श्रद्धा और आस्था के पावन तीर्थ : पंच बदरी

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

उत्तराखण्ड जिस तरह अपने प्राकृतिक सौन्दर्य और स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के लिये प्रसिद्ध है उसी तरह यह प्रदेश करोड़ों लोगों की धार्मिक और अध्यात्मिक आस्था का केन्द्र भी है। यहाँ स्थित अनेकों प्राचीन मठ-मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे और गिरजाघर अपने पौराणिक महत्व और जन आस्थाओं से जुड़े होने के कारण लोगों की श्रद्धा और आस्था के केन्द्र हैं उन्हीं में प्रमुख स्थान भगवान विष्णु के वास स्थल पंच बदरी का भी है। पंच बदरी में बद्रीविशाल जिन्हें प्रचलित रूप में बदरीनाथ कहा जाता इनके सहित पाँच मंदिरों के समूह का वर्णन आता है। अलग-अलग क्षेत्रों में स्थित पाँचों मंदिरों के समूह को पंच बदरी कहा जाता है। पंच बदरी समूह प्रचीन काल से ही श्रद्धालुओं की अपार भक्ति एंव श्रद्धा के केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध रहा है। बदरीनाथ प्रधन पीठ सहित वृद्ध बदरी, आदि बदरी, योगध्यान बदरी और भविष्य बदरी के नाम से पाँच स्थानों पर भगवान विष्णु की ही पूजा होती है। इन पवित्र स्थलों के दर्शन के लिए भारत के विभिन्न प्रान्तों के अतिरिक्त देश-विदेश से प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते है। धार्मिक आस्था और श्रद्धालुओं की श्रद्धा के प्रतीक इन प्रमुख मंदिरों का विवरण निम्न प्रकार है।
बदरीनाथ
चार धामों में सर्वश्रेष्ठ तथा गन्ध्मादन पर्वत श्रृंखलाओं में नर और नारायण पर्वतों के मध्य पावन तीर्थ ‘बदरीनाथश् देश-विदेश में बसे करोड़ों हिन्दुओं की आस्था का प्रतीक है। विभिन्न युगों में बदरीनाथ को मुक्तिप्रदा, योगसिद्धि व बदरीविशाल नामों से जाना गया। 3133 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस मंदिर का निर्माण 8वीं सदी में गुरू शंकराचार्य द्वारा किया गया था जिसको वर्तमान स्वरूप विक्रमी 15वीं शताब्दी में गढ़वाल नरेश ने दिया था। इस क्षेत्र में आने वाले बर्फीले तूफानों के कारण यह मंदिर कई बार क्षतिग्रस्त हुआ और कई बार इसका निर्माण हुआ। मन्दिर निर्माण के संदर्भ में यह पौराणिक उल्लेख भी हैं कि ब्रह्मा आदि देवताओं ने सर्व प्रथम भगवान विश्वकर्मा से मन्दिर का निर्माण करवाया था। तत्पश्चात्‌ राजा पुरूरवा ने मन्दिर का निर्माण करवाया। यह भी विश्वास है कि द्वापर युग में भगवान्‌ के बदरीवन में दर्शन न होने पर देवताओं ने डर कर ब्रह्मा के साथ क्षीर सागर पर जाकर भगवान्‌ की स्तुति की, तब भगवान ने दर्शन दिए, लेकिन यह दर्शन केवल ब्रह्मा ही कर सके। ब्रह्मा ने तब देवताओं को बताया कि मनुष्यों की कुबुद्धि के कारण ही भगवान्‌ अर्न्तध्यान हो गए सन्‌ 1939 में सरकार ने श्री बदरीनाथ मंदिर एक्ट बना कर उसका प्रबन्ध् 12 सदस्यीय समिति को सौंपा इसके बाद रावल का कार्य सिर्फ पूजा करना रह गया। पूजा कराने वाले रावल भी टिहरी नरेश के नियंत्राणाधीन रखे गये थे। बाद में केदारनाथ मंदिर का प्रबन्ध् भी इसी समिति को सौंप दिया गया। अब यह प्रबन्ध् समिति श्री बदरीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति कहलाती है।
बदरीनाथ मंदिर की व्यवस्थाएं कई भागों में बंटी हैं। उपासनाओं का संचालन धर्माधिकारी द्वारा किया जाता है। यह बहुगुणा जाति का गढ़वाली ब्राह्मण होता है। केरल के कन्नूर जिले के नम्बूदरीपाद ब्राह्मण (रावल) भगवान बदरीविशाल के मुखय पुजारी होता है। भगवान के भोग पकाने का कार्य डिमरी जाति के ब्राह्मण करते है। डिमरी लोग ही लक्ष्मी मन्दिर के पुजारी भी हैं। ये पण्डे का कार्य करने के साथ-साथ मुखय पुजारी के सहायक का कार्य भी करते हैं। प्रतिदिन भगवान बदरी नारायण की पूजा के समय भगवान के श्रृंगार, वस्त्र, आभूषण आदि का प्रबन्ध् वैष्णव सम्प्रदाय के वैष्णव करते हैं। श्रृंगार की मालाएँ बनाने का कार्य टंगणी गांव के माल्या जाति के ब्राह्मण भी करते हैं। बदरीनाथ के सेवक और परिचारकों का काम दुरियाल और मार्छे जातियों का है। प्रायः यही लोग मंदिरों के चढ़ावे को सँभालने, पूजा के बरतन सापफ करना, धूप-आरती बनाना और शीतकाल में मंदिर के कपाट बन्द होने पर रखवाली तक का कार्य भी यही लोग देखते हैं। माणा ग्राम के मार्छा लोग यहाँ मातामूर्ति का उत्सव सम्पन्न कराते हैं। कार्तिक मास में भगवान को लगने वाले फाफर के लड्डुओं का भोग यही लोग लाते हैं। मन्दिर के कपाट बन्द करने से पूर्व भगवान को ओढ़ाने वाले धृतकमल (ऊनी वस्त्र) को भी यही लोग बनाते हैं।
असीम आनन्द और दिव्य लोक की अनुभूति प्रदान करने वाली भगवान बदरीनाथ की पावन भूमि को कई नामों से जाना जाता है। विशाल नामक राजा का तपक्षेत्र होने के कारण ‘बदरी विशालश्, भगवान विष्णु का वास और प्राचीन काल में बदरी (जंगली बेर) की क्षाड़ियों युक्त क्षेत्रा होने के कारण इस क्षेत्रा का नाम बदरी वनश् पड़ा। जो कालान्तर में बदरीनाथ हो गया। स्कन्दपुराण मे बदरीनाथ धम के चार युगों में अलग-अलग नामों का उल्लेख मिलता है उसके अनुसार सतुयग में मुक्तिप्रदा, त्रोता में योग-सिद्धि, द्वापर में विशाला और कलयुग में बदरिकाश्रम है। ऐसे ही अनेक धर्मशास्त्रों से यह ज्ञात होता है कि हिन्दुओं का यह पावन तीर्थ युगों-युगों से चला आ रहा है।
पौराणिक ग्रन्थों में बदरीनाथ धम को ‘विशालापुरी’ के नाम से भी सम्बोधति किये जाने का उल्लेख मिलता है। वाराह पुराण के अनुसार एक बार युद्ध में पराजित होकर राजा विशाल ने यहाँ भगवान बदरीनाथ की तपस्या कर उनसे युद्ध के दौरान छिन चुके राज्य को वापिस पाने का वरदान प्राप्त किया था। तब भगवान ने राजा विशाल से कहा कि तुम्हारा नाम भी हमारे नाम के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा। कहा जाता है कि तभी से इस स्थान को ‘विशालापुरी’ भी कहा जाने लगा।
यहाँ वैदिक काल में वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, अगस्त्य, जमदग्नि, विश्वामित्र और गौतम ऋषि ने तो तपस्या की थी भगवान श्री कृष्ण ने भी दस हजार वर्ष तक गन्‍धमादन पर्वत पर तप किया था। यह वही पवित्र भूमि है जहाँ भगवान शंकर को भी अमोघ शान्ति मिली थी। भगवान शंकर के आध्पित्य वाले इस हिमालयी क्षेत्र में जब नारायण ने बाली का वेश धरण कर छल से माँ पार्वती के वात्सल्य स्नेह का लाभ उठाया और उन्हें केदारनाथ चले जाने का अवसर दिया था तभी से यह क्षेत्र ‘’वैष्णव तीर्थ” हो गया। किंवदन्ति है कि भगवान विष्णु के चौथे अवतार ‘नर’ और ‘नारायण’ नामक ऋषि जो क्रमशः धर्म और कला के पुत्र थे, ने बदरीकाश्रम में आध्यात्मिक शान्ति प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी। इन्हीं के नाम पर बद्रीनाथ में इन पर्वतों का नाम ‘’नर” और ‘’नारायण” पड़ा। नर और नारायण की तपस्या के कारण इन्द्र भयभीत हुए। और इन ऋषियों का मन विचलित करने को अपसरायें भेजी। इससे नारायण बहुत क्रुद्ध हो गये और उन्हें श्राप देने लगे पर नर ने उन्हें शान्त किया। फिर नारायण ने उर्वशी की उत्पत्ति की जो उन अपसराओं से अतीव सुन्दर थी, उर्वशी को उन्होंने इन्द्र की सेवा में भेंट कर दिया। यही नर व नारायण अपने पुनर्जन्म में अर्जुन व कृष्ण हुए।
प्रतिवर्ष प्रचुर व्यय की सामर्थ्य और प्राणों के संकट को लेकर देश के प्रत्येक भाग से हजारों भारतीयों ने श्री बदरी नारायण भगवान के दर्शनों का पुण्य लाभ तब भी उठाया जब इस दुर्गम हिमालय की यात्रा करना कठिनतम होने के साथ-साथ भयग्रस्त भी था लेकिन फिर भी देश के कोने-कोने से हजारों, लाखों लोग इस तीर्थ का पुण्य लूटने हर वर्ष आते थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि प्राचीन काल से ही इसकी कितनी मान्यता रही है। वास्तव में पहले भगवान बदरीनाथ की चरण धूलि प्राप्त करने में जीवन-मरण अनिश्चित समक्षा जाता था। लेकिन आवागमन की सुगमता के कारण अब यहाँ देश-विदेश के श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
धर्मशास्त्रों के अनुसार यह देवभूमि सतयुग, द्वापर और त्रेता मे योग सिद्धि प्रदान करती थी, कलियुग होने के कारण लोगों में पहले के समान आस्था नहीं रही परन्तु पिफर भी इस युग में यह मुक्ति प्रदान करने वाली है। इस धाम के विषय में ऐसी मान्यता है कि भगवान बदरीनाथ के दर्शन मात्र से ही मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है। तीर्थों से सर्वश्रेष्ठ बदरीनाथ धाम धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान कर प्रत्येक श्रद्धालु और भक्त की हर मनोकामना पूरी करता है धर्म ग्रन्‍थों में कहा भी गया है कि-
बहूनि सन्ति तीर्थानि दिविभूमौ रसातले ।
बदरी सदृशं तीर्थं न भूतं व भविष्यति ॥

ऐसी मान्यता है कि भगवान बदरीनाथ की जिस मूर्ति को नारद पूजते थे वह मूर्ति आज भी यहीं स्थापित है। बौद्धों द्वारा अलकनन्दा में समाहित कर दी गई मूर्ति को शंकराचार्य ने नारद कुण्ड से निकालकर ‘गरूड़कोटि’ नामक गुफा में स्थापित किया था। इस मूर्ति को जैन धर्म के मतावलम्बी ‘पारसनाथ’ अथवा ‘ऋषभदेव’ की बताते हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह मूर्ति बौद्धों से सम्बन्ध्ति है जबकि हिन्दु इसे साक्षात्‌ ‘नारायण’ के रूप में पूजते हैं। यह मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में अधिष्‍ठापित है जहाँ जन सामान्य का प्रवेश वर्जित है, सिर्फ मंदिर के पुजारी रावल और उनके सहयोगी ही वहाँ प्रवेश कर मूर्ति का स्पर्श कर सकते हैं।
बदरीनाथ धम स्थित 15 मीटर ऊँचे भगवान विष्णु के मंदिर में पहुँच कर श्रद्धालुओं को अलौकिक आनन्द और सुकून मिलता है। मंदिर के परिसर में 15 मूर्तियाँ हैं इन दर्शनीय प्रतिमाओं के अंतिरिक्त तीन भागों में विभाजित मंदिर के गर्भगृह दर्शन मंडप और सभा मंडप भी अत्यन्त आकर्षक है। भव्य बदरीनाथ मन्दिर में श्री बदरी विशाल श्यामल स्वरूप में बहुमूल्य वस्त्र आभूषण एवं मुकुट धारण किये हुए सुशोभित है। उनके ललाट में हीरा लगा हुआ है दाहिनी ओर कुबेर और गणेश तथा बाईं ओर लक्ष्मी व नारायण हैं मन्दिर के प्रवेश द्वार के समीप ही गरूड़ की काले पाषाण की मूर्ति है।
बदरीनाथ धाम के समीप कई अन्य पवित्र स्थल भी हैं। इन्ही में से एक ‘’तप्त कुण्ड” भी है जिसके सम्बन्ध् में धर्म शास्त्रों में यह उल्लेख मिलता है कि आदिकाल में ऋषि मुनियों की एक सभा में जब अग्निदेव ने सर्व भक्ष्य पाप से मुक्ति का उपाय पूछा तो ऋषियों की आज्ञा पाकर व्यास जी ने उन्हें बदरीनाथ की यात्रा करने को कहा। बदरीनाथ पहुँच कर अग्निदेव ने नारायण की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया और अभयदान का वरदान माँगा। तब भगवान ने अग्निदेव से कहा कि इस पवित्रा क्षेत्र के दर्शनमात्र से ही प्राणियों के सब पाप दूर हो जाते हैं अतः तुम भी आज से पाप मुक्त और पवित्र हो। तभी से अग्नि देव बदरीनाथ में तप्त जल के रूप में स्थित हैं। इस तप्त कुण्ड में स्नान करने से महा पापियों के भी पाप नाश हो जाते हैं। औषधीय गुणों के लिए प्रसिद्ध गर्म जल के इस कुण्ड में स्नान के उपरान्त ही श्रद्धालु बदरीनाथ मंदिर के दर्शन करते हैं।
भगवान बदरी विशाल के मंदिर में भगवान को चने की दाल और खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। मई में मंदिर के कपाट खुलने के बाद प्रति वर्ष नवम्बर में दीपावली के बाद वेद मन्त्रोच्चारण व धर्मिक परम्पराओं के साथ शीतकाल के लिए कपाट बन्द होते हैं। इससे पूर्व कई चरणों में परम्परानुसार भगवान की पूजा अर्चना की जाती है। जिसमें हजारों श्रद्धालु भाग लेते है। कपाट बन्द करने से पूर्व भगवान को ऊन का अंग वस्त्र (चोली) पहना कर सूप से ढका जाता है।
मंदिर के अन्दर स्थित पंच मूर्तियों को बदरी पंचायतन करते हैं। जिनमें बदरीनाथ की मुखयमूर्ति के साथ नर-नारायण, श्रीदेवी तथा भूदेवी, गणेश व कुबेर सहित उद्धव, नारद और गरूड़ की मूर्तियाँ मौजूद हैं।
वृद्ध बदरी
जोशीमठ से 7 कि0मी0 दूर हेलंग के निकट स्वेनटी चट्टी है जहाँ से कुछ ही दूरी पर प्रचीन अणीमठ है यहीं पर 4000 फीट की ऊँचाई पर वृद्ध बदरी मंदिर है जिसमें लक्ष्मीनाराण की मूर्ति शोभायमान है। बद्रीनाथ मंदिर की स्थापना से पहले भगवान विष्णु की पूजा यहीं होती थी इसी लिए इसका नाम बृद्ध बदरी है। इसे नारायण की तपस्थली भी कहा जाता है। यह मंदिर श्रद्धालुओं के लिए पूरे वर्ष खुला रहता है।
भविष्य बदरी
तपोवन से लगभग 5 कि0मी0 की दूरी पर स्थित सुभाई गाँव में 8000 फीट की ऊँचाई पर बने भगवान विष्णु के मंदिर को भविष्य बदरी कहते हैं। यहाँ बद्रीश की आधी आकृति की मूर्ति का पूजन किया जाता है। आदि काल में अगस्तय मुनि ने यहाँ भगवान बदरी नाथ की पूजा की थी तभी इसे यहाँ भगवान बद्रीश का निवास माना जाता है। कहते हैं कि घोर कलियुग आने पर बदरीनाथ जाने का मार्ग पर जब दो ऊँचे पर्वत शिखर आपस में मिल जायेगे तो बदरीनाथ का मार्ग अवरूद्ध हो जायेगा। और यहाँ भगवान बद्रीश की आधी मूर्ति पूरी हो जायेगी और भविष्य में बदरीनाथ की पूजा यहीं होने लगेगी।
आदि बदरी
कर्णप्रयाग से लगभग 17 कि0मी0 दूर रानीखेत मोटर मार्ग में समुद्र तल से 1230 मीटर की ऊँचाई पर बेनी पर्वत की कोख में स्थित आदि बदरी को भगवान की आदि तपस्थली कहा जाता है। इस स्थान पर चौदह मन्दिरों का एक समूह है। प्राकृतिक आपदाओं के कारण समय समय पर मन्दिर क्षतिग्रस्त भी हुए हैं। इस स्थल का प्राचीन नाम ‘नोठा’ (नारायण मठ) है जो आदि गुरू शंकराचार्य के आगमन के बाद ‘आदि बदरी’ हो गया। यहाँ स्थित विष्णु मंदिर 16 छोटे छोटे मंदिरों के समूह में है। जिसमें तीन फीट ऊँचे काले रंग की नारायण की पूर्ति स्थापित है। इसके अंतिरिक्त सत्यनारायण, गणेश, सूर्य, अन्नपूर्र्णा, गरूण मंदिर, शिव, दुर्गा आदि के मंदिर हैं जिनमें कई दुर्लभ मूर्तियाँ थी इनमें से कई मूर्तियाँ समय समय पर चोरी हो गई हैं। थापली गांव में थपलियाल इस मंदिर के पुजारी हैं। आदि बदरी मन्दिर के कपाट पौष माह में बन्द होते हैं।
धार्मिक मान्यता है कि भगवान विष्णु संसार के नाना प्रकार के दुःखों को देखकर लक्ष्मी का साथ छोड़ कर निर्जन बदरी वन (बेर के जंगल) में ध्यानमग्न हो गये थे उनको जगह जगह तलाशती हुई लक्ष्मी भी यहाँ पहुँच गयी। जिसके कारण भगवान विष्णु यहाँ से भी दूर ऊँचे शिखरों पर चले गये।
आदि बदरी धाम की मूर्तियों पर लम्बे समय से चोरों की नजर रही है। यहाँ साठ के दशक में कई बार चोरी हुई है। सन्‌ 1965, 1966 व 1967 में तीन बार चोरी हुई और अनेकों बार चोरी करने का भी प्रयास किया गया लेकिन मन्दिर के पुजारी के विरोध् के कारण चोर सफल नही हो पाये। मन्दिर की प्रमुख मूर्ति 30 जून 1967 को तस्कर ले जा रहे थे कि पकड़े गये सन 1984 तक यह मूर्ति न्यायालयों में ही रहीं पुनः 1986 में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर मन्दिर में रखा गया था।
योगध्यान बदरी
कहते हैं कि हस्तिनापुर का राज्य परीक्षित को सौंप कर जब पाण्डवों ने हिमालय के लिए प्रस्थान किया तो उन्होंने जोशीमठ से लगभग 24 कि0मी0 दूर पाण्डुकेश्वर स्थित योगध्यान बदरी में विश्राम किया था। इस पवित्र स्थल पर भी दर्शनार्थियों की भारी भीड़ रहती है। यहाँ कल्पेश्वर शिव का शिव मंदिर है। एक मान्यता के अनुसार यहीं पर राजा पाण्डु को मोक्ष प्राप्त हुआ था।

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