शिव के पाँच धाम : पंच केदार

-त्रिलोक चन्द्र भट्ट

धरती पर जहाँ-जहाँ लोगों ने भगवान शिव की आराधना की वे उन्हीं स्थानों में अर्विभूत होकर लिंगरूप में अवस्थित हुये।  शीघ्र प्रसन्न होने के कारण उन्हें ‘आशुतोष’ कहा गया तो भगवती उमा का पति होने के कारण ‘उमापति’ कहलाये कहीं पर महादेव के नाम से जाने गये तो कहीं ‘मृत्युंजय’ के नाम से पुकारे गये। उन्हें ‘बागनाथ’, ‘जागनाथ’ आदि कई नामों से भी जाना जाता है। वे उत्तराखण्ड हिमालय के गढ़वाल संभाग में केदारनाथ के रूप में भी विद्यमान हैं। उत्तराखंड का ‘केदार खण्ड’ भाग ऊँची पर्वत श्रेणियों में हिमालय की गोद में फैला हुआ है।  इसी सम्भाग से गंगा यमुना का उद्गम होने से इसका महत्व आदि काल से ही रहा है।  प्रथम देवआत्मा ऋषि कुल शिरोमणि शिव की साधना स्थली इस भू-भाग से सम्बन्धित रही।  यह शिव धम और भगवान रूप में पूजा का तीर्थ धाम मान कर पूजा जाता रहा।  पुराण गाथाओं में स्कन्द पुराण 8वीं ई0 में लिखा गया।  इसी प्रकार इसका एक भाग केदार खण्ड नाम से लिखा गया।  केदार खण्ड नाम सबसे पहले अशोक चल्ल के गोपेश्वर लेख में सन् 1193 ई0 में सर्वप्रथम मिलता है।  केदारखण्ड नाम 10वीं ई0 के बाद और 11वीं शती के मध्य प्रचलित हो गया था।  
देवभूमि उत्तराखण्ड मे केदार रूप में केदारनाथ सहित मद्महेश्वर, तुंगनाथ रूद्रनाथ व कल्पेश्वर शिव के पाँच धाम हैं इन्हीं को पंच केदार कहा जाता हैं। रोग, शोक, व विपदाओं का हरण कर दिव्य लोक की अनुभूति प्रदान करने वाले केदारनाथ में भगवान शिव की महिष रूप में, मद्महेश्वर में नाभि, तुंगनाथ में भुजा, रूद्रनाथ में मुख और कल्पेश्वर में जटाओं की पूजा होती है। जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।

केदारनाथ
बारह ज्योर्तिलिंगों में श्रेष्ठ केदारलिंग/केदारनाथ में साक्षात शिव निवास करते हैं। केदार उन अनगढ़ शिलाओं और शिखरों को भी कहते हैं जिनमें भगवान शिव का निवास माना जाता है। संस्कृत में ‘केदार’ शब्द का प्रयोग सेम या दलदली भूमि अथवा धान की रोपाई वाले खेत के लिए होता है। सम्भवतः केदार तीर्थ के कारण उसके पड़ोस की भूमि केदार भूमि या केदारखण्ड कहलाई। सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली मोक्षदायिनी केदार भूमि के वर्णन से धर्मशास्त्र भरे पड़े हैं। शिव पुराण, पद्म पुराण, कूर्म पुराण, स्कन्द पुराण, वाराह पुराण, सौर पुराण, वामन पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा लिंग पुराण आदि में केदार तीर्थ को मनुष्य के सम्पूर्ण पापों का नाशक और मोक्षदायक बताया गया है।
केदारनाथ के पूर्वी ओर अलकनन्दा तथा पश्चिम की ओर मन्दाकिनी नदी बहती है। मान्यता है कि नर-नारायण ऋषि की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने प्रकट होकर यहाँ ज्योतिर्लिंग के रूप में वास करना स्वीकार किया। यहाँ सबसे पहले पाण्डवों ने मन्दिर निर्माण करवाया। बाद में आदि शंकराचार्य, नेपाल नरेश और ग्वालियर के राजा ने अलग अलग समय पर इसका जीर्णाेद्धार करवाया। यहाँ भगवान शंकर शिवलिंग के रूप के बजाय तिकोनी शिला के रूप में हैं। केदारनाथ की श्रृंगारमूर्ति पंचमुखी है जो हर समय वस्त्रा व आभूषणों से अलंकृत रहती हैं सर्दियों में मन्दिर के कपाट बन्द बन्द रहने पर केदारनाथ के चलविग्रह को ऊखीमठ ले जा कर लगभग छः माह तक वहाँ के ओंकारेश्वर मन्दिर में भगवान की पूजा की जाती है।
केदारनाथ मन्दिर के बाहरी प्रासाद में पार्वती, पाँडव, लक्ष्मी आदि की मूर्तियाँ हैं। मन्दिर के समीप हंसक कुण्ड है जहाँ पितरों की मुक्ति हेतु श्राद्ध-तर्पण आदि किया जाता है। मंदिर के पीछे अमृत कुण्ड है तथा कुछ दूर रेतस कुण्ड है। ऐसा सुना जाता है कि उसके जल पीने मात्र से ही मनुष्य शिव रूप हो जाता है। उसमें पारा दिखाई देता है। उसके जल में बुलबुले उठते रहते हैं। इसी के पास भृगु तुंग, श्री शिला, हिरण्यगर्भ नामक तीर्थ व पूर्व दिशा में वन्हितीर्थ विद्यमान हैं। केदारनाथ के मंदिर के पास ही उद्क कुण्ड है जिसकी महिमा विशेष बताई जाती है। श्रद्धालु केदारनाथ के मुख्य मंदिर में पूजा करके पिण्डी का आलिंगन करते हैं।
केदारनाथ की भूमि में प्रविष्ट होते ही आनन्द और आश्चर्य की सीमा नहीं रहती। समुद्र की सतह से 3, 581 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस मंजुल तीर्थ पर पहुँचते ही शीत, क्षुध, पिपासा आदि कितने ही विघ्नों के होते हुए भी किसी भी धर्मिक व्यक्ति का मन भाव समाधि में लीन हो जाता है। ध्वल पर्वत पंक्तियों के बीच खड़ा मनुष्य ईश्वर की अखण्ड विभूति को देख कर ठगा सा रह जाता है। शुद्धि की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। लेकिन जो व्यक्ति नगरों में रहते हुए गंगा के जल को छूते तक नहीं, देव मंदिरों को क्षाँकते तक नहीं, वह केदारनाथ की सत्व भूमि पृथ्वी पर आकर मंदाकिनी की अति शीतल जलधरा में बड़ी श्रद्धा से स्नान करके ‘’केदारनाथ की जय’ की पुण्य ध्वनि के साथ और ‘’हर-हर महादेव’ के जयघोष से मन्दिरों में प्रवेश करते हैं। शिव भक्तों का विश्वास है कि वह सभी जीवों के प्रति समान प्रेम और स्नेह रखते हैं तभी यहाँ आने वाले लोगों के मन में चित्त को पिघला देने वाला अनुराग एवं शुद्ध भक्ति पैदा होने से मनुष्य जन्म कृतार्थ होता है।
शिवपुराण के अनुसार शिवजी के बारह लिंगों में से केदारेश्वर लिंग हिमालय पर्वत पर स्थित है। कहते हैं कि इसके दर्शन करने से महापापी भी पापों से छूट जाता है। स्कन्ध् पुराण में कहा गया है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात्‌ा जब व्यास जी से युध्ष्ठिर ने हत्याओं के पापों से मुक्ति के लिए पूछा तो उन्होंने कहा कि केदार के दर्शन किये बिना तुम पापों से मुक्त नहीं हो सकते। वहाँ जाने पर सब प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं और वहाँ मृत्यु होने से मुनष्य शिवरूप हो जाता है। गरूड़ पुराण के अनुसार केदार ही ऐसा तीर्थ है जो सम्पूर्ण पापों से मुक्ति प्रदान करने वाला है। पद्म पुराण में कुम्भ राशि में सूर्य और बृहस्पति के हो जाने पर केदार के दर्शन का लाभ बताया गया है। कूर्म पुराण में कहा गया है कि जो केदार के दर्शन करता है उसे रूद्रलोक मिलता है। वामन पुराण के अनुसार केदार क्षेत्रा के आस पास निवास करने से भी मनुष्य अनायास ही स्वर्ग को आता है। लिंग पुराण का मानना है कि जो मनुष्य सांसारिक सुखों से सन्यास लेकर केदार में निवास करता है वह शिव के समान हो जाता है। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार केदार नामक राजा सतयुग में सप्तद्वीप में राज्य करता था। उसने जिस वन में तप किया वह केदार खण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ।
केदारनाथ के निकट अनेक पौराणिक और धर्मिक महत्व के स्थान हैं। केदार नाथ के पार्श्व भाग मे आदि गुरू शंकराचार्य की समाधि है। जनश्रुति है कि बदरी-केदार और गंगोत्री-यमुनोत्री चार धमों की स्थापना के बाद 8वीं सदी में मात्रा 32 वर्ष की आयु के पश्चात्‌ा शंकराचार्य समाधि लीन हो गये थे। मंदिर से कुछ ही दूरी पर भैरव झाप है उसे भैरव शिला और भुकुण्ड भैरव के नाम से भी जाता जाता है। जहाँ से हिमालय का मनोहर दृश्य अत्यन्त नजदीक दिखाई पड़ता है। केदार क्षेत्र का रक्षक भैरव देवता को माना जाता है यहाँ भैरव का पूजन किया जाता है। विशेष पूजन केदारनाथ मंदिर के कपाट खुलने और बन्द होने के समय किया जाता है। पास में बर्फानी झील है, वहीं से मंदाकिनी नदी का उद्गम होता है। भैरव शिला के निकट एक प्राचीन गुफा है भीमगुहा ने नाम से प्रसिद्ध इस स्थान के कुछ ही दूरी पर भीम शिला है लोक मान्यताओं के अनुसार इस शिला पर महाबली भीम ने विश्राम किया था। केदारनाथ से कुछ दूरी पर चोराबारी ताल है इस ताल में महात्मा गाँधी की अस्थियाँ विसर्जित करने के बाद यह ताल गाँधी सरोवर के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। इसी के निकट एक दूसरा ताल भी है जिसे वासुकी ताल कहते हैं। केदारनाथ मंदिर के निकट ही भृगुपंथ नामक शिखर है जिसे भृगुतुंग अथवा महापंथ के नाम से भी जाना जाता है। इस शिखर पर जाने वाला मार्ग स्वर्गारोहिणी कहलाता है। पंचपांडव युधिष्‍ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव ने द्रौपदी सहित इसी मार्ग से स्वर्गारोहण किया था।
प्राचीन काल में लोग अपनी देह त्यागने की इच्छा से भृगुपंथ आते थे और उन्नत शिखर के दूसरी ओर हिमानी (ग्लेशियर) में कूद कर आत्महत्या करते थे। लोगों का ऐसा विश्वास था कि यहाँ शरीर त्यागने पर स्वयं इन्द्र उनका स्वागत करते हैं और उसे विष्णुलोक प्राप्त होता है। इस स्थान पर आत्महत्या करने वाले श्रद्धालु और तीर्थ यात्रियों के नाम स्वर्गारोहिणी की शिलाओं पर भी अंकित मिलते रहे हैं। वर्तमान समय में यह प्रथा पूरी तरह बन्द हो चुकी है।
मद्महेश्वर
पंच केदारों में मद्महेश्वर अथवा मध्यमहेश्वर को द्वितीय केदार माना जाता है। यह जनपद चमोली के नागपुर परगने में पट्टी मल्ली कालीफाट में समुद्र तट से 3289 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। धर्मिक गाथाओं के अनुसार जब शिव धरती में समाये थे तो उनकी नाभि यहाँ निकली थी। शिव के शरीर के मध्य भाग के यहाँ स्थापित होने से ही उसे मध्यमहेश्वर कहते हैं। पुराणों में कहा गया है कि जो व्यक्ति इस पवित्र तीर्थ में पिंड दान करता है अपने पितरों की कई पीढ़ियों का तारण कर देता है। मान्यता है कि भगवान शिव ने यहाँ अपनी मधु चन्द्र रात्रि मनायी थी। यहाँ शिव की नाभि की आकृति का शिवलिंग स्थापित है इसी की पूजा मदमहेश्वर में होती है। मंदिर के पुजारी की नियुक्ति केदारनाथ का रावल करता है। इस पावन तीर्थ के निकट सरस्वती का उद्गम स्थल भी बताया गया है। सरस्वती कुण्ड में स्नान, तर्पण और गोदान का बड़ा महत्व है।
पाण्डवों ने स्वर्गारोहण के समय पंचकेदारों के भव्य मन्दिर बनाए थे। उसमें इस मन्दिर का भी नाम आता है। पुराणों के अनुसार मद्महेश्वर तीर्थ में गौड़ देश का ब्राह्मण अपने समस्त पित्रों के कल्याणार्थ मनवाँछित फल की प्राप्ति हेतु पहुँचा। तीन रात्रि जागरण करते हुए यथोचित पूजन अर्चन के पश्चात वह लौट ही रहा था कि उन्हें मार्ग में एक विशाल विकराल राक्षस दिखाई दिया जिसकी जंघाओं से सैकड़ों कृमि निकल रहे थे। यह देख उक्त ब्राह्मण भयभीत हो गए। घबराए हुए वह कुछ भी नहीं बोल पाए वह ब्रह्म राक्षस भी एक टक ब्राह्मण को देखने लगा। वह बोला कि मैं समक्ष रहा हूँ कि मेरे पास कुछ पाप तुम्हारे दर्शनों से दूर हो गए हैं। देखते ही देखते वह राक्षस शरीरधर सुन्दर स्वरूप वाला बन गया। और मद्महेश्वर में पूजन-अर्चन कर अदृश्य हो गया। तब से यह तीर्थ आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रहा है। कहते हैं कि इस तीर्थ में नित्य प्रति स्वर्ग लोक से कामधेनु दूध् चढ़ाने आती थी। जिस पर इन्द्र के गण ने प्रहार किया था। यह प्रहार गाय को न लगकर भगवान शिव को लगा था। वर्तमान समय में भी यहाँ गाय के खुर तथा स्तन विद्यमान है। श्रद्धालु भक्तगण आज भी यहां गोदान व पिण्डदान करते हैं।
मद्महेश्वर के धर्मिक महत्व का उल्लेख स्कन्द पुराण के 47 व 48वें अघ्याय मे भी मिलता है जिसमें कहा कहा गया है कि –
अध्यमेश्वर क्षेत्रांहि गोपितं भुवन त्राये।
तस्य वै दर्शनान्यर्च्याे नाक पृृष्टि वसवत्सदा।।
निःसन्तान दम्पत्ति अगर पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए सच्ची भावना से नियमपूर्वक मद्महेश्वर में रात्रि जागरण कर शिव की आराधना करते हैं तो उन्हें निश्चित रूप से सन्तान प्राप्ति होती है। यहाँ से लगभग आधा कि0मी की दूरी पर वृद्ध मद्महेश्वर का पौराणिक मंदिर है, मद्महेश्वर मंदिर से 2 कि0मी0 की दूरी पर स्थित धैला क्षेत्रपाल नामक गुफा में भी श्रद्धालु पूजा, अर्चना के लिए जाते हैं।
तुंगनाथ
3750 मीटर की ऊँचाई पर स्थित तृतीय केदार ‘तुंगनाथश् मंदिर चन्द्रशिला शिखर पर है। यहाँ भगवान शिव बाहु रूप में हैं। मन्दिर में उनकी भुजाओं की पूजा की जाती है। इस सुरम्य स्थल से नन्दा देवी, नील कण्ठ, केदारनाथ और बन्दर पूँछ आदि की ऊँची पर्वत मालाओं का दृृश्य दिखाई देता है। पर्वत की ऊँची चोटी पर भगवान का मंदिर है। शिवलिंग श्याम पाषाण का है। तुंगनाथ के विषय में र्ध्मग्रन्थों में कहा गया है कि अपने जीवनकाल में जो व्यक्ति एक बार भी तुंगनाथ के दर्शन करता है मृत्युपरान्त वह श्रेष्ठ गति को प्राप्त होता है। सप्तऋषियों ने उच्च पद की प्राप्ति के लिए आदि काल में यहाँ घोर तपस्या की थी। सत्यभाव से गणों द्वारा आराध्ना करने से इस पर्वत को सत्यतारा भी कहा जाता है। शिव ने अपने गणों पर प्रसन्न होकर उन्हें तुंग पद दिया। जिस लिंग की उन्होंने आराध्ना की उसे तुंगनाथ कहा गया। एक अन्य प्रसंग के अनुसार महा विद्वान र्ध्मदत्त ब्राह्मण के पुत्रा कर्मशर्मा ने जब गलत संगत में पड़ कर यौवन सम्पन्न बहन को वैश्या बनाया और र्ध्म विरूद्ध आचरण करने लगा तो उसके पिता व ग्राम वासियों से उसे गाँव से निष्कासित कर दिया। निर्जन स्थान पर निवास करते हुए उसे एक दिन बाघ ने अपना शिकार बना लिया। जब उसके कंकाल से एक कौआ माँस युक्त हड्डी लेकर गया तो वह हड्डी तुंग क्षेत्र में गिर गयी। उध्र कर्म शर्मा की आत्मा को यमपुरी ले जा रहे यमदूतों से शिवगणों ने छीन लिया जिस कारण उसकी आत्मा शिवधाम पहुँच गयी। कहते हैं कि दूसरे जन्म में यही कर्म शर्मा धर्मचारी राजा बना। मंदिर का पट बन्द होने पर तुंगनाथ की पूजा मक्कूमठ में की जाती है। कहा जाता है कि जो भक्ति पूर्वक तुंगनाथ का पूजन कर दक्षिणा देता है वह हजार जन्मों तक दरिद्र नहीं होता। और वह करोड़ कल्पों तक शिवलोक में वास करता है। जो कोई मानव तुंगनाथ क्षेत्र में भक्ति से प्राणों का त्याग करता है, उसकी हड्डियाँ जितने दिनों तक उस क्षेत्र में रहती हैं उतने हजार युगों तक वह शिवलोक में पूजित होता है। तुंगनाथ में गर्भ गृह में लिंग के पीछे वेद व्यास शंकराचार्य, भैरव की मूर्तियां, आगे की ओर तुंगनाथ की भोग मूर्तियां, बाहरी तरफ पंच पाण्डव, कुन्ती, द्रोपदी सामने की ओर नन्दीगण,गणेश सहस्त्र लिंग हैं।
तुंगनाथ में भगवान शिव के दर्शनों के साथ-साथ नन्दादेवी के दर्शन भी अति महत्वूपूर्ण हैं यहाँ भूतनाथ भी समस्त कार्योें को सिद्ध करने वाले हैं तथा रक्षा में संलग्न रहते हैं।
रुद्रनाथ
1200 फीट की ऊँचाई पर रुद्र पर्वत जिसे लाल माटी पर्वत भी कहते हैं पर स्थित रूद्रनाथ को चतुर्थ केदार के रूप में पूजा जाता है। चमोली जिले में गोपेश्वर से मंडल-चोपता मार्ग पर सगर गांव से 18 कि0मी0 की चढ़ाई के बाद भगवान रूद्रनाथ के दर्शन होते हैं। यहाँ शिव के मुख की पूजा की जाती है। अंधक नामक दैत्य के द्वारा सभी लोकपाल और देवराज इन्द्र को भी पराजित कर जब अमरावती को भी जीत लिया तो देवता पृथ्वी पर भटकने लगे। तब देवताओं ने यहाँ भगवान शिव की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। रुद्रनाथ का मंदिर गुफा रूप मे हैं। कहा जाता है कि भगवान शिव अन्धकासुर का वध करने के उपरान्त पार्वती सहित यहीं निवास करते थे। रूद्रनाथ मंदिर में भगवान शिव के शिवलिंग के स्थान पर अखंड स्वयंभू मुख लिंग की पूजा होती है। एक गुफा में स्थित रूद्रनाथ मन्दिर में शिव की मुख मूर्ति थोड़ी तिरछी जमीन के अन्दर समायी हुई है। मूर्ति को दूर से ही देखा जा सकता है। इस मूर्ति को मात्र पुजारी ही छू सकता है। रूद्रनाथ की पूजा गोपेश्वर के भट्ट व तिवारी लोग करते हैं। शीतकाल में मन्दिर के कपाट बन्द होने पर नवम्बर से मई-जून तक रूद्रनाथ की मूर्ति गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मंदिर में रहती है। यही उसकी विधिपूर्वक पूजा-अर्चना की जाती है। लगभग 6 माह बाद जब रूद्रनाथ के कपाट खुलते हैं तब एक भव्य समारोह में मूर्ति को गोपेश्वर स्थित गोपीनाथ मन्दिर से विध्वित्‌ पूजा-अर्चना के साथ मंदिर से बाहर लाकर नहला ध्ुला कर डोली में सजाने के बाद बाजे-गाजों नगाड़ों व रूपछड़ी (चांदी की छड़ी) तुर्रा आदि के साथ भगवान की डोली को रूद्रनाथ पहुँचाया जाता है।
कल्पेश्वर
2134 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कल्पेश्वर में शिव की जटाएँ हैं। मंदिर में में वर्ष भर भगवान शिव की पूजा होती है। यहाँ देवराज इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि के श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान शिव की आराधना की और कल्पतरू प्राप्त किया था, परिणामतः वे पुनः श्रीयुत्‌ा हुए तभी से इस स्थान में शिव कल्पेश्वर नाम से विखयात हुए। यहाँ भगवान शिव की जटाओं की पूजा होती है। जो व्यक्ति यहाँ भगवान भोलेनाथ की विधिपूर्वक पूजा अर्चना करता है उसे जन्म जन्मान्तरों के पापों से मुक्ति मिल जाती है।

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