मडुवा उत्पादन को नहीं मिली प्रमुखता

   त्रिलोक चन्द्र भट्ट

कभी-कभी ऐसा होता है कि इंसान जहाँ खड़ा होता है या जहाँ रहता है उसके चारों ओर कई ऐसी उपयोगी सामग्री होती है जिसका उसे बोध नहीं होता। उस उपयोगी सामग्री का पता उसे तब चलता जब अनायास ही वह उसका उपयोग कर लेता है या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उस वस्तु की उपयोगिता बताई जाती है। इसी तरह उत्तरांचल के पर्वतीय क्षेत्र में उगाये जाने वाली मडुवे की फसल की स्थिति भी ऐसी ही रही है। मडुवे का इस्तेमाल यहाँ के लोग अनादिकाल से करते आ रहे हैं लेकिन उन्हें यह बोध नहीं था कि इसमें कितने पौष्टिक तत्व छिपे हुये हैं। जब कृषि विज्ञानियों के माध्यम से इसकी पौष्टिकता का पता चला तो भी रूढ़ीवादी लोग जागरूक नहीं हुये। किन्तु जैसे ही जापानी कम्पनी ने मंडुवा आयात करने की इच्छा व्यक्त की तो इसकी काश्तकारी से जुड़े लोगों की बांछें खिल गयी और आज स्थिति यह है कि अपने ही घर उत्तराखंड में उपेक्षित ‘मंडुवा’ शहरों में होने वाले शादी-ब्याह और पार्टियों की शान बनने लगा है। लेकिन उत्तराखण्ड में इसका रकबा और उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सका है।

जिस तरह मनुष्य कल-कल करती सदावाहिनी पहाड़ी नदियों के जल का उपयोग पीने के अलावा नहाने धोने व खेतों की सिंचाई के लिये करता आ रहा था लेकिन जब तक उसने उस जल का उपयोग पन-चक्कियों और जल विद्युत उत्पादन के लिये नहीं किया तब तक उसे जल से उत्पन्न होने वाली बेमिसाल ऊर्जा का अनुमान भी नहीं था। उसी तरह यहाँ भी मंडुवे की परम्परागत खेती करने वाले काश्तकार मात्र अपने घरेलू इस्तेमाल के लिये तो फसल बोते थे लेकिन इसमें  छिपे प्रोटीनयुक्त गुणों व पौष्टिकता से अनभिज्ञ थे। यहाँ के ग्रामीण परिवेश में रहने वाले लोगों को मडुवा व उससे बने व्यंजनों के प्रति उतना आकर्षण भी नहीं है जितना कि देश-प्रदेश व महानगरों में बसे प्रवासियों को। साल-दो साल में छुट्टी लेकर घर आने वाले प्रवासी उत्तराखण्डी जब परदेश में अपने काम पर वापिस लौटता है तो पहाड़ की दालें, चावल आदि सामग्री के साथ मंडुवे का आटा ले जाना नहीं भूलता। उसने पहाड़ में रहते हुये मंडुवे की मोटी रोटी में ‘स्वाद’ पाया हो या न पाया हो जब परदेश में मंडुवे की रोटी खाता है तो सारे व्यंजनों के स्वाद भूल जाता है। इसके बावजूद मंडुवे का ‘स्वाद’ लेने वाले ‘परदेशी’ और पहाड़ में काश्त करने वाले उसके ‘संबंधी’ दोनों मे से किसी ने भी इसकी उपज बढ़ाने के लिये काश्तकारों को प्रोत्साहित करने की जरूरत नहीं समझी।

अब जैसे-जैसे इसके पौष्टिक गुणों की जानकारी लोगों तक पहुंच रही है अच्छा लाभ अर्जित करने के लिये उत्पादकता बढ़ाने की ओर स्थानीय काश्तकार स्वयं ही ध्यान देने लगे हैं उनके इन प्रयासों से अपने ही घर उत्‍तराखंड में उपेक्षित अनाज ‘मंडुआ’ जल्दी ही ‘गरीबों’ की झोली से निकल कर अमीरों का पौष्टिक आहार बनने जा रहा है। मेरिओका (जापान) के योशिफूमी किहाता द्वारा उत्‍तराखंड के कृषि मंत्रालय से टनों मडुवे की खरीद के प्रस्ताव ने इसे तीसरे दर्जे का अनाज समक्षने वालों की आँखे खोली थीं। बेबी फूड्स और अन्य पौष्टिक खाद्य पदार्थों के उत्पादन से जुड़ी कम्पनियों की नजरें उत्‍तराखण्‍ड की ओर लगने से भी अब एक बहुलाभकारी कृषि उपज के रूप में देखा जा रहा है।

अंग्रेजी के ‘वर्ड फुट मिलेट’ या ‘फिंगर मिलेट’ को ‘रागी’, ‘कोदा’, और ‘मंडुआ’ के नाम से जाना जाता है। मंडुवे की रोटी देखने मे काली होती है लेकिन लकड़ी के चूल्हे पर पकी तथा ताजे मक्खन अथवा देशी घी चुपड़ी इसकी रोटी का स्वाद स्वाद मक्के की रोटी के स्वाद को भी फीका कर देता है। मंडुवे की उत्पत्ति ‘इल्युसाइन’ वनस्पति से मानी जाती है। इसका वानस्पतिक नाम ‘एज्यूसाइन कोरकाना’ है। जून और जुलाई माह में उत्तराखण्‍ड के पर्वतीय क्षेत्रों में बोया जाने वाला यह अनाज अक्टूबर-नवम्बर तक पक कर तैयार हो जाता है विशेष देखभाल के बिना ही हल्की सी वर्षा और खाद में यह खूब पैदावार देता है। असिंचित क्षेत्र में बोये जाने के बाद भी इसकी फसल किसान को उपज देने में निराश नहीं करती। उबड़-खाबड़ पथरीली भूमि हो या दोमट मिट्टी वाले समतल खेत हर तरह की जमीन पर इसका पौधा आसानी से उग जाता है। अच्छी पैदावार लेने के लिये दो बार की गुड़ाई-निराई पर्याप्त होती है। फसल तैयार होने के बाद इसकी बालियाँ काट कर इकट्ठी कर ली जाती हैं। अच्छी तरह से सुखाने व बालियों की मंढ़ाई करने के बाद फसल का भंडारण किया जाता है। चक्की पीसने से पूर्व अनाज की ओखल में इतनी हल्की कुटाई की जाती है जिससे उसके बारीक दानों का बाहरी आवरण (छिलका) निकल जाये। तदन्तर लाई की तरह काले व भूरे दानों का यह बारीक अनाज पिसाई के लिये तैयार हो जाता है उसके बाद ही इसकी स्वादिष्ट रोटियां बनाने के लिये उपयोग किया जाता है। 

पौधे के निचले भाग तने को धान के पुआल की तरह सुरक्षित रख कर जानवरों के पौष्टिक और स्वादिष्ट चारे के रूप में प्रयोग किया जाता है। पर्वतीय क्षेत्र में प्रायः सभी जगह मंडुवे की खेती की जाती है फिर भी स्थानीय काश्तकारों ने उसे गेहूँ, चावल की फसलों की तरह प्रमुखता नहीं दी जिससे इसकी स्थिति तीसरे नम्बर की रह गयी। वैज्ञानिक शोधों के बाद इसकी कई किस्में प्रचलन में आयी। धीरे धीरे उनका उपयोग भी होता रहा। वर्ष 2001-02 में 131779 हेक्टेयर क्षेत्र में हो रही मंडुवा की खेती वर्ष 2010-11 में घटकर 119207 हेक्टेयर पर आ गई। इसके बाद मंडुवा की उत्पादकता पर तो ध्यान केंद्रित किया गया, मगर क्षेत्रफल में इजाफा नहीं हो पाया। वर्ष 2018-19 में मंडुवा का क्षेत्रफल घटकर 91937 हेक्टेयर पर आ गया। किन्तु गेहूँ चावल की अच्छी किस्मों के प्रचलन की तरह इस अनाज के उत्पादन को कालान्तर से ही प्रमुखता नहीं मिल पायी। इसका मुखय कारण स्थानीय पैदावारों पर किये गये वैज्ञानिक अध्ययनों पर तबज्जो न देना भी रहा। जिससे मंडुवे का उपयोग व उत्पादन दोनों पीछे रह गये थे।

अनादि काल से पहाड़ के लोग मंडुवे के पौष्टिक गुणों से अनभिज्ञ इसके आटे से मात्र ‘रोटी’ व ‘बाड़ी’ बना कर सेवन करने तक सीमित थे। लम्बे समय तक भंडारित किये जा सकने वाले लाई के आकार के छोटे-छोटे काले, भूरे दाने युक्त इस अनाज में बाजार में बिकने वाले किसी भी टानिक से अधिक प्रोटीन व गुणकारी तत्व तथा दांतों व हड्डियों की मजबूती तथा मधुमेह जैसे रोग में गुणकारी होने के साथ साथ किसी भी बेबी फुड्स से भी अधिक पौष्टिक तत्व मौजूद हैं। वैज्ञानिकों ने 100 ग्राम मंडुवे में पौष्टिक तत्वों की अलग-अलग मात्राएं बतायी हैं। एक शोध के अनुसार  100 ग्राम मंडुवे में 7.6प्रतिशत प्रोटीन, 74.6 प्रतिशत कार्बोहाड्रेट, 1.52 प्रतिशत फाइवर, 1.35 प्रतिशत वसा, 341.6 कैलोरी ऊर्जा, 2.35 प्रतिशत मिनरल्स, 2.28 ग्राम फासफोरस, 4 मि०ग्रा० लोहा, 12.4 ग्राम जल, 0.04 ग्राम कैरोटीन, 0.04 ग्राम कैल्शियम होती है। इसके आटे से बनने वाली गुणकारी ‘रोटी’ और ‘बाड़ी’ उत्तराखण्‍ड के पर्वतीय क्षेत्र की पारम्परिक व्यंजन रहे हैं। घरों तक सीमित इन व्यंजनों के बाद कुछ व्यवसाइयों ने मंडुवे के आटे से बने बिस्कुट भी बाजार में उतारे हैं इसी तरह के कई उत्पाद अब पौष्टिकता के बाजार में शीघ्र ही नई क्रान्ति लाने वाले हैं। उत्‍तराखण्‍ड के खेतों से निकल कर शहरों तक पहुँचा मंडवा अब शादी ब्याह व पार्टियों की शान बनने लगा है। मक्के की रोटी और बाड़ी का स्वाद लेने वाले इसके दीवाने बनते जा रहे हैं। सरकारी सहायता के साथ मंडुवे के उत्पान, विपणन और प्रचार प्रसार से बदलते समय के साथ इसकी बढ़ती लोकप्रियता का ग्राफ निकट भविष्य में बुलंदियों के शिखर पर पहुंचे तो कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिये।

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