटिश हुकुमत की दासता सहनी पड़ी। टिहरी की जनता को भी लंबे संघर्ष और जनविद्रोह के बाद अगस्त, 1949 में राज्य के भारतीय संघ में विलय के बाद राजशाही के जुल्म और अत्याचारों से मुक्ति मिली। लेकिन अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ आरंभ हुए राष्ट्रीय आन्दोलन सेे पूरे उत्तराखंड को स्वाधीनता के लिए एक साथ खड़ा होने का अवसर मिला। ब्रितानी हुकुमत के खिलाफ अनेकों स्थानीय आन्दोलनों के साथ 1920 में असहयोग आन्दोलन, 1930 में नमक सत्याग्रह और 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो जैसे राष्ट्रीय आन्दोलनों में उत्तराखण्ड की जनता और स्थानीय नेताओं ने दृढ़ता के साथ अपनी सशक्त भूमिका का प्रदर्शन किया।
यहाँ सन् 1920 में वर्ष कुली बेगार विरोधी आन्दोलन भी अपने चरम पर था लेकिन सरकार उसे गंभीरता से नहीं ले रही थी। 14 जनवरी, 1921 को बागेश्वर के प्रसिद्ध उत्तरायणी मेलें में ‘‘कुली उतार बंद करो’’ बैनर के साथ कुमाऊँ परिषद का विशाल जलूस सरयू तट पर ब्रहद सभा में बदला और यहां सरयू तट पर कुली बेगार न देने की शपथ ली गई। पहली बार कुली रजिस्टर मालगुजारों ने द्वारा सरयू नही ंके प्रवाह में डाले गये। गढ़वाल के चमेठाखाल में मुकुंदीलाल की अध्यक्षता में महत्वपूर्ण सभा हुई। खन्द्वारी के ईश्वर दत्त ध्यानी और बन्दगणी के मंगतराम खंतवाल ने मालगुजारी से त्याग पत्र दे दिया।
30 मई 1930 को यमुना नदी के तट पर तिलाड़ी के मैदान (चांदा डोखरी) में भूमि एवं वनों से जुड़े अपने पुस्तैनी हक-हकूकों की बहाली के लिए संघर्षरत हजारों किसानों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर आजाद पंचायत की घोषणा की। राजा के सैनिकों की गोलियांे से 6 आन्दोलनकारी अजीत सिंह, झूना सिंह, गौरू, नारायण सिंह, भगीरथ तथा हरिराम शहीद हुये। 7 आन्दोलनकारी गुन्दरू, गुलाब सिंह ठाकुर, ज्वाला सिंह, जमन सिंह, दिला, मदन सिंह तथा लुदर 1931 और उसके बाद कारागार में शहीद हुए। राजशाही के विरूद्ध 84 दिन की भूख हड़ताल करने पर 25 जुलाई 1944 को श्रीदेव सुमन की भी टिहरी जेल में ही सहादत हुई। 1948 में कीर्तिनगर कचहरी पर कब्जा कर तिरंगा फहराने के बाद राज्य प्रशासन द्वारा कब्जा वापिस लेने के असफल प्रयास में चलाई गई गोली से नागेन्द्र सकलानी तथा भोलू राम भरदारी शहीद हुए।
9 अगस्त, 1942 को मुंबई से महात्मा गांधी के सत्याग्रह की लपट सुदूर सालम में भी फैली थी। ब्रितानी शासकों ने आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। 25 अगस्त, 1942 को धामद्यों में अंग्रेजी फौज व क्रांतिकारियों में जर्दस्त संघर्ष हुआ। गोलीबारी में नर सिंह धानक व टीका सिंह कन्याल शहीद हुए। इसी वर्ष देघाट में हरिकृष्ण और हीरामणि तथा 5 सितंबर को खुमाड़ (सल्ट) में खिमानंद, गंगादत्त, चूड़ामणि, बहादुर सिंह शहीद हुए। अल्मोड़ा जिले में खुमाड़ (सल्ट) के आन्दोलन को महात्मा गाँधी ने ‘कुमाऊँ की बारदोली’ कहा था। यही कारण था कि उत्तराखण्ड में स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन स्वतंत्रता प्राप्ति के अनवरत रूप से जारी रहा। बोरारौ निवासी रतन सिंह, उदय सिंह, किशन सिंह, बाग सिंह, दीवान सिंह, अमर सिंह, तथा त्रिलोक सिंह चनौदा आश्रम के त्रिलोक सिंह पांगती, चनौदा के बिशन सिंह, हल्दूचौड़ के रामकृष्ण दुमका व पहाड़कोटा के दीवान सिंह भी गिरफ्तारी के बाद जेलों में शहीद हुए।
हम भले ही 10 मई 1857 की क्रांति को देश की आजादी की क्रांति और स्वतंत्रता संग्राम की कालावधि सन् 1857 से 1947 मानते हों, लेकिन ऐसी क्रांति और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में उत्तराखण्ड कहीं आगे रहा है। अंग्रेजी गजट के अनुसार रूड़की (हरिद्वार) में यह क्रांति अक्टूबर, 1824 में ही भड़क चुकी थी। रूड़की के निकट कुंजा ताल्लुका में राजा विजय सिंह ने नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ पहला युद्ध हुआ। इसमें बड़ी संख्या में आस-पास के गाँवों के रहने वाले लोग शहीद हुए और पकड़े गये। गिरफ्तार किये गये उन सौ से अधिक लोगों को सुनहरा स्थित वट वृक्ष पर फांसी दे दी गई जिनके नाम, पते तक इतिहास में दर्ज नहीं हैं। वह वृक्ष आज भी कुंजा ताल्लुका के विद्रोह एवं अंग्रेजों के जुल्म का मूक साक्षी है। सहारनपुर के तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट सर राबर्टसन ने रामपुर, कुंजा, मतलबपुर आदि गाँवों से ग्रामीणों को पकड़ कर इस पेड़ पर सरेआम फांसी पर लटकवाया था। जिसकी टहनियों पर लोहे के कंुडे और जंजीरे आजादी के बाद भी कई वर्षों तक लटकी रही। 1910 में लाला ललिता प्रसाद ने इस वट वृक्ष वाली भूमि को खरीदा जहॉं मंत्राचरणपुर गॉंव बसाया गया जो बाद में सुनहरा के नाम से जाना गया। भारत की आजादी के बाद 1957 में पहली बार इस पेड़ के नीचे तत्कालीन ज्वाइंट मजिस्ट्रेट वी.एस. जमेल की अध्यक्षता में आयोजित कार्यक्रम में शहीदों को श्रंद्धजलि दी गई।
पहले स्वतंत्रता संग्राम 1857 में गदर का नाम देकर अंग्रेजों को देश भर में आन्दोलनकारियों के दमन का अवसर मिला तो उन्होंने इसका लाभ उठाकर कई अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को नैनीताल में भी फांसी पर लटकाया। ऐतिहासिक अभिलेखों में यह स्थल फांसी गधेरे के नाम से दर्ज है। 1857 के प्रथम आजादी के संघर्ष के दौरान जब अंग्रेज कमिश्नर रामजे ने उत्तर भारत का चार्ज लिया था तब स्वतंत्रता संघर्ष चरम पर था। 17 सितंबर को एक हजार लोगों ने हल्द्वानी में कब्जा कर लिया था। तब अंग्रेज तक मैदानों से भाग कर नैनीताल आए। 18 सितंबर को मैक्सवेल ने हल्द्वानी में कब्जा किए लोगों को हराया। 16 अक्टूबर को पुनः हल्द्वानी में कब्जा कर लिया। बाद में अंग्रेजों ने छापे मारे। जेल से कैदियों को छुड़ा कर रामजे ने कैदियों से कुली बेगार का काम लिया।
1857 में रूहेला नवाब खानबहादुर खान, टिहरी नरेश और अवध नरेश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए सशर्त पूर्ण सहयोग देने का वायदे की पृष्ठभूमि में काली कुमाऊँ में कुटौलगढ़ क्षेत्र के कालू माहरा ने चौड़ापिता के बोरा, रैंधों के बैडवाल, रौलमेल के लडवाल, चकोट के क्वाल, धौनी, मौनी, करायत, देव बोरा, फर्त्याल आदि लोगों के साथ अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंडा उठाया। जिसमंे सेनापति की जिम्मेदारी उन्हें ही मिली। इन्होंने पहला आक्रमण लोहाघाट के चांदमारी स्थित अंग्रेजों की बैरकों पर किया। आक्रमण से घबरा कर अंग्रेज बैरकों को छोड़ कर भाग खड़े हुए और आजादी के दीवानों ने बैरकों को आग के हवाले कर दिया। परिणाम स्वरूप अंग्रेज उनके पीछे पड़ गये, उनके दो विश्वस्त मित्र आनंद सिंह फर्त्याल व विशन सिंह करायत को अंग्रेजों ने लोहाघाट के चांदमारी में गोली से उड़वा दिया। कालू माहरा का घर जला दिया गया, उसके घरवालों और साथियों ने भी उसे छोड़ दिया लेकिन कुछ विश्वासपात्रों के साथ संघर्ष करते हुए वह अंग्रेजों के लिए आतंक का प्रयाय बने रहे।
स्वतंत्रता आन्दोलन में यहां की महिलाओं की बहुत बड़ी भूमिका रही है। जंगलात के हक-हकूक समाप्त करने पर सोमेश्वर में हुए आन्दोलनों में दुर्गा देवी को जंगल में आग लगाने के कारण एक माह की सजा हुई। यह जंगलात सत्याग्रह और राष्ट्रीय आन्दोलन में गिरफ्तार होने वाली यह कुमाऊँ की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम महिला थी। उत्तराखंड के स्वतंत्रता संग्राम में कुन्ती वर्मा भी वह नाम है जिनका जेल से चोली दामन का साथ रहा। 1930 में कुन्ती वर्मा ने अल्मोड़ा में ब्रटिश सरकार के विरोध में 100 से अधिक महिलाओं को संगठन गठित किया। सत्याग्रहियों की धरपकड़ के बाद नगरपालिका पर तिरंगा फैहराने का कार्यक्रम टलता देख इन्होंने मंगला वर्मा, भागीरथी वर्मा, जीवन्ती देवी व रेवती वर्मा को अपने साथ लिया और नगर पालिका भवन पर झंडा फहरा कर अंग्रेज सरकार के लिए चुनौती प्रस्तुत की। अंततः इन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 1932 में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार और धरना देने के आरोप में पुनः गिरफ्तार कर 6 महिने सजा और जुर्माना लगाया गया। इन्हें नैनीताल में राज्य सचिवालय और राजभवन को घेरने के आरोप में भी 6 माह की कठोर सजा सुनाई गई। इसके बाद 12 मई, 1941 गिरफ्तारी के बाद 23 अगस्त, 1941 को रिहा होते ही एक बार फिर गिरफ्तार कर संेट्रल जेल भेजा गया। लेकिन अंग्रेज सरकार इनके हौसले को नहीं डिगा पाई। बिश्नी देवी साह भी उत्तराखंड की उन प्रमुख महिलाओं में शामिल हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश की आजादी के लिए समर्पित किया। राष्ट्रीय आन्दोलनों में भाग लेने पर दिसंबर, 1930 में इन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेजा लेकिन वे इन्हें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं कर सके। आन्दोलनकारियों के के लिए अपनी जमीन तक बेचने, छिपकर धन जुटाने, सामग्री पहुंचाने तथा पत्रवाहक के कार्य करती रही। 7 जुलाई, 1933 और 1934 में भी इन्हें गिरफ्तार किया गया था। 26 जनवरी, 1940 में अल्मोड़ा के नन्दादेवी प्रांगण में इन्होंने तिरंगा फहरा कर अंग्रेजों को चुनौती दे डाली थी।
यह भूमि स्वतंत्रता सेनानियों और आन्दोलनकारियों की उर्वराभूमि रही है। इसीलिए स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अनेक राष्ट्रीय नेताओं का उत्तराखण्ड से विशेष लगाव रहा उन्होंने नियमित रूप से यहॉं के स्वतंत्रता सेनानियों के संपर्क बनाये रखा। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अग्रेजों से लड़ते हुए कई साल जेल की कोठरियों मे कैद रहे। वर्ष 1932-33 में अंग्रेजों ने नेहरू को गिरफ्तार कर देहरादून जेल में रखा इस दौरान कई और भी स्वतंत्रता सेनानी इनके साथ जेल में रहे। नेहरू सहित कई प्रमुख आन्दोलनकारी अल्मोड़ा की जिला जेल में भी बंद रहे रहे इनमें पं. जवाहरलाल नेहरू (दिनांक 28.10.1934 से 03.02.1935) एवं (दिनांक 16.06.1945 से 15.06.1945) तक दो बार इस जेल में बंद रहे। जबकि हर गोविन्द पंत (दिनांक 25.08.1930 से 11.02.1930), विक्टर मोहन जोशी (दिनांक 25.01.1932 से 18.02.1932), गोविन्द बल्लभ पंत (दिनांक 28.11.1940 से 17.10.1941), देवी दत्त पंत (दिनांक 06.01.1941 से 24.04.1941), आचार्य नरेन्द्र देव (दिनांक 10.06.1945 से 15.06.1945), बद्रीदत्त पाण्डे (दिनांक 20.01.1941 से 18.04.1941), खान अब्दुल गफ्फार खॉं (दिनांक 04.06.1936 से 01.08.1936), सैय्यद अली जहीर (दिनांक 24.04.1939 से 8.06.1939) तक स्वतंत्रता आंदोलन में अल्मोड़ा जेल में रहे।
स्वतंत्रता आन्दोलन के दौर में गाँधी ने उत्तराखण्ड के हरिद्वार, गुरूकुल कांगड़ी, हल्द्वानी, नैनीताल, ताकुला, भवाली, ताड़ीखेत, अल्मोड़ा, कौसानी, बागेश्वर, काशीपुर, देहरादून व मसूरी जैसे स्थानों की यात्रा की। उन्होंने वर्ष 1995 से 1946 तक छह बार उत्तराखण्ड की यात्रा की। वे 14 जून से 4 जुलाई 1929 पहली कुमाऊँ यात्रा के दौरान 14 जून को नैनीताल, 15 को भवाली, 16 को ताड़ीखेत, 18 को अल्मोड़ा, 21 को कौसानी और 4 जुलाई को काशीपुर पहुँचे। सितंबर में गाँधी जी देहरादून व मसूरी की यात्रा पर आये और 18 जून 1931 को वे शिमला से नैनीताल पहुंचे जहॉं 5 दिन के प्रवास पर रहे। 1946 में वे पुनः मसूरी आये और वहॉं 8 दिन तक रहे। उत्तराखण्ड की इन यात्राओं में उनके साथ अलग-अलग स्थानों में र्की महत्वपूर्ण व्यक्ति साथ रहे जिनमें कस्तूरबा गाँधी, मीरा बहन, खुर्शीद बहन, नेहरू, आचार्य कृपलानी, देवदास व प्रभुदास गाँधी, प्यारेलाल, शान्ति लाल त्रिवेदी महावीर त्यागी, स्वामी श्रद्धानंद, आचार्य रामदेव, विक्टर मोहन जोशी, देवकी नन्दन पाण्डे व गोविन्द लाल साह जैसे कई प्रमुख व्यक्ति थे।
गाँधी जी के द्वारा ‘‘करो या मरो’’ और ‘‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’’ का नारा देने पर 1942 में संपूर्ण गढ़वाल एवं कुमाऊँ ने स्वयं को स्वतंत्रता आन्दोलन में झौंका। 8 अगस्त 1942 की रात देवी दत्त पंत, हरगोविन्द पंत एवं देवकीनंदन पाण्डे सहित 7 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था। विरोध प्रदर्शन के दौरान जनता द्वारा डाक बंगला और थाना फूंक दिया गया। अल्मोड़ा और लोहाघाट में धारा 144 लगाकर सभायें आयोजित करने पर रोक लगा दी गई। 9 अगस्त, 1942 को प्रातः करीब 6 बजे पुलिस ने इराकोट गाँव पहुंच कर डॉ. तारादत्त उप्रेती का मकान घेर लिया और उन्हें गिरफ्तार कर अल्मोड़ा जेल भेज दिया। बाद में उनके सहित 30 आन्दोलनकारी अल्मोड़ा से बरेली जेल भेजे गये थे।
यहाँ के लोगों के आजादी के जुनून को अंग्रेजों की जेल और लाठी, गोलियों का भय कभी नहीं रोक पायी। 14 अगस्त, 1942 को ऋषिकुल आर्युेदिक कालेज, हरिद्वार के 17 वर्षीय छात्र जगदीश वत्स और उसके साथियों ने पुलिस के लाठी, डंडांे और गोलियों की परवाह न करते हुए सुभाषघाट, कोतवाली व डाकघर पर तिरंगा फहराया। इन तीन स्थानों की सफलता के बाद जगदीश ने हरिद्वार रलवे स्टेश्न का रूख किया और पाइप के सहारे रेलवे स्टेशन की छत पर चढ़ कर यूनियन जैक फाड़ने के बाद तिरंगा फहरा दिया। इसी दौरान कोतवाल प्रेमशंकर श्रीवास्तव द्वारा चलाई गई गोली से वह नीचे आ गिरा। घायलावस्था में ही जगदीश वत्स से खड़े होकर कोतवाल के थप्पड़ मारते हुए उसे ‘गद्दार’ शब्द से संबोधित किया था।
1942 की जनक्रांति में भगवतीचरण निर्माेही, श्रीलाल थपलियाल, धनेश शास्त्री, प्रेमलाल वैद्य, नारायण पालीवाल, सुन्दर लाल शास्त्री जेल भेजे गये। कई आन्दोलनकारी पौड़ी, बरेली, बिजनौर आदि जेलों मंे रहे। भगवतीचरण निर्मोही 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में 9 माह, 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में एक वर्ष कारागार में रहे। 1943 में नजरबंद भी रहे। टिहरी की जन क्रांति के दौरान 1948 में कुछ आन्दोलनकारियों ने देवप्रयाग में स्वतंत्र सरकार तक बना ली थी। इसमें भगवतीचरण निर्मोही (मुख्यमंत्री), कृष्णकान्त टोडरिया (शासन व न्याय मंत्री), सत्यनाराण शास्त्री मेरठवाल (खाद्य मंत्री), गया प्रसाद शास्त्री (रक्षा मंत्री), तथा रमेश शास्त्री आबकारी मंत्री के नाम की घोषणा की गई। यही नहीं यहाँ एस.डी.ओ., थानेदार, हैड कांस्टेबल और टोल मुंशी तक बनाए गये। सरकार में पदवियां भले ही नाममात्र की थी लेकिन सब आजादी के दीवाने और स्वयं सेवक थे। रूतबा इतना था कि टिहरी में जनता का अधिपत्य होने पर भारत सरकार से भेजे हुए पुलिस सुपरिंटेंडेंट भरत सिंह यादव इस सरकार से चार्ज लेने देवप्रयाग आए और स्वतंत्र सरकार ने 16 जनवरी, 1948 को उन्हें चार्ज सौंपा, तब टिहरी जनक्रांति में देवप्रयाग की स्वतंत्र सरकार समाप्त हुई।
जिस समय वन्दे मातरम का उच्चारण ही भारत में देशद्रोह माना जाता था उस समय सन् 1906 में हरिराम त्रिपाठी ने वन्देमातरम का कुमाऊँनी अनुवाद किया था। 1913 में लाला लाजपत राय का सुनकिया गाँव में आगमन हुआ था। 4 फरवरी, 1923 को लाला लालपत राय ने कुमाऊँ के क्रांतिकारियों को पत्र भी भेजा जिसमें लिखा था कि मेरी मदद की जरूरत हो तो आप मुझे लिखना। 1928 में लंदन से भारत आई कैथरीन मेरी हैलीमन महात्मा गांधी की शिष्या के रूप में सरला बहन बनी। सन 1941 में चनौदा गांधी आश्रम अल्मोड़ा में रहने के बाद 1942 में कौसानी पहुंच कर उन्होंने हमेशा के लिए उत्तराखंड को अपनी कर्मभूमि बनाया। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान सरला बहन ने गिरफ्तार आन्दोलनकारियों को कानूनी सहायता और उनके परिजनों के लिए राहत कार्य का प्रबंध किया। नजरबंदी आदेश का उल्लंघन करने पर उनको स्वयं दो बार जेल भी जाना पड़ा। 1982 में मृत्यु से पूर्व जीवन के अंतिम 4 वर्ष उन्होंने बेरीनाग से करीब 15 कि.मी. दूर धरमघर की हिमदर्शन कुटीर में बिताए।
स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड के योगदान का इतिहास इतना विस्तृत और व्यापक है कि उसे शब्दों में सिमेटना अत्यंत कठिन है। अनेक पुराने ऐतिहासिक चित्रों व अभिलेखों में स्वतंत्रता आंदोलन में उत्तराखंड का योगदान स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।

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