शिव और शक्ति

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

‘शिव’ की उत्पत्ति व विकास की कल्पना का क्रम पुराणों के साथ वैदिक साहित्य से भी मिलना प्रारम्भ हो जाता है। ऋगवेद में रुद्र की कल्पना में शिव की अनेक विशेषताओं और तत्सम्बन्धी पौराणिक गाथाओं के मूल का समावेश है। यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में जो शतरुद्रिय पाठ है, उसमें शिव का मूल रूप प्रतिबिम्बित है। अथर्ववेद में रुद्र की महिमा का गान है।
कल्याणकारी, मंगलकारी, सुख के स्रोत और शक्ति के प्रतीक देवाधिदेव आशुतोष भगवान शिव की पूजा व आराधना ही संसार की सब बाधाओं से पार तारने वाली है। सृष्टि का संचालन करने वाले परम तत्व के तीन रूप हैं-ब्रह्मा, विष्णु और महेश। महेश ही शिव हैं। ब्रह्मा सृष्टि के उत्पत्तिकर्त्ता हैं, विष्णु सृष्टि के पालनकर्त्ता हैं और सृष्टि संहार शिव का दायित्व है। शिव बड़े दयालु और शीघ्र प्रसन्न होने जाने वाले हैं। यह किसी जीव को दुखी देख ही नहीं सकते। इसलिए महादेव सृष्टि से विरत रहकर सदा ब्रह्म-ध्यान में मग्न रहते हैं। यदि कोई भाग्यवश इनके पास पहुँच गया तो वह तत्काल उसके मनोरथ को पूर्ण करते हैं। इनको इसकी चिन्ता नहीं कि जीव के कर्मों के आधार पर ब्रह्मा ने उस योनि में, जिसमें वह प्राप्त है, क्यों जन्म दिया है और किन पापों से उसे वे दुःख मिल रहे हैं, जिनसे वह पीड़ित है क्योंकि इनका अधिकार सृजन और पालन से पृथक् है। अर्थात् यह सृष्टि का संहार करते हैं। जो विराट् सृष्टि का संहार कर सकता है वह व्यक्ति का भी विनाश करने में समर्थ माना जा सकता है। लेकिन जब शिव सृष्टि का नाश करते हैं तो दुःखों को भी नष्ट करने में समर्थ हैं। शंका की जा सकती है कि शिव में संहार शक्ति होने से वे दुःख नाश कर सकते हैं, पर सुख देना उनके अधिकार में नहीं है। यदि तालाब में पानी सूख जाता है तो मिट्टी स्वतः दीख पड़ने लगती है। जब पवन का उष्ण प्रवाह तुषाराचल को प्राप्त हो नष्ट होता है तब बिना किसी यत्न के पवन-प्रवाह में शीत-गुण आ जाता है। अतः एक पदार्थ के नष्ट होने पर उसकी प्रतिद्वन्द्वी वस्तु के लिए प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वरन् वह स्वतः सन्निकट रहती है। तब शिवजी द्वारा पाप तथा दुःख नष्ट कर डाले जाते हैं तो पुण्य और सुख स्वतः उस व्यक्ति के पास पहुँच जाते हैं। इसीलिए इन्हें ‘आशुतोष’ भी कहा गया है।
शिव सृष्टि के आदि कारण हैं। उमामहेश्वर, अर्द्धनारीश्वर, पशुपति, कृतिवास, दक्षिणामूर्ति इनके अनेक रूप हैं। महात्मा तुलसीदास ने एक अनुपम दानी के रूप में शिव का स्मरण किया है। पुराणों में उल्लेख है कि शिव आशुतोष हैं, केवल भांग-धतूरा अर्पित करने तथा थाल बजाने मात्रा से वे प्रसन्न हो जाते हैं। देवताओं तथा असुरों के समान रूप से शिव उपास्य हैं। अंध्क, दुन्दुभी, महिष, रावण आदि दैत्य अनन्य शिव भक्त रहे हैं। शिव नित्य और अनन्त हैं। वह आदिदेव हैं, महादेव हैं। शिव मृत्युंजय हैं, काल इनकी आज्ञा का पालक है। भारतीय संस्कृति, जीवन तथा दर्शन शिव के मूलाधर हैं। द्धग्वेद मेे शिव का वर्णन ‘रूद्र’ रूप में हुआ है। ‘यजुर्वेद’ के सोलहवें अध्याय में रुद्र भगवान् की स्तुति है। अथर्ववेद में शिव का उल्लेख ‘पशुपति’ के रूप में हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में भी रूद्र की उत्पत्ति का उल्लेख है। भगवान् शिव की उपासना में लिंग पूजन का विशेष महत्व है। लयनात् लिंगम जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का लय होता है, वह लिंग है। शिवलिंग सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक है। लिंग निगुर्ण निराकार ब्रह्म है तो मूर्ति साकार ब्रह्म।
शिव अपनी पत्नी पार्वती सहित कैलाश में वास करते हैं। उनका सारा शरीर भस्म से विभूषित है। पहनने बिछाने में वे व्याघ्र चर्म का प्रयोग करते हैं। गले में सर्प और कण्ठ नरमुण्ड माला से अलंकृत है। उनके सिर पर जटाजूट है जिसमें द्वितीया का चन्द्रमा जटित है। इसी जटा से जगत्पावनी गंगा प्रवाहित होती है। ललाट के मध्य में तीसरा नेत्र है, जो अर्न्तदृष्टि ज्ञान का प्रतीक हे। इसी से उन्होंने काम का दहन किया था। कण्ठ उनका नीला है। एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरु शोभायमान है। सर्वविघननाशक गणेश और देव-सेनापति कार्तिकेय शंकर के दो पुत्र हैं। भूत और प्रेत इनके गण हैं। ‘नन्दी’ बैल इनका वाहन है। कृषि भू-भारत में बैल का अनन्य स्थान है। समूची धरती बैल के सहारे स्थित है। वृषभ का वेद भी गुणगान करता है।
शिव का प्रधन अस्त्र त्रिशूल है। यह मानवीय तीन शक्तियों का प्रतीक माना जाता है, इच्छा, ज्ञान और क्रिया। इस विषय में शिव मिथक का वैज्ञानिक पक्ष बड़ा रोचक माना जाता है क्योंकि जहाँ शिव है वहाँ शक्ति या ऊर्जा है जो कोयले की खोज से पहले पानी से प्राप्त की जाती थी और जहाँ पानी-बिजली का सम्बन्ध जुड़ा वहीं बादल से बिजली गिरने की संभावना हिमानी ऊँचाइयों पर ज्यादा हो जाती है। तो जहाँ-जहाँ ऊँचाईयों पर शिव पहुँचे उनके साथ त्रिशूल भी गया। ऐसा लगता है कि जल-विद्युत, हिमगिरि और त्रिशूल का वैज्ञानिक सम्बन्ध रहा होगा।
शिव को पतित पावन तथा अछूतोद्धारक माना गया है। अछूत सर्प उनके गले का हार हैं। भूत-पिशाच, नंग-ध्ड़ंग अध्म प्रतीत होने वाले गण शिव के संगी-साथी हैं। जिसका सृष्टि में कोई न हो उसके लिए अशरण शिव हैं। 108 प्रकार के नाट्यों की उत्पत्ति शिव से मानी जाती है। जिसमें लास्य और ताण्डव दोनों सम्मिलित हैं। शाक्त मतानुसार शिव ही अपनी शक्ति के द्वारा विश्वरूप हो जाते हैं। अथवा इसे बहुध इस प्रकार कहा जाता है कि शिव अपनी अपिरिच्छिन सत्ता को त्यागकर परिच्छिन्न जीव बन जाते हैं। इसलिए प्रत्येक जीव आत्मरूप से शिव हैं और मन एवं शरीर के रूप में शक्ति है। वस्तुतः शिव को जीवरूप में भोग के लिए जिन-जिन उपकरणों की आवश्यकता है उन-उन रूपों में स्वयं शक्ति ही प्रकट हो जाती है।
शिव मंदिरों में शिवलिंग पूजन का प्रसंग गम्भीर एवं रहस्यपूर्ण है। शिव को भारतीय संस्कृति के समन्वयवादी रूप में स्मरण किया जाता है। पार्वती का सिंह शिव के नंदी बैल को कुछ नहीं कहता। शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन मोर शिव के गले में पड़े साँप की माला को कभी छूता तक नहीं। शिव के गण वीरभद्र का कुत्ता गणेश के चूहे की ओर ताकता तक नहीं। परस्पर विरोधी भाव छोड़कर सभी आपस में सहयोग तथा सद्भाव से रहते हैं।
वस्तुतः पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति से घायल होकर और वैज्ञानिक प्रगति की अंधदौड़ से आत्म-विस्मृत होने के कारण धर्म श्रद्धा से विहीन हो गया है, लेकिन फिर भी शिव की भक्ति, शक्ति व मान्यता हिन्दू र्ध्म में चिर स्थायी है जो शिव की महत्ता को प्रदर्शित करती है।
शिवलिंग शक्ति और शक्तिमान का प्रतीक है। पुरूष प्रकृति का सहज चिन्ह है। इसे कोई एन्द्रिय चिन्ह मानकर अपने मन को विकृत करे वह उसके भीतर का ही कलुष है। प्रतिमा काल्पनिक नहीं हुआ करती, वह वास्तविक की प्रर्तिमूर्ति होती है। जगत् वैज्ञानिक इस मूर्ति को अणु-अणु में देख सकते हैं। चुम्बक जब लोहे को खींचता है दोनों की शक्ति का क्या रूप होता है? प्रकृति में वही प्रतीक है सर्वत्र लिंग विग्रह का शक्ति समन्वित प्रतीक है। यह साधक को उसे परम पुरूष में एकाग्र कर देता है।
भगवान शिव का चरित्र बड़ा ही उदात्त एवं अनुकम्पा पूर्ण है। वे वैराग्य और साध्ुाता के परम आदर्श हैं। यह सम्पूर्ण संसार भगवान शिव तथा उनकी शक्ति शिवा की लीला का ही विलास है। उनकी लीलाएं बड़ी ही विलक्षण एवं मनोरम हैं। उनकी व्यक्त और अव्यक्त समस्त लीलाओं में अनन्त कल्याण एवं जगत का मंगल परिव्याप्त है।
धरती पर जहाँ-जहाँ लोगों ने शिव की आराधा की वे उन्हीं स्थानों में अर्विभूत होकर लिंग रूप में अवस्थित हुए। ‘शिव’ शब्द ही अपने आप में कल्याण का प्रतीक है नाम के स्मरण मात्र से रोग, शोक व विपदाओं का हरण हो जाता है, यहीं कारण है कि उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में रामेश्वरम तक यत्र-तत्र छोटे-बड़े लाखों शिवालयों में नित्य भगवान शिव का जलाभिषेक किया जाता है। श्रद्धालुओं की धारणा है कि महादेव शिवधम कैलाश से लेकर सागर की गहराइयों तक कण-कण में वास करते हैं।
तपोभूमि कहलायी जाने वाली ‘उत्तराखण्ड’ की भूमि पर नारी रूपी ‘शक्ति’अर्थात देवी पूजा की परम्परा अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है जिसका अनुसरण आज के वैज्ञानिक युग में भी उसी परम्परागत रूप से देखने को मिलता है। जनविश्वास के अनुसार कार्यों को बनाने या बिगाड़ने में देवी अपने विभिन्न रूपों में आज भी वहाँ विद्यमान रहती है इसलिए प्रत्येक कार्य से पूर्व देवी का स्मरण, पूजा, आराधना या स्तुति करने के उपरान्त अभिष्ट कार्य की सिद्धि होने पर उसे देवी की कृपा अथवा प्रसन्नता का प्रतीक तथा मनोवांछित कार्य सिद्ध न होने यथा-दुधरू पशु द्वारा दूध न देना, किसी पारिवारिक सदस्य की अस्वस्थता, फसल अच्छी न होना देवताओं की तरह ही देवी के प्रकोप भी माने जाते हैं। देवी शक्ति के प्रति स्थानीय लोगों का यह विश्वास और दृढ़ आस्था आज भी इस परम्परा को पूर्व की भांति जीवित रखे हुए हैं।
पुराणों में भी शक्ति का वही रूप माना गया है जो वेदान्त में सगुण, निर्गुण, उभयात्मक ब्रह्म का माना गया है। शाक्त मत के अनुयायियों ने भी उपनिषदों के अनुसार शक्ति-तत्व का प्रतिपादन करके अनन्तरवर्ती धर्मिक साध्कों के ज्ञान और साध्न की सुगमता के लिए वेदान्त की सृजनकारिणी चैतन्य शक्ति के सिद्धान्त की ही पुष्टि की है। वेदों ने तो नारी को देवी शक्ति मानकर उसकी महिमा का गुणगान किया है। वेद का कवि जब प्राकृतिक उषा की छटा का वर्णन करने लगता है तब उसमें चेतनता का आरोप करके उसे मूर्तिमती चेतन देवी के रूप में वर्णित करता है। साथ वे आघ्यात्मिक अन्तःप्रकाश की उषा की ओर भी संकेत करते हैं। ऐसा ही वर्णन अदिति, सरस्वती, इडा, भारती आदि अन्य देवियों के लिए भी किया है। इस तथ्य को देखते हुए वेदों के कई परिच्छेदों में तो नारी के मातृ-रूप, पत्नी-रूप, वीरांगना-रूप आदि को चित्रित करने के लिए विभिन्न देवियों के मन्त्र भी दिये गये हैं।
पुरूष देवता की अपेक्षा स्त्री-देवता (शक्ति) अति शीघ्र प्रसन्न होती है, क्योंकि उसमें करुणा अध्कि होती है। जो गुण माता में पाये जाते हैं वे सब स्त्री देवता के हैं। मनुष्य जाति की स्त्री में राजस एवं तामस का बाहुल्य रहता है, इससे उसमें शुद्ध सात्विक करुणा का उदय हो नहीं पाता, पर जो भगवती गुणातीत है उसकी करुणा की कथा क्या कही जाए? उसके सम्मुख होने की देर है, फिर तो वह कृपा-वर्षा से भक्त को पूर्ण कर देती है। किसी भी रूप में देवी की पूजा, उपासना या भक्ति से मनुष्य में तमस औैर राजस गुणों की कमी होकर सत्व की अंश बढ़ता है, वह मुक्ति की ओर बढ़ने लगता है तथा जन्म-मरण के चक्कर से छूट जाता है।
नारी का यह रूप ब्रह्मा, विद्या, श्रद्धा, शक्ति और पवित्राता है, वह सब कुछ है जो संसार में सर्वश्रेष्ठ के रूप में दिखाई देता है। नारी कामध्ेानु है, अन्नपूर्णा सिद्धि है। शास्त्रों में नारी को गौरवमय स्थान प्राप्त है और नारी को ही घर कहा गया है। नारी ने अलग-अलग सीमा में रहकर समाज को उन्नति के शिखर पर पहुँचाने की जिम्मेदारी से भी स्वयं को अलंकृत किया है इसीलिए इतनी विशेषताओं के कारण समाज ने उसे देवी मान कर उस शक्ति के मन्दिर बनाये और उसकी पूजा की है। कालान्तर में अपने श्रेष्ठ कर्मों और शक्ति के कारण ही नारी देवी, दुर्गा, काली, भवानी आदि विभिन्न नामरूपिणी कहलाई और अचिन्त्य तथा अमित आकारवाली शक्तिस्वरूप वाली हो गयी।
शास्त्रों में ‘शक्ति’ शब्द के प्रसंगानुसार अलग-अलग अर्थ निकाले गये हैं। तांत्रिक लोग इसे पराशक्ति कहते हैं और इसी को विज्ञानानन्दघन ब्रह्म मानते हैं। वेद, शास्त्रा, उपनिषद्, पुराण आदि ने भी शक्ति शब्द का प्रयोग देवी, पराशक्ति, ईश्वरी, मूल प्रकृति आदि नामों से विज्ञानानन्दघन, निर्गुण ब्रह्म एवं सगुण ब्रह्म के लिए भी किया गया है। जब सर्वव्यापनी ईश्वरीय शक्ति अपने को अभिव्यक्त करती है तो वह परस्पर दो विरोध्ी शक्तियों के रूप में प्रकट होती है। उनमें से एक शक्ति ईश्वरोन्मुख होती है। इसे संस्कृत में ‘विद्या’ कहते हैं। दूसरी शक्ति संसार प्रवण होती है और ‘अविद्या’ कहलाती है। पहली मोक्ष और आनन्द देने वाली है और दूसरी बन्धन तथा दुख का कारण होती है। विद्या शक्ति को ही हिन्दु जगजननी मानकर दुर्गा, भवानी, काली आदि रूपों और विभिन्न नामों से पूजते हैं। अविद्या शक्ति इस विद्या शक्ति की अनुचरी एवं अधीनवर्तिनी मानी जाती है।
वेदों के अनुसार एक ‘अजा’ से ही अनेक प्रजा की उत्पत्ति हुई, विश्व की अखिल सत्ता, चेतनता, ज्ञान, प्रकाश, आनन्द, क्रिया, सामर्थ्य आदि शक्ति के कार्य हैं, वेद माता गायत्राी और ज्ञान मार्ग की विद्या जिसके द्वारा अविद्या का नाश और ब्रह्म की प्राप्ति होती है तथा इष्टों की अर्धंगिनी दुर्गा, सीता, राध, लक्ष्मी, गायत्राी, सरस्वती आदि जिनकी कृपा दृष्टि से इष्ट की प्राप्ति होती है वह सब आद्याशक्ति ही है।
प्रत्येक शुभ-अशुभ घटनाओं को अदृश्य देवी शक्ति की कृपा मान कर उसकी स्तुति करने वाले जब संकट से उबर जाते हैं तो वह उसे किसी दैविक चमत्कार से कम नहीं मानते। उनका अटूट विश्वास है कि पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता, नभचर, जलचर व उपदेश मात्रा से सिद्ध होने वाले निम्न कोटि के देवता, अपने जन्म के साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, कंठमाला, डाकिनी, शाकिनी, पिशाचिनी, भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, गर्न्ध्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कुष्मण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता हृदय में देवी का कवच धरण किये रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। इसी विश्वास के चलते पहाड़ के जन जीवन में देवी शक्ति की सर्वोच्च मान्यता है। गाढ़-गदेरों के पत्थरों को देवालय में स्थापित कर उनमें देवी और उसके वाहन की कल्पना करने वाले देवी के भक्तों के ज्ञान चक्षु वेद, पुराण व र्ध्म ग्रन्थों ने खोल दिये हैं। राजशाही युग के पूर्व से ही वे यह जानने लगे थे कि चामुण्डा देवी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं, वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं, ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है, वैष्णवी देवी गरूड़ पर आसन जमाती हैं, माहेश्वरी और ईश्वरी देवी वृषभ पर आरूढ़ होती हैं, कौमारी का वाहन मयूर है, लक्ष्मी कमल पर विराजमान हैं, ब्राह्मी हंस पर बैठी हैं। देवियों ने विभिन्न रूपों में दैत्यों के सशरीर नाश, भक्तों को अभयदान और देवताओं के कल्याण के लिए शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल, मूसल, खेटक, तोमर, परशु तथा पाश्व, कुन्त त्रिशूल धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र धरण किये हैं। उत्खनन में प्राप्त कई अवशेषों मे देवी के ऐसे ही कई रूपों को चित्राकारों और शिल्पियों ने अपनी कलाकृतियों मे जीवन्त किया हुआ है।
उत्तरांचल के निवासियों ने अपनी सांसारिक सपफलता और वैभव में ‘शक्ति’ का महत्व आदि काल से ही स्वीकार किया है। वेदों में पृथ्वी, वाक्देवी, अदिति उषा श्री आदि की मान्यता से ही यह संकेत मिल जाता है कि वैदिक काल में मानव ने शक्ति के विविध् रूपों की कल्पना कर ली थी। वैदिक और पौराणिक साहित्य में देवासुर संग्राम की विशेष चर्चा है। कई पीढ़ी तक देवता और असुर आपस में लड़ते रहे। असुरों से परास्त होने पर देवताओं ने हिमालय में शरण ली और सर्व प्रथम हिमालय में ही ‘शक्ति’ अर्थात दुर्गा की पूजा प्रारम्भ हुई। शैल पुत्राी, ब्रह्मचारिणी,चन्द्रघण्टा, कुशमाण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्री, महागौरी और सिद्धदात्री नवदुर्गा रूप में प्रसिद्ध हैं लेकिन नौ देवी रूपों के अतिरिक्त भी मानव रक्षा करने और दण्ड देने वाली शक्तियों के रूप में चामुण्डा, बाराही, एन्द्रिय, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, लक्ष्मी, ईश्वरी, ब्राह्मी, वारूणी, जया, विजया, उमा, कालिका, सरस्वती, चण्डिका, महामाया, कामाक्षी भद्रकाली, अम्बिका, ललिता, भगवती, विन्ध्यवासिनी, नारसिंही, कावेरी, बागीश्वरी, पार्वती, पद्मावती, ज्वालामुखी, योगिनी, भैरवी, जयन्ती, डाकिनी, शाकिनी चण्डी आदि देवियों का पूजन सर्वत्र प्रचलित है। उत्तराखण्ड में भी इन देवी नामों के अलावा सैकड़ों स्थानीय देवी नाम मिलते हैं। इतनी अधिक देवियों की मान्यता किसी एक जाति में न होकर अलग-अलग जातियों की ईष्ट देवियों की होती हैं। कालान्तर में विभिन्न सम्प्रदायों के हिन्दू धर्म में आत्मसात होने से ये सभी एक ही देवी के रूप में मान लिये गये इसी लिए देवी की उत्पत्ति के अलग-अलग कथानक मिलते हैं। पुस्तक के इस भाग में देवी के इन्हीं स्वरूपों पर प्रकाश डाला गया है जो भिन्न-भिन्न नामरूपधारिणी होकर भी वास्तव में एक ही शक्ति है ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!