देवभूमि के पंच प्रयाग

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

जहाँ-जहाँ नदियों के संगम स्थल हैं वे पवित्र स्थानों में गिने जाते हैं इन संगमों पर स्नान का विशेष महत्व माना जाता है। नदियों के संगम को गढ़वाल में प्रयाग कहा जाता है। धर्मग्रन्थों के अनुसार उत्तराखण्ड में अनेकों प्रयाग हैं जिनमें से देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग और विष्णु प्रयाग को ही पंच प्रयाग के नाम से जाना जाता है।
ऋषिकेश से बद्रीनाथ यात्रा मार्ग पर जो पंचप्रयाग आते हैं, उनका धर्मिक महत्व इलाहाबाद अर्थात ‘प्रयागराज’ से कम नहीं है। जिस प्रकार यहाँ ‘पंचकेदारों’ में केदारनाथ, मद्महेश्वर, रुद्रनाथ, तुंगनाथ, कल्पेश्वर तथा पंच बदरी में बदरीनाथ, आदि बदरी, वृद्ध बदरी, भविष्य बदरी और योगघ्यान बदरी हैं। उसी तरह ‘पंचगंगा’ में यमुना, भागीरथी, अलकनंदा, मंदाकिनी व धवल गंगा हैं, इन पवित्र नदियों के अलग-अलग ‘संगम’ को ही ‘पंच प्रयाग’ कहा जाता है। जिसमें देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और विष्णु प्रयाग हैं। ये सभी प्रयाग धर्मिक दृष्टि से श्रधालुओं के लिए उतने ही महत्वूपर्ण हैं जितने बद्री विशाल के दर्शन करने महत्वपूर्ण हैं। देव प्रयाग में भागीरथी और अलकनंदा का संगम है तो रुद्रप्रयाग में अलकनंदा और मंदाकिनी मिलती है। कर्णप्रयाग में अलकनंदा और पिंडर का मिलन होता है और नंद प्रयाग में अलकनंदा और नंदाकिनी मिलती हैं। इसी प्रकार विष्णु प्रयाग में अलकनंदा और धवल गंगा के संगम को भी पवित्र स्थान माना गया है।
हिन्दू संस्कृति में प्रयाग स्नान करने को अत्यधिक पुण्य देने वाला माना गया है। हिमालय का गढ़वाल क्षेत्र, जिसे पुराणों के केदारखंड के नाम से संबोधित किया गया है, में बहने वाली सरिताओं में भागीरथी, अलकनंदा मंदाकिनी और यमुना प्रमुख नदियाँ हैं। यमुना का उद्गम गोमुख से, मंदाकिनी केदारनाथ के समीप से, अलकनंदा अलकापुरी से एवं सतोपंथ से निकलकर बद्रीनाथ के मघ्य से प्रवाहित होती है। शिव की जटाओं से निकलकर भागीरथ के पीछे चलने वाली भागीरथी कहलाई। दूसरी धारा श्रीमुख पर्वत से निकली, जो अलकनंदा कहलाई और तीसरी धारा, जो केदार क्षेत्र की ओर गई, वह मंदाकिनी के नाम से पुकारी जाने लगी। इन तीन धाराओं का जहाँ-जहाँ संगम हुआ वहाँ-वहाँ प्रयाग बनते गए और वे प्रमुख तीर्थ स्थल बन गए। कुछ वर्ष पूर्व जब तीर्थ यात्री पैदल यात्रा करते थे तब इन सभी प्रयागों पर स्नान करके ही आगे बढ़ते थे क्योंकि इसके बिना तीर्थ यात्रा अधूरी समझी जाती थी। उत्तराखण्ड में स्थित पंच प्रयागों का विवरण इसी आलेख में आगे दिया गया है।
देवप्रयाग
अलकनन्दा और भागीरथी के संगम पर बसा देवप्रयाग समुद्र की सतह से 2266 पफीट की ऊँचाई पर है यहाँ साक्षात्‌ देवताओं का वास बताया गया है। सतयुग में देवशर्मा नामक ब्राह्मण मुनि ने यहाँ अलकनन्दा तथा भागीरथी के संगम पर एक हजार वर्ष तक एक पैर पर खड़े रह कर भगवान्‌ विष्णु की तपस्या की थी। संगम स्थल पर ही ब्रह्मकुण्ड और वशिष्ठ कुंड भी हैं। उनके कठोर तप से प्रसन्न होकर भगवान्‌ ने उन्हें साक्षात्‌ दर्शन देकर इसी स्थान में भक्ति भाव से रहने की आज्ञा दी और कहा कि त्रेता युग में वे राम के रूप में अवतार लेकर सीता और लक्ष्मण सहित यहाँ निवास करेंगे।
रावण का वध् करने पर जब भगवान रामचन्द्र को ब्रह्म हत्या का पाप लगा तो इस क्षेत्रा में आकर तप करने के उपरान्त ही वे ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त हुए थे। तभी से यहाँ भगवान रघुनाथ (रामचन्द्र) की प्रतिष्ठा हुई। रघुनाथ मंदिर के शिखर पर स्वर्ण कलश है। नागरशैली को अपनाये हुए मंदिर के शिखर पर कत्यूरी शैली की छाप भी है। शिखर के नीचे गर्भ गृह में श्याम वर्ण की भगवान राम की विशाल उज्जवल नेत्रों वाली मूर्ति स्थापित है जिसके हाथ व पैरों पर चाँदी के आभूषण शीश पर सुनहरा मुकुट, हाथों में धनुष बाण और कमर में ढाल तलवार है। उनके साथ सीता और लक्ष्मण की प्रतिमाएं भी हैं। यहाँ स्थित रघुनाथ मंदिर कई बार क्षतिग्रस्त हुआ जिसका गढ़वाल के राजाओं ने समय-समय पर जीर्णोद्धार करवाया। विक्रमी संवत्‌ 1960 (सन्‌ 1803 ई0) में पुराना मंदिर भूकम्प से बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था। दौलत राव सिंधिया ने इसका जीर्णोद्धार करवाया। गढ़वाल नरेश सुदर्शन शाह की रानी ‘खणोटी’ के द्वारा भी मन्दिर का कुछ कार्य करवाया गया था। मंदिर के अन्दर रघुनाथ जी की लगभग 6 पफुट ऊँची श्याम वर्ण की पाषाण प्रतिमा है। जिसके दर्शनों के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। संगम से लगभग 100 सीढ़ियां चढ़ने के बाद सर्व प्रथम गोपुरम्‌ आता है जिसे पुराने पुश्ते के ऊपर खोली के आकार में गोरखा आधिपत्य काल 1803-15 में बनाया गया। नेपाल की परम्परा में इसे ढोका नाम दिया गया स्थानीय निवासी मन्दिर के इस प्रेवश द्वार को घंड़ियाल की खोली कहते हैं। मंदिर के बायें ओर के चौक में एक चबूतरे पर राजस्थान की शैली में एक छतरी बनी है। यह चबूतरा लगभग 12 फुट वर्गाकार है। इसकी जमीन से ऊँचाई डेढ़ फुट है। इसके चारों कोनों के खंभे साढ़े छः पफीट ऊँचे हैं। ऊपर से ताँबे के पत्तरों से ढका यह काफी सुन्दर दिखाई देता है। अन्दर खंभों पर हुक लगे हैं जो भगवान की उत्सव मूर्ति को झूला झुलाने के काम आते हैं। देवप्रयाग में क्षेत्रपाल और गढ़वाल राजवंश की भी विशाल मूर्तियाँ हैं। यहाँ कुछ रानियों के भी मंदिर बने हैं। देवशर्मा की कठोर तपस्या के कारण ही इस स्थान का नाम देवप्रयाग पड़ा।
देवप्रयाग स्थित भागीरथी और अलकनन्दा के संगम पर स्नान करने का बड़ा पुण्य लाभ मिलता है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में ध्नद नामक वैश्य ने राज्य पाने की इच्छा से तप किया। एक बार वन में एक मुनि तपस्या कर रहे थे। उनके क्रियाक्लापों को देखकर ध्नद ने उनकी मजाक बनायी और वह हंसने लगा। उसके क्रिया क्लापों को देखकर क्रोधित हो मुनि ने उसे पुत्रहीन होने के साथ-साथ तुरन्त मृत्यु का भी शाप दे दिया। इसके बाद जब ध्नद को अपनी गलती का अहसास हुआ तो वह चिन्तित हो गया और मुनि को प्रसन्न करने के लिए स्तुति की। उसकी सच्ची भाक्ति और स्तुति से प्रसन्न होकर मुनि ने शाप निवृत्ति का मार्ग सुस्वर गन्‍धर्व अवलोकन के द्वारा बताया। वह दूसरे जन्म में चण्डवर्मा नाम का राजा हुआ। उसके व्यवहार से जनता बहुत परेशान हो गयी और पापाचरण करने के कारण जनता ने उसे देश से बाहर निकाल दिया। देश से बाहर निकाले जाने पर वह गुरु के पास आया और उनसे सारा वृतान्त कह सुनाया। गुरु ने उसे देवप्रयाग में एक महीने तक स्नान व उपवास की आज्ञा दी। राजा गुरु की आज्ञा का पालन करने के बाद वन को चला गया। वहाँ उसने एक राक्षस को देखा जिसका उसने वध् कर दिया। वह राक्षस तुरन्त अपना वह शरीर त्याग गन्‍धर्वरूप में आ गया। उसके दर्शनों से चण्डवर्मा को मनवांछित फल की प्राप्ति हुई।
देवप्रयाग में ही ब्रह्मा ने सृष्टि रचने के लिए तपस्या का उपक्रम किया था। देवप्रयाग के महात्म्य के विषय में यह जनश्रुति है कि सतयुग में एक ब्राह्मण अपने परिवार का पालन-पोषण मृगया द्वारा करता था। लम्बे समय तक इस कार्य के द्वारा उसने अपने को असमर्थ पाकर चोरी का कर्म भी करने लगा। एक बार वह वन में गया तो उसने एक पुष्ट वराह को देखा और उस पर अपने बाणों से प्रहार किया। वराह ने व्याध् पर आक्रमण कर दिया जिससे वह नदी के तट पर गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ। व्याध् के प्राणों को यमदूत ने यह कहकर बाँध् लिया कि इसकी मृत्यु देवप्रयाग जैसे पावन में तीर्थ में हुई है, अतः इसके सारे पाप नष्ट हो गये हैं इसलिए यह ब्रह्मलोक को जायेगा।
देवप्रयाग में कई प्राचीन धर्मिक स्थल भी हैं। गंगा तट पर तुण्डीश्वर महादेव को प्राचीन तीर्थ कहा गया है। जनश्रुति है कि तुण्डी भिलनी ने लम्बे समय तक यहाँ भगवान शिव की तपस्या की थी। जिससे भगवान शिव तुण्डीश्वर के नाम से विख्यात हुए। भागीरथी और अलकनन्दा के संगम पर जल के तेज प्रवाह से चट्टानों का कटाव होने के कारण कई प्राकृतिक कुण्ड बन गये हैं। जिनमें भागीरथी के बाएं तट पर बना ब्र्रह्म कुण्ड विशेष महत्वूपर्ण माना जाता है। श्रद्धा तथा पिंडदान आदि कर्मकांड यहीं पर किये जाते हैं। ब्रह्म तीर्थ के निकट वशिष्ठ तीर्थ है यहां वशिष्ठ मुनि ने निवास किया था। ‘गंगा’ और ‘शांता’ नदी के संगम के समीप शिव तीर्थ है यहाँ भगवान राम ने अनेक शिवलिंग स्थापित किये थे। निकट ही बेताल कुण्ड और बेताल शिला है। लोक मान्यता के अनुसार बेताल कुण्ड में स्नान और बेताल शिला का स्पर्श करते हुए जो श्रद्धालु भगवान नारायण का स्मरण करता है वह सर्व यज्ञ, तीर्थ और तीर्थदान का फल पाता है ऐसा व्यक्ति परमगति को पाता है।
किंवन्दती है कि प्रत्येक चतुर्दशी को रात्रि में बेताल शिला में बेताल आते हैं और उसमें स्नान करके अर्न्तध्यान हो जाते हैं। वेताल शिला का दर्शन एवं पूजन महापातकों का नाश करने वाला है। बेताल तीर्थ से कुछ दूरी पर स्थित सूर्य तीर्थ में स्थान करने से कुष्ठ रोग से मुक्ति मिलती है। कहा जाता है कि ‘मेघ तिथि’ नामक ब्राहम्मण ने यहां सूर्य भगवान की तपस्या की थी उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर सूर्य भगवान ने इसी स्थान पर निवास कर इस तीर्थ को तीनो लोकों में विख्यात करने की प्रार्थना स्वीकार की थी माघ शुदि सप्तमी के दिन सूर्य कुण्ड में स्नान करने वाला व्यक्ति लम्बे समय तक सूर्य लोक में वास करता है।
एक प्राचीन कथा के अनुसार जब विश्वामित्र हिमवान पर्वत पर तपस्या कर रहे थे तो देवराज इन्द्र आदि देवताओं ने पुष्पमाला नाम की किन्नरी को उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए भेजा। अन्य अप्सराओं के साथ पुष्पमाला ने विश्वामित्र पर जब कामदेव का कुसुम बाण छोड़ा तो उनका घ्यान भंग हो गया। क्रोधित विश्वामित्र ने किन्नरी को मकरी हो जाने का श्राप दे दिया। उनके श्राप से भयभीत किन्नरी ने विश्वामित्र से इस श्राप से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की तो मुनि ने उससे कहा कि तुम देवप्रयाग जाकर वहाँ निवास करो। जब त्रेता युग में रामचन्द्र लक्ष्मण के साथ वहाँ आयेंगे तभी तुमको इस श्राप से मुक्ति मिलेगी। अपने अनुज लक्ष्मण के साथ जब भगवान रामचन्द्र त्रेता युग में देवप्रयाग आकर गंगा में स्नान करने लगे तो मकड़ी उन्हें निगलने लगी तब रामचन्द्र जी ने उसका सिर काट डाला और मकड़ी अपना शरीर छोड़कर अपसरा के रूप में प्रकट हो भगवान राम की स्तुति करने लगी। उसकी स्तुति से प्रसन्न हो भगवान राम ने कहा कि ‘तुम हमारे धम में जाओ’ आज से यह पौष्पमाल तीर्थ के नाम से विखयात होगा। यहाँ स्नान, दान, तप, जप व होम करने वालों पर मैं प्रसन्न होऊँगा। इस स्थान पर पितरों का तर्पण करने से वे सहज ही स्वर्ग को प्राप्त होंगे।
रूद्रप्रयाग
केदारखण्ड पुराण में कोल पर्वत से लेकर मंदाकिनी-अलकनन्दा संगम तक के क्षेत्रा को रूद्र क्षेत्रा बताया गया है। प्राचीन समय में यहीं से होकर बदरीनाथ और केदारनाथ के पैदल मार्ग थे। यहाँ पर नारदमुनि ने ‘ऊँ नमः शिवाय’ का जाप करते हुए एक पैर पर खड़े होकर शिव की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया और भगवान शिव ने रौद्ररूप में नारद को दर्शन देकर ‘अखिल राग’ सिखाये थे।
महाभारत के एक उल्लेख से यह भी पता चलता है कि इस तीर्थ को कभी ‘रूद्रावर्त’ कहा जाता था। तब ऐसी मान्यता थी कि यहाँ स्नान और त्रिरात्री निवास से स्वर्ग की प्राप्ति होगी। प्राचीन समय में यहाँ एक मठ था। रूद्रप्रयाग में भगवान रूद्रनाथ का पौराणिक मन्दिर है इस पौराणिक मंदिर में शिव भक्त श्रद्धापूर्वक भगवान आशुतोष का जलाभिषेक करते हैं। सामान्य गर्भ गृह के इस मंदिर में लगभग एक फुट ऊँचा शिवलिंग है निकट ही पार्वती व गणेश की प्रतिमाएं भी हैं।
मन्दिर के दाईं और बाईं ओर दो अन्य मन्दिर भी हैं जिन्हें शिव मन्दिर और लक्ष्मी मन्दिर के नाम से जाना जाता है। संगम के पास जगदम्बा देवी का मन्दिर है जिसे नवदुर्गा मन्दिर भी कहते हैं। इसका जीर्णोद्धार सन्‌ 1939 ई0 में महंत नारायणगिरि माई ने कराया था।
कर्णप्रयाग
अलकनन्दा और पिण्डर के संगम पर स्थित कर्णप्रयाग को प्रयागों में तृतीय प्रयाग माना जाता है। यहाँ पिंडर गंगा तथा अलकनंदा का संगम है। कत्यूरी युग का इतिहास देखने से मालूम होता है कि तब इसे कर्ण गंगा कहा गया और संगम में प्रसिद्ध सूर्य मंदिर बना था। सूर्य मंदिर के नष्ट होने पर इस स्थान की पहचान महाभारत काल से करने की ललक ने इसे कर्ण प्रयाग का नाम दे दिया। शायद कर्ण की मूर्ति का विवरण उपलब्ध् न होने पर भी कवच-कुंडल बूटधरी सूर्यमूर्ति को जनमानस ने कर्ण मूर्ति मान लिया था।
स्कन्द पुराण में इस स्थान का नाम कर्णाश्रम मिलता है। कर्णप्रयाग को दानवीर कर्ण की तपस्थली भी कहा जाता है। इसीलिए यहाँ कर्ण का मंदिर भी है। यहाँ कर्ण ने सूर्य भगवान की तपस्या की थी जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने कर्ण को अभेद्य कवच और अक्षय तूणीर दिये थे दक्ष प्रजापति की पुत्री सती ने भी दूसरे जन्म में पार्वती के रूप में उत्पन्न होकर साधनारत्‌ भगवान शिव का वरण करने के लिए यहाँ पर तपस्या की थी। पार्वती की माँ मैना ने तपस्या में लीन पार्वती को देखकर उन्हें उमा के नाम से सम्बोधित किया था। कत्यूरी शैली में बना उमा देवी का प्राचीन मन्दिर आज भी श्रद्धालुओं की परम आस्था का प्रतीक है।
प्राचीन कर्णप्रयाग के विषय में मान्यता है कि 1894 ई0 में आई बिरही बाढ़ में प्राचीन कर्णप्रयाग बह गया था। पुरानी चट्टी तब वर्तमान बस स्टेशन से आध किमी0 पहले रुद्रप्रयाग से आने वाले मार्ग पर अलकनंदा के बाएं तट पर थी। जहाँ नदी से 50 पफीट ऊँची चट्टान, कर्णशिला नाम से जानी जाती थी। अब उसके निकट पैरूल देवता और राम का मंदिर बन गया है। यहीं वह प्राचीन चट्टी थी जहाँ बधण देवता की पूजा गाय भैंस के ब्याहने पर अनिवार्य रूप से करने का विधन था। इसके निकट का बाजार तब दक्षिण में पंच पल्या तक पफैला था।
कर्णप्रयाग की पृष्ठभूमि में चांदपुर नाम का एक छोटा राज्य भी अस्तित्व में था, जिसको अन्ततः गढ़ राज्य में स्थापित होने का गौरव मिला। इसी क्षेत्रा में नौटी में नंदादेवी की थात है, जिसकी राजजात विश्वप्रसिद्ध है। चांदपुर के नजदीक आदि बदरी का एक नाथ केन्द है, जिसके मंदिर दसवीं शती ई0 के हैं। कर्णप्रयाग से 6 किलोमीटर दूर सिमली नामक स्थान में उत्तरगुप्तकालीन मूर्तियाँ मिली हैं। कर्णप्रयाग में कर्णप्रयागी ब्राह्मण रहते हैं। वे उमादेवी के भी पुजारी हैं और घाट का दान भी लेते हैं। अंग्रेजों ने कर्णप्रयाग बाजार भेड़ गाँव में बसाया था पर अब मोटर पुल के पास नया बाजार भी बस गया है। कर्णप्रयाग में पुजारी ब्राह्मण भी रहते हैं।
कर्ण प्रयाग से एक मार्ग बदरीनानाथ औद दूसरा मार्ग आदिबदरी के लिए जाता है। यहीं से ग्वालदम होकर बैजनाथ के लिए भी मोटर मार्ग निकलता है।
नन्दप्रयाग
नन्द प्रयाग मन्दाकिनी और अलकनंदा नदियों के संगम और सुन्दर घाटियों के बीच बसा 914 मीटर की ऊँचाई पर चमोली जनपद के दशौली क्षेत्र में बदरीनाथ जाने वाले मुखय सड़क मार्ग पर है। यह भगवान श्रीकृष्ण की गोप पूजा स्थली है। केदारखण्ड पुराण के अनुसार नन्दाकिनी नदी को ‘नंदा’ कहा गया है। यहाँ नन्द महाराज ने बडा़ यज्ञ और तपस्या की थी। नन्द प्रयाग को केदारखण्ड में कण्वाश्रम कहा गया है। कण्वाश्रम के सात मील पूर्व में पर्वत पर वैरास कुण्ड है जहाँ महादेव का मन्दिर है। यहीं रावण का तप स्थल है जहाँ उसने अपने दस सिर काट कर चढ़ाये थे। दशमौली से ही इस क्षेत्र का नाम दशौली पड़ना बताया जाता है। नन्द प्रयाग का कण्वाश्रम क्षेत्र होने के कारण इस स्थान पर राजा दुष्यन्त के साथ शकुन्तलता पाणिग्रहण होना भी बताया जाता है। यहाँ से कुछ ही दूरी पर विशिष्टेश्वर महोदव, चंडिका और लक्ष्मीनारायण मन्दिर दर्शनीय हैं। यहाँ पर गोपीनाथ जी का मंदिर भी विशेष रूप से दर्शनीय है।
सन्‌ 1894 ई0 में विरही गंगा की बाढ़ से मन्दिर और स्थानीय आबादी को काफी नुकसान हुआ। तब मन्दिर व बाजार संगम स्थल पर ही थे इसके बाद मंदिर की स्थापना वर्तमान स्थल पर की गई। 1895 में जिस ऊँची जगह पर मन्दिर का निर्माण और विकास किया गया उस जगह का नाम 6कण्डासु’ था। प्राचीन समय में नन्द प्रयाग यहां का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। तिब्बत से ‘सुहागा’ और ‘शिलाजीत’ आदि लाकर इसी मार्ग से कुमाऊँ और अन्य क्षेत्रों की मण्डियों में व्यापारी ले जाते थे।
विष्णुप्रयाग
विष्णु प्रयाग समुद्र की सतह से 1372 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। मन्दाकिनी एवं धैली गंगा के संगम पर स्थित इस पवित्र स्थान पर नारद ने अष्टाक्षरी जप से भगवान विष्णु को प्रसन्न किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि यहाँ भगवान विष्णु नृसिंह अवतार में समाधिस्‍थ हुए थे।
पंच प्रयागों में देवप्रयाग के बाद विष्णु प्रयाग का विशेष महत्व माना गया है। यहाँ पर विष्णु कुण्ड, ब्रह्म कुण्ड, गणेश कुण्ड, भृंगी कुण्ड, ऋषि कुण्ड, सूर्य कुण्ड, दुर्गा कुण्ड, धन्‍्दा कुण्ड तथा प्रह्‌लाद कुण्ड आदि प्रमुख हैं। तीव्र वेगवती मन्दाकिनी और धैली के संगम पर स्नान जोखिम भरा है लेकिन यहाँ स्नान का विशेष महत्व है। दूर दूर से आने वाले श्रद्धालुओं की सुविध के लिए सन्‌ 1921 ई0 में कठोर चट्टानों का काट कर विष्णु कुण्ड तक सीढ़िया बनाई गई। स्नान करने वालों के लिए लोहे की जंजीरे व छल्ले लगाये भी गये पर असावधानीवश स्नान करने वालों के साथ यदा-कदा जल के तीव्र प्रवाह में बहने की घटनाएँ घटित हो जाती हैं।
प्राचीन समय से ही जोशीमठ से बिष्णु प्रयाग के लिए एक सीढ़ियों युक्त पैदल मार्ग भी है। यह मार्ग नृसिंहधार होकर उतरते हुए स्वामा और फिर मरवाड़ी तक पहुँचता है। विष्णु प्रयाग से बद्रीनाथ जाने के लिए भी तब ‘चैं’, ‘थैं’ खुरधर व हाथी पर्वत होकर मार्ग जाता था जो आज भी अज पथ, शंकुपथ और खड़ी चढ़ाई वाला है। तब ‘चैं’ में सीता मन्दिर, ‘थैं’ में जाख मन्दिर और खुरधर में चरण पादुका के चिन्हों की पूजा होती थी। एक अनुश्रुति के अनुसार इस क्षेत्रा में बाहरी आक्रमण अथवा अराजकता की स्थिति उत्पन्न होने पर लूटपाट के भय से बदरीनाथ के रावल, उनके सहायक, बदरीनाथ व पाण्डुकेश्वर मठ के सुरक्षा कर्मचारी तथा द्वारपाल अलकनन्दा पार करने के दोनो झूला पुलों के रस्से काट कर आक्रान्ताओं का वहाँ पहुँचना दुष्कर कर देते थे।

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